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राष्ट्रपति रूहानी से उम्मीदें

।। पुष्परंजन ।।(नयी दिल्ली संपादक, ईयू-एशिया न्यूज)– बाहरी दुनिया को लग रहा है कि हसन रूहानी जैसे उदार नेता के आने से कम से कम अमेरिका और उसके मित्र देशों से बातचीत के दरवाजे खुलेंगे, लेकिन ईरान के सच को भी जानना जरूरी है. – नवरोज मनाने की जब बात होती है, तो ईरान की […]

।। पुष्परंजन ।।
(नयी दिल्ली संपादक, ईयू-एशिया न्यूज)
– बाहरी दुनिया को लग रहा है कि हसन रूहानी जैसे उदार नेता के आने से कम से कम अमेरिका और उसके मित्र देशों से बातचीत के दरवाजे खुलेंगे, लेकिन ईरान के सच को भी जानना जरूरी है. –

नवरोज मनाने की जब बात होती है, तो ईरान की याद आती है. 2005 में नवरोज से पंद्रह दिन पहले यह तय हो गया था कि इस बार यह त्योहार ईरानी संगीतकार शाहीन नजाफी के शहर इस्फाहान जाकर मनाएंगे. इस्फाहान, तेहरान से पहले ईरान की राजधानी थी. इस ऐतिहासिक शहर के बारे में फारसी का मशहूर फिकरा है, ‘इस्फाहान नस्फ-ए-जहां अस्त’ अर्थात् ‘इस्फाहान आधी दुनिया है.’ बहरहाल, शाहीन नजाफी बाद में जर्मनी बस गये और एक इंटरव्यू के बहाने जो दोस्ती हुई, वह दूर तलक गयी.

पूरे यूरोप में ईरानी संगीत, शायरी, लजीज खाना और ईरानी स्त्रियों का खुलापन देख कर हमने यही तसव्वुर किया था कि उनके देश में शायद ऐसा ही माहौल मिले. लेकिन यह भ्रम तेहरान के इमाम खोमैनी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर उतरने से पहले ही टूट चुका था. विमान में उन हसीन चेहरों को ढंक लेने की हिदायत दे दी गयी थी, जिन्हें तेहरान उतरना था.

यूरोपीय महिलाओं को अलग से सिर ढंकने और परदानशीं होने के लिए कपड़े प्रदान किये गये थे. एयरपोर्ट पर जगह-जगह लगे टेलीविजन सेट में चल रहे कार्यक्रम यह बताने को काफी थे कि आप एक बंद समाज के दायरे में दाखिल हो चुके हैं. 2005 में यही डॉक्टर हसन रूहानी तेहरान के मेयर थे और दक्षिणी तेहरान में मजदूरों के मोहल्ले में रहने के कारण हरदिल अजीज हो गये थे, जो अब ईरान के राष्ट्रपति चुने गये हैं.

आठ साल बाद ईरान, अब भी नहीं बदला है. फुटबॉल खेलते हुए तस्वीर खिंचवाने वाले भूतपूर्व राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद भी कठोर पंथ के उन बंद दरवाजों को नहीं खोल पाये, जिसका वादा उन्होंने नयी पीढ़ी से किया था. अहमदीनेजाद तो साधारण टी-शर्ट और जींस पहनने वाले नेता रहे हैं. अहमदीनेजाद को देख कर पहली धारणा यही बनती थी कि वे एक उदारवादी नेता हैं, लेकिन उनका पूरा समय अमेरिका और इजराइल से उलझने में ही निकल गया. देश को गरीबी, बेरोजगारी और जहालत से बाहर निकालने में अहमदीनेजाद विफल साबित हुए. उन्होंने ‘धार्मिक राष्ट्रवाद’ को अवश्य मजबूत किया. इसलिए, ईरान जैसे देश में निजाम बदलने से यह भ्रम नहीं पाल लेना चाहिए कि नीयत भी बदल गयी है.

बाहरी दुनिया को यही लग रहा है कि डॉक्टर हसन रूहानी जैसे उदार नेता के आने से कम से कम अमेरिका और उसके मित्र देशों से बातचीत के दरवाजे खुलेंगे. लेकिन ईरान में ‘खुल जा सिमसिम’ का मंत्र सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह खामेनेई के अलावा और दूसरा कोई नहीं पढ़ता, इस सच को जानना जरूरी है. 64 साल के हसन फरीदों (डॉक्टर हसन रूहानी के बचपन का नाम) राष्ट्रपति चुनाव लड़ने से पहले सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह खामेनेई के विशेष प्रतिनिधि थे.

सर्वोच्च नेता अक्सर इस ओहदे पर अपने सबसे भरोसे के व्यक्ति को लाते हैं. प्रश्न यह है कि क्या अयातुल्ला खामेनेई यह चाहने लगे हैं कि अमेरिका और यूरोपीय संघ से परमाणु कार्यक्रम पर नये सिरे से बातचीत शुरू की जाए? और क्या अहमदीनेजाद, अयातुल्लाह खामेनेई की इच्छा के विपरीत जा रहे थे? तभी ग्रीन मूवमेंट के नेता और 1981 से 1989 तक ईरान के अंतिम प्रधानमंत्री रहे मीर हुसैन मसावी और उनकी पत्नी को अहमदीनेजाद ने नजरबंद कर दिया था. अब इन दोनों की नजरबंदी हटना संभव लग रहा है.

डॉक्टर हसन रूहानी सोलह वर्षो तक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रह चुके हैं. 2006 तक रक्षा से लेकर राजनीतिक कमेटियों के प्रमुख रहे डॉक्टर हसन रूहानी को दुनिया दूसरे कारणों से जानने लगी थी. इनमें से एक कारण था उनका ईरान के परमाणु कार्यक्रम का प्रमुख वार्ताकार बनना. डॉक्टर हसन रूहानी 6 अक्तूबर, 2003 से 15 अगस्त, 2005 तक ईरान के प्रमुख परमाणु वार्ताकार रहे. उस समय ईरान के राष्ट्रपति मोहम्मद खतामी थे.

678 दिनों के इस कार्यकाल में डॉक्टर हसन रूहानी ब्रसेल्स से विएना तक सक्रिय रहे. विएना स्थित अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अधिकरण (आइएइए) में डॉक्टर हसन रूहानी को सुनने का मुझे दो बार अवसर मिला था. मेरे जैसे चंद पत्रकारों का निष्कर्ष यही था कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम से पीछे नहीं हटने वाला, चाहे उसकी कीमत उसे जो कुछ भी चुकानी पड़े.

स्कॉटलैंड के ग्लासगोव सेलेडोनियन यूनिवर्सिटी में पढ़े डॉक्टर हसन रूहानी पर पश्चिमी देशों के राजदूतों का भरोसा इस इलाके में उनकी शिक्षा के कारण रहा है. उनके व्यवहार से ऐसा नहीं लगता था, जैसे संवाद का रास्ता बंद हो गया हो. डॉक्टर हसन रूहानी बहुत हद तक भारत के प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह की तरह मृदुभाषी हैं. इसलिए पश्चिम यदि उन्हें अपना ‘डार्लिंग प्रेसिडेंट’ मानने लगा है, तो मानने दीजिए. व्हाइट हाउस ने डॉक्टर हसन रूहानी की सफलता के तुरंत बाद एक विज्ञप्ति जारी कर कहा कि हम परमाणु संकट के समाधान के लिए वार्ता करने को तैयार हैं.

फ्रांस, ब्रिटेन ने राष्ट्रपति रूहानी के लिए प्रशंसा के जो पुल बांधे हैं, उनसे यह आशा जगी है कि जल्द ही बातचीत होगी. यूरोपीय संघ की विदेश नीति आयुक्त कैथरीन एश्टन ने भी घोषणा की है कि वह परमाणु विषय पर ईरान की नयी सरकार के साथ सहकारिता करने के लिए तैयार हैं. ‘पी फाइव प्लस वन’ (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के पांच स्थायी सदस्य, साथ में जर्मनी) की ओर से ईरान से परमाणु वार्ता करने की जिम्मेवार कैथरीन एश्टन ही हैं.

अपने पहले टेलीविजन संदेश में डॉक्टर हसन रूहानी कह चुके हैं कि पहले ‘पी फाइव, प्लस वन’ ईरान के परमाणु अधिकारों को मान्यता दे, फिर हम उचित उत्तर देते हैं. इस मान्यता को देने का मतलब यही निकलता है कि अमेरिका समेत पश्चिमी देशों को ईरान पर आयद प्रतिबंध हटाने होंगे. ऐसा हो, तो कम से कम भारत के लिए यह राहत की खबर होगी.

ईरान हर दिन 30.5 लाख बैरल तेल निकालता है और उसमें से 20.6 लाख बैरल कच्चा तेल निर्यात करता है. ईरान की कमर तोड़ने के लिए अमेरिका सबसे पहले उसके तेल खरीदने वालों को रोकने, उसके बाद उससे कारोबार कर रहे बैंकों पर नकेल कसने में लगा रहा. भारत को भी यह दबाव झेलना पड़ा और उसे ईरान से तेल आयात में करीब 11 प्रतिशत की कटौती करनी पड़ी. राष्ट्रपति रूहानी यदि प्रतिबंध हटवाने में सफल होते हैं, तो अफगानिस्तान में ईरान नयी भूमिका में अवतरित होगा.

2011 में डॉक्टर हसन रूहानी की एक पुस्तक ‘नेशनल सिक्योरिटी एंड न्यूक्लियर डिप्लोमेसी’ प्रकाशित हुई, जिसे लेकर ईरान के राजनीतिक हलके में बावेला मच गया. उनके विरोधी कहने लगे कि डॉक्टर रूहानी एक बेहद जिम्मेवार पद पर थे, इस लिहाज से उन्हें इस पुस्तक के माध्यम से ईरान के परमाणु कार्यक्रमों पर से परदा नहीं हटाना चाहिए था. दो साल बाद भी इस किताब ने पश्चिमी जगत में उम्मीद की नयी किरण जगा रखी है!

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