सिस्टम बन चुका है काले धन का गोरखधंधा

देशभर में काले धन पर चल रही बहस के बीच काले धन को लेकर नयापन सिर्फ इतना भर है कि अब मनमोहन सरकार की तर्ज पर मोदी सरकार पर यह कह कर कोई अंगुली नहीं उठा सकता कि काले धन को लेकर उसने कुछ नहीं किया. जिस देश में जीने की न्यूनतम जरूरतों को पूरा […]

By Prabhat Khabar Print Desk | November 1, 2014 3:16 AM
देशभर में काले धन पर चल रही बहस के बीच काले धन को लेकर नयापन सिर्फ इतना भर है कि अब मनमोहन सरकार की तर्ज पर मोदी सरकार पर यह कह कर कोई अंगुली नहीं उठा सकता कि काले धन को लेकर उसने कुछ नहीं किया.
जिस देश में जीने की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने में भी काले धन की जरूरत पड़ती हो, जहां तक जिसकी सोच जाती हो, हर उस जगह अगर कुछ ना कुछ लिये-दिये बिना काम होता ही न हो, तो फिर सवाल सिर्फ भ्रष्टाचार या काले धन का नहीं है, बल्कि उस सिस्टम का है, जिसके आसरे देश चल रहा है. यानी चुनाव लड़ कर सत्ता तक पहुंचने के हालात भी बिना काले धन के नजर आ नहीं सकते और उसके बाद कोई अगर यह कहे कि वह काले धन के सिस्टम पर उंगली रख सकता है, तो फिर यह सिर्फ राजनीतिक शिगुफा या जनता की भावनाओं से सियासी खेल के कुछ नहीं है.
क्योंकि आज से ठीक 25 बरस पहले वीपी सिंह स्वीस बैंक का नाम लेते थे, तो सुननेवाले ताली बजाते थे. 25 बरस बाद नरेंद्र मोदी ने भी जब काले धन का जिक्र किया, तो भी तालियां बजीं. 1989 में स्वीस बैंक की चुनावी हवा ने वीपी को पीएम बना दिया था. अब 25 बरस बाद काले धन और भ्रष्टाचार की वैसी ही हवा ने नरेंद्र मोदी को भी पीएम बना दिया है.
आज से 25 बरस पहले पहली बार वीपी सिंह ने बोफोर्स घोटाले के कमीशन का पैसा स्वीस बैंक में जमा होने का जिक्र अपनी हर चुनावी रैली में किया. सुननेवाले खुश हो जाते कि अगर वीपी पीएम बन गये, तो बोफोर्स घोटाले का पैसा वापस लायेंगे और कमीशन खानेवालों को जेल भी पहुंचायेंगे. वीपी को जनादेश मिला और आज तक बोफोर्स कमीशन की एक कौड़ी तक स्वीस बैंक से भारत नहीं आयी.
बहरहाल, 627 काले धन के बैंक धारकों का नाम लेकर देश का आम आदमी मचल रहा है और सरकार खुश है कि उसने एक कदम आगे बढ़ाया है. अब सवाल है कि क्या विदेशों में जमा काले धन की कौड़ी भर भी भारत आ पायेगी या नहीं? 25 बरस पहले वीपी के निशाने पर राजीव गांधी थे और मौजूदा दौर में मोदी के निशाने पर गांधी परिवार है.
25 बरस पुरानी राजनीतिक फिल्म एक बार फिर चुनाव में हिट हुई, तो फिर यह सवाल जनता के जेहन में गूंज रहा है कि आखिर कैसे विदेशी बैंकों में जमा काला धन वापस आयेगा. जबकि किसी भी सरकार ने काले धन को वापस लाने के लिए कोई भूमिका अदा की ही नहीं. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट को जिन 627 खाताधारकों के नाम सौंपे गये, उन नामों को भी स्वीस बैंक में काम करनेवाले एक ह्वीसल ब्लोअर ने निकाले हैं, जो फ्रांस होते हुए भारत पहुंचे हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने 627 खाताधारकों के नाम सीबीआइ को साझा करने का निर्देश देकर यह साफ कर दिया कि काला धन सिर्फ टैक्स चोरी नहीं है, बल्कि देश में खनन की लूट से लेकर सरकार की नीतियों में घोटाले यानी भ्रष्टाचार भी काले धन का चेहरा है. अगर इस चेहरे को राजनीति से जोड़ें, तो फिर 1993 की वोहरा कमेटी की रिपोर्ट और मौजूदा वक्त में चुनाव आयोग का चुनाव प्रचार में अनअकाउंटेड मनी के इस्तेमाल की बात कहना उसी राजनीतिक सत्ता को कटघरे में खड़ा करती है, जो सत्ता में आने के लिए स्वीस बैंक का जिक्र करती है और सत्ता में आने के बाद स्वीस बैंक को एक मजबूरी करार देती है. यह सवाल इसलिए बड़ा है, क्योंकि काला धन चुनावी मुद्दा हो और काला धन ही चुनावी प्रचार का हिस्सा बनने लगे, तो फिर काला धन जमा करनेवालों के खिलाफ कार्रवाई करेगा कौन?
जब काले धन के कटघरे में राजनीति, कॉरपोरेट, औद्योगिक घराने, बिल्डर या बड़े मीडिया हाउस से लेकर खेल और सिनेमा तक के धुरंधर खड़े दिख रहे हों, तब सरकार किसी की हो और पीएम कोई भी हो, वह कर क्या सकता है. इतना ही नहीं ड्रग, घोटाले, अवैध हथियार से लेकर आतंक व उग्रवाद की थ्योरी के पीछे बंधूक की नली से निकलनेवाली सत्ता भी यदि काले धन पर जा टिकी हो, तो फिर नकेल कसने का पुलिसिया सिस्टम भी कैसे किसी हल की जगह मुद्दे को बड़ा करेगा और इसके जरिये धन उगाही और सिस्टम में खुद का कद बढ़ाने का ही काम करेगा, इसे कौन नकार सकता है?
मुश्किल सवाल तो यह है कि राजनीति के अपराधीकरण के पीछे वोहरा कमेटी की रिपोर्ट ने दो दशक पहले ही काले धन का खुला जिक्र कर दिया था. और मौजूदा वक्त में कॉरपोरेट पूंजी के आसरे चुनाव लड़ने और जीतनेवाले नेताओं की फेहरिस्त उसी तरह सैकड़ों में है, जैसे काला धन सेक्यूलर छवि के साथ देश के सामने आ खड़ा हुआ है.
राजनीतिक मजबूरी कैसे काला धन या भ्रष्टाचार के आगे नतमस्तक है, इसका अंदाजा इससे भी मिल सकता है कि राज्यसभा के 40 फीसदी सांसद अभी भी वैसी समितियों के सदस्य हैं, जिनको उनके अपने धंधे के बारे में निर्णय लेना हो. जैसे किंगफिशर के मालिक राज्यसभा सदस्य बनने के बाद नागरिक उड्डयन समिति के सदस्य हो गये और उस वक्त सारे निर्णय किंग फिशर के अनुकूल होते चले गये. सच यही है कि 2007 के बाद से लगातार कॉरपोरेट और औद्योगिक घरानों को टैक्स में हर बरस सब्सिडी 5 से 6 लाख करोड़ तक की दी जाती है.
यानी सरकार के लिए विकास का ढांचा ही उस आवारा पूंजी से जुड़ा हुआ है, जो अंतरराष्ट्रीय बैंक के विस्तार के लिए जरूरी मानी जाती हो.
जिन्हें यह लगता हो कि सत्ता बेलगाम ना हो, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट तो है ही, तो फिर जिन 627 नामो की फेहरिस्त को सुप्रीम कोर्ट ने लिफाफे को बिना खोले एसआइटी के हवाले कर दी, जबकि एसआइटी को तो पहले से ही वह सूची मिल चुकी थी. काले धन को लेकर नयापन सिर्फ इतना भर है कि अब मनमोहन सरकार की तर्ज पर मोदी सरकार पर यह कह कर कोई अंगुली नहीं उठा सकता कि काले धन को लेकर उसने कुछ नहीं किया. पूरा सच यह है कि हर जांच एंजेसी की लगाम राजनीतिक सत्ता के पास होती है न कि सुप्रीम कोर्ट के पास.
यानी जिस काले धन को समेटने और देश के विकास में बांटने का सपना संजोया जा रहा है या फिर सुप्रीम कोर्ट के जरिये सत्ता पर नकेल कसने का जो चेक एंड बैलेंस देखा जा रहा है, उसका एक सच यह भी है कि देश में हर उस क्षेत्र से जुड़े पूंजीपतियों का टर्न-ओवर यूरोप के विकास के तर्ज पर बढ़ रहा है, जहां सबसे ज्यादा काला धन चाहिए. देश में मौजूदा उपभोक्ता वर्ग है कौन, उसकी जरूरत-गैरजरूरत पूरा करने के तरीकों से भी समझा जा सकता है, क्योंकि देश के राजस्व को चूना भी विकास के नाम पर इसी तबके को विस्तार देकर लगातार लगाया जा रहा है.
लाख टके का सवाल अब भी यही है कि बीते लोकसभा चुनाव में बार-बार विदेशी बैंकों में जमा 500 अरब डॉलर के काले धन का जो जिक्र किया गया, वह काला धन कभी भारत आयेगा भी या फिर देश को महज सियासत का फिल्मी सपना दिखाया गया था!
पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार

Next Article

Exit mobile version