।। अवधेश कुमार ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
एक देश के रूप में हमारा सामूहिक व्यवहार कितना दिल दहलाने वाला है, इसका प्रमाण बार-बार मिलते हैं. उत्तराखंड आपदा में अपनी जान जोखिम में डाल कर हजारों फंसे लोगों को मौत के मुंह से बाहर लानेवाले जवानों को पूरा देश सलाम कर रहा है. एमआई 17 हेलीकॉप्टर के मौसम की भेंट चढ़ने और 15 जवानों की बलि लेने की त्रासदी ने पूरे देश को गम में डाल दिया. उत्तराखंड सरकार ने आनन-फानन में शहीद जवानों के परिजनों के लिए 10-10 लाख रुपये के मुआवजे की घोषणा कर दी. इससे एक नजर में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हमारा देश जान जोखिम में डालनेवाले बहादुरों के प्रति कृतघ्न नहीं है.
लेकिन जरा एक और खबर पर नजर डालिए. पिछले दिन हमारी क्रिकेट टीम ने आइसीसी चैंपियंस ट्रॉफी जीती. बीसीसीआइ ने इस जीत के बाद प्रत्येक खिलाड़ी को एक-एक करोड़ रुपये देने की घोषणा कर दी. जरा गौर कीजिए, दोनों में कितना अंतर है! इस विजय में न किसी की जान गयी, न ही आम तौर पर ऐसा कोई जोखिम था. तो अपनी जान जोखिम में डाल कर दूसरों की जान बचाने और देश को संकट से उबारने में जान चले जाने की कीमत 10 लाख और एक खेल में विजय की कीमत एक करोड़! इससे हम क्या संदेश दे रहे हैं?
गौरतलब है कि क्रिकेटरों को बोर्ड प्रतिवर्ष वेतन एवं भत्ते भी देता है, जो करोड़ों में है. अब तो बोर्ड ने पेंशन देना भी तय किया है. ऐसी ही कमाई सिनेमा और टीवी के प्रमुख कलाकारों की भी है. दूसरी ओर सेना के एक जवान की जीवन भर की कुल कमाई करोड़ तक पहुंच जाये, तो बड़ी बात है. किसानों के लिए तो लाख रुपये ही सपने हैं. क्या ये लोग किसी खिलाड़ी या अभिनेता से कम मेहनती हैं? क्या उनमें अपने काम के प्रति समर्पण उनसे कम है?
जरा सोचिए, किसी खिलाड़ी के साथ आपदा हो जाये तो खजाने का कितना मुंह खुलेगा? हमने युवराज सिंह के कैंसर की चिकित्सा के दौरान इसे देखा है. हम नहीं कहते कि संकट में किसी क्रिकेट खिलाड़ी की मदद न की जाये, किंतु ऐसा ही व्यवहार दूसरे के साथ नहीं होना दिल दुखाता है. अगर गहराई से देखा जाये तो दुनिया का कोई भी देश मूलत: आम आदमी के परिश्रम से ही चलता है. उसकी संपूर्ण व्यवस्था का रक्त, मांस, मज्ज आम आदमी है. किंतु सरकारों और प्रभावशाली निर्णायकों के व्यवहार में यही आम आदमी सबसे ज्यादा उपेक्षित है.
जब लालबहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का नारा देते हुए सहायता मांगी थी, तो आम परिवारों की माताओं, बहनों और बहुओं ने अपना आभूषण तक दान में दे दिया था. उत्तराखंड की आपदा में कई गांवों से ऐसी खबरें आ रहीं हैं कि लोगों ने फंसे हुए यात्रियों को अपना सब कुछ खिला दिया और स्वयं के लिए नहीं सोचा. हम यह क्यों नहीं सोचते कि इनका कुछ किलो अनाज और ईंधन हमारे खिलाड़ियों व अन्य सेलिब्रिटीज के करोड़ से ज्यादा मूल्य रखता है.
अगर हमारे खिलाड़ी बड़ा दिल दिखाते हुए यह भी घोषणा कर देते कि वे चैंपियंस ट्रॉफी की आय को आपदा पीड़ितों के लिए दान दे रहे हैं या पूरी क्रिकेट टीम कुछ गांवों को ही गोद ले रही हैं, तो इनका बड़प्पन दिखता भी. पूरा छोड़िए, यदि ये बोर्ड द्वारा घोषित एक-एक करोड़ की इनामी राशि ही इसके लिए छोड़ देते तो माना जाता कि उन्हें देशवासियों के दु:ख-दर्द की चिंता है. लेकिन नहीं. तो इसका अर्थ क्या है?
खिलाड़ी बेहतर खेलते हैं तो शाबासी मिलनी ही चाहिए, किंतु जिस तरह हमारे यहां वास्तविक बहादुरी और क्रीड़ा की बहादुरी, वास्तविक हीरो और परदे पर के हीरो के बीच अपाट बड़ी खाई बना दी गयी है, वह एक देश के रूप में स्वस्थ और संतुलित आचरण नहीं माना जा सकता है. देश के लिए इसके भयानक परिणाम आ रहे हैं- मनोवैज्ञानिक, व्यावहारिक दोनों स्तरों पर. इससे भारत के सांस्कृतिक विघटन की प्रक्रिया दिखने लगी है. इससे वास्तविक मेहनत के प्रति अरुचि बढ़ रही है.
जब बिना कुछ किये करोड़ों रुपयों के साथ-साथ नाम-सम्मान भी मिलता है, तो कोई मेहनत क्यों करना चाहेगा? समाज और देश के लिए समर्पित भाव से काम क्यों करेगा? क्रिकेटर, डांसर, फिल्मी या टीवी कलाकार बनने की युवाओं की ललक देखिए. सेना सहित कोई सामान्य नौकरी तो वे बस मजबूरी में करते हैं. ज्यादातर के मन में यही भाव चलता रहता है कि इस कमाई से हम न कभी धनी हो सकते हैं, न नाम पा सकते हैं और न सम्मान. अपने बच्चों को कोई किसान या मजदूर नहीं बनाना चाहता. हमारा सामूहिक आचरण ऐसा है, तो समाज भी दोषी है. इसलिए जरूरी है कि सरकार व समाज, दोनों अपना रवैया बदलें.