इस दोस्ती की राह में सतर्कता भी जरूरी

पूंजी निवेश की जो गाजर हमारे सामने झुलायी जा रही है, उस पर ठंडे दिमाग से सोचने की जरूरत है.. यह राष्ट्रहित का तकाजा है कि चीन के साथ अदम्य उत्साह और सशक्त आशावाद से प्रयासशील रहने के साथ-साथ हम जमीनी हकीकत को नजरअंदाज न करें. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का भारत दौरा जितनी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | September 19, 2014 12:40 AM

पूंजी निवेश की जो गाजर हमारे सामने झुलायी जा रही है, उस पर ठंडे दिमाग से सोचने की जरूरत है.. यह राष्ट्रहित का तकाजा है कि चीन के साथ अदम्य उत्साह और सशक्त आशावाद से प्रयासशील रहने के साथ-साथ हम जमीनी हकीकत को नजरअंदाज न करें.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का भारत दौरा जितनी गर्मजोशी से आरंभ हुआ था, उससे कहीं कम आशावादी स्वर के साथ समाप्त हो रहा है. ऐसा इससे पहले भी कई बार दिखा है, परंतु इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे और उनके द्वारा इस अतिथि की गुजरात में खुले दिल से मेहमाननवाजी के बाद अपेक्षाएं कुछ ज्यादा ही उफान पर थीं. बहरहाल, जो लोग यह सोचते हैं कि सौ साल से भी पुराना सीमा-विवाद एक झटके में समाप्त हो जायेगा, उन्हें नादान ही समझा जायेगा. यह कहना सही नहीं होगा कि किसी को अंदेशा नहीं था कि जिनपिंग के दौरे के दौरान चीनी सैनिक लद्दाख में बाजू फुला कर मोदी के 56 इंची सीने को नापने की कोशिश करेंगे. खासकर तब, जबकि भारत के वियतनाम में दिये साउथ चाइना सी वाले बयान पर चीन का विदेश मंत्रालय आपत्ति दर्ज करा चुका था. जिस इलाके में बड़े पैमाने पर घुसपैठ की खबरें मिली हैं, वहां अरसे से छिटपुट ‘मुठभेड़ें’ होती रही हैं.

सौभाग्य से इनका स्वरूप हिंसक नहीं रहा है. वहां लठैती कम, बकैती ज्यादा होती रही है. कुछ विश्लेषक समझा रहे हैं कि यह ‘तनाव’ एक नूरा-कुश्ती सरीखा प्रायोजित लगता है, जिसका राजनयिक लाभ दोनों पक्ष उठा सकते हैं. इस बहाने मोदी सीमा-विवाद को वार्ता का हिस्सा बना सके हैं, जिसकी प्राथमिकता पहले इतनी नहीं लग रही थी, तो दूसरी तरफ चीनी सदर यह दबाव बना सके हैं कि हमने तो आर्थिक-तकनीकी सहकार का भरपूर पिटारा खोल दिया है, इसके एवज में सीमा पर रियायतें देने की बारी अब आपकी है!

बात आगे बढ़ाने से पहले चंद मुद्दे साफ करना बेहद जरूरी है. चीन का यह कहना सच है कि सीमा-विवाद इतिहास की विरासत है. लेकिन इसका यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि भविष्य की मरीचिका को देखते हुए वर्तमान में इसके निबटारे से मुख मोड़ लिया जाये. भारत की जनता सबसे पहले सीमा-विवाद का समाधान चाहती है- बाकी बातें फिर. यहां यह जोड़ने की भी जरूरत है कि यदि इस मुलाकात में चीन ने इस बारे में कोई स्पष्ट आश्वासन नहीं दिया, तो इसका ठीकरा मोदी के माथे पर कतई नहीं फोड़ा जा सकता. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ही यह नुस्खा सुझाया था कि चीन के साथ हमारे आर्थिक संबंधों की नजाकत को देखते हुए फिलहाल सीमा-विवाद को ठंडे बस्ते में डाल देना बेहतर होगा. व्यापार को 20-30 अरब डॉलर से 100 अरब डॉलर तक पहुंचाने के सुनहरे ख्वाब भी उनकी सरकार ने ही देश को दिखलाये थे. जिस आक्रामक घुसपैठ को रोकने की जिम्मेवारी तीन महीने पुरानी एनडीए सरकार की बतलायी जा रही है, उसको बेलगाम भड़काने का काम यूपीए सरकार ही कर गुजरी है.

यह बात भी अनगिनत बार दोहराई जा चुकी है कि भारत और चीन के रिश्ते हजारों साल पुराने और बहुआयामी हैं; सांस्कृतिक, आर्थिक नाते भू-राजनीतिक मनमुटाव से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं आदि. इस घड़ी इस बात की अनदेखी करना आत्मघातक होगा कि हम सांस्कृतिक या आर्थिक संबंधों की सामरिक संवेदनशीलता को नजरअंदाज करें और भू-राजनीति का अवमूल्यन करने की उतावली करें. भारत पहुंचने के पहले शी श्रीलंका और मालदीव की यात्र पर थे. इन दो देशों में भी उन्होंने कई समझौतों पर हस्ताक्षर किये. कोलंबो में नौसैनिक महत्व के बंदरगाह निर्माण की बात आगे बढ़ी, तो मालदीव में उस हवाई अड्डे के निर्माण का ठेका एक चीनी कंपनी को मिला जो कभी एक भारतीय कंपनी के पास था. अर्थात्, चीन भारत की घेराबंदी में कोई रियायत देता नजर नहीं आता. आप अगर चीन के पक्षधर हैं, तो यह कह सकते हैं कि जब भारत खुद चीन से पूंजी निवेश के लिए आतुर है, बुनयादी ढांचे में सुधार के लिए मदद चाहता है, तो फिर पड़ोस में उसकी मौजूदगी से आपत्ति कैसे हो सकती है? लेकिन, कड़वा सच यह है कि चीन जहां भी पैर जमाता है, वहां से भारत का पत्ता जल्द ही साफ हो जाता है.

चीन ने यह इच्छा भी प्रकट की है कि चीन को सार्क में ज्यादा हिस्सा लेना चाहिए. तमिलनाडु की दलगत राजनीति के दबाव में भारत ने खुद श्रीलंका को चीन की गोदी में बिठाया है. अल्पसंख्यक वोट बैंक के दोहन के चक्कर में म्यांमार और बांग्लादेश पर हमारी विदेश नीति असंतुलित रही है, जिसका लाभ चीन ने स्वाभाविक रूप से उठाया है.

इसलिए जो सवाल पूछा जाना चाहिए, वह यह है कि यदि चीन का सहयोगी राजनय निरापद-निदरेष है, तो क्यों वियतनाम के साथ भारत के तकनीकी-आर्थिक सहयोग की पेशकश से उसकी त्यौरियां चढ़ने लगी हैं? भारत के दौरे के तत्काल पहले शी ने सागर की तरंगों पर नये रेशम और मसाला मार्ग के निर्माण की परियोजना का अनावरण किया है. इस प्रस्ताव का स्वागत सिंगापुर कर चुका है. देर-सवेर इंडोनेशिया भी अपना हित देख कर इसका समर्थन कर सकता है. इसके बात भारत की पूरब की तरफ देखनेवाली विदेश नीति का क्या बचेगा? सदियों से दक्षिण-पूर्व एशिया का विभाजन सांस्कृतिक प्रभाव की दृष्टि से भारत और चीन के बीच होता रहा है. 1962 के बाद से भारत का कद निरंतर बौना होता रहा है. अगर चीन से संबंध सुधारने की जल्दबाजी में हम यहां से पीछे हटते हैं, तो इसकी भरपाई हम कभी नहीं कर पाएंगे.

बीस अरब डॉलर पूंजी निवेश की जो गाजर हमारे सामने झुलायी जा रही है, उसके बारे में ठंडे दिमाग से सोचने की जरूरत है. किन क्षेत्रों में यह निवेश होगा? क्या हम इतनी बड़ी रकम पचा सकते हैं? इसके बाद चीन का प्रभुत्व हमारी अर्थव्यवस्था पर और कितना बढ़ जायेगा? संयुक्त उत्पादन हो या रोजगार के मौके- इनका लाभ किस इलाके और तबके को मिलेगा तथा देश के इस अभियान से अछूते रहनेवाले प्रदेशों के निवासियों को इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है? भारत-चीन सहकार की बढ़ी रफ्तार का पर्यावरण पर क्या असर पड़ेगा? इनके अलावा व्यावसायिक सौदों में पैदा होनेवाले विवादों के निबटारे से जुड़े सवाल भी आशंकाओं को जन्म देते हैं.

इन सब का मकसद मोदी की ताजातरीन राजनयिक ‘उपलब्धि’ का अवमूल्यन नहीं है. लेकिन, यह राष्ट्रहित का तकाजा है कि चीन के साथ अदम्य उत्साह और सशक्त आशावाद से निरंतर प्रयासशील रहने के साथ-साथ हम जमीनी हकीकत को नजरअंदाज न करें. स्वयं मोदी ने चुस्त जुमले में कहा है कि ‘मीलों का सफर इंच इंच तय होता है’. जिन समझौतों पर दस्तखत किये गये हैं और सीमा विवाद के समाधान बारे में जो भरोसा (जैसा भी) दिया गया है, उनकी असलियत सामने आने में आठ-दस महीने लगेंगे. तब तक सतर्क रहना ही अकलमंदी होगी.

पुष्पेश पंत

वरिष्ठ स्तंभकार

pushpeshpant@gmail.com

Next Article

Exit mobile version