असगर वजाहत की सलाह पर विवाद : धरना, आंदोलन और स्वेटर-उपदेश

सुमन केशरी साहित्यकार delhi@prabhatkhabar.in स्त्रियों का काम ही है, ज्ञानी-ध्यानियों के उपदेशामृत सुनना और उसके अनुरूप आचरण करना. अब भला धरना-प्रदर्शन में बैठी-ठालियों को कहा ही जा सकता है कि बैठे बैठे कान से उपदेश सुनें और मन को स्वेटर के फंदों में उलझायें, ताकि जरूरत से ज्यादा ज्ञान दिमाग में न धंस जाये कि […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 18, 2020 5:57 AM
सुमन केशरी
साहित्यकार
delhi@prabhatkhabar.in
स्त्रियों का काम ही है, ज्ञानी-ध्यानियों के उपदेशामृत सुनना और उसके अनुरूप आचरण करना. अब भला धरना-प्रदर्शन में बैठी-ठालियों को कहा ही जा सकता है कि बैठे बैठे कान से उपदेश सुनें और मन को स्वेटर के फंदों में उलझायें, ताकि जरूरत से ज्यादा ज्ञान दिमाग में न धंस जाये कि बात न मानने की जुर्रत हो जाये इन औरतों में!
मुझे बरबस सत्यजित राय की फिल्म ‘हीरक राजार देशे’ याद आ रही है- ज्यादा पढ़े, ज्यादा जाने/ ज्यादा जाने, कम माने/ एई जन्न स्कूल कॉलेज बंद… सच बात है, जानकार दिमाग प्रश्न करेगा और संतोषजनक उत्तर की तलाश में और भी जगह जाना व बोलना जारी रखेगा.
तभी तो कुछ लोग जेएनयू, एएमयू, जामिया, गार्गी बंद करवा रहे हैं, तो कुछ लोग धरने में बैठी औरतों को सलाह दे रहे हैं कि वे यहां ‘जवानों’ के लिए बैठे बैठे स्वेटर ही बुन डालें… वाह, जवान दोनों जगह कॉमन हैं! इसे क्या संयोग भर कहेंगे? दरअसल मर्दवादियों का मानना है कि औरतें अनुसरण करने के लिए हैं. बात मानने के लिए हैं.
तो, जब उन्हें आदेश दे दिया गया है कि वे शाहीन बाग में धरने पर बैठ जायें, तो अब कोई न कोई काम तो देना पड़ेगा, वरना बेकार इधर-उधर की बातें सुनेंगी और बिगड़ेंगी! अब इतनी छूट तो दे दी कि घर से बाहर सड़क पर बैठें- पर बैठ कर क्या करें, यह तो पुरुषों को ही तय करना पड़ेगा न! क्यों?
जनाब, बड़े भारी लेखक-सेखक हैं आप! यदि औरत वहां बैठी है, तो सुनेगी उन तकरीरों को, जो वहां हो रही हैं, खुद तकरीर करेगी. सोचेगी कि धरने को किस तरह चलाया जाये. क्या करने से सरकार के बहरे कानों तक आवाज पहुंचेगी?
यानी कि यह एक स्वर्णिम मौका है औरतों को आगे बढ़ने और अगुवाई करने का. और, औरत है, तो केवल यही नहीं सोचेगी- वह वहीं बैठे बैठे घर के इंतजामात भी देखेगी. बारी लगा कर घर का काम भी कर आयेगी. बड़े मियां और नन्हें छुटकू को दवाई भी दिलवा देगी. और तो और, वहीं बैठे बैठे बच्चे का होमवर्क भी करवा देगी.
इसी के साथ वह लाठी भी झेलेगी, और जहरीली गैस भी. गालियां तो हमारी किस्मत हैं ही. और, आपके सुभाषित भी! तो, आपसे बस इतना कहना है कि औरतों को वहां बैठ कर व्यक्ति बनने दीजिए. उन्हें अपना दिमाग तेज और इरादे मजबूत करने दीजिए. उन्हें भी लीडर बनने दीजिए. आप क्यों उन्हें ऊन के फंदों में उलझाये रखना चाहते हैं? फंदे रस्सी के हों या ऊन के, हैं तो फंदे ही. अगर उसे क्रिएटिव होना है, तो वह होकर रहेगी- आपके दिशा-निर्देश की जरूरत नहीं है.
जनाब, आप रसोई में जाइए, एक कप चाय खुद बनाइए और फिर कुर्सी-मेज पर बैठकर हम औरतों की दासता के बारे में एक मार्मिक कहानी लिख डालिए. हम जय-जयकार करेंगी और आपको अपना सबसे बड़ा रहनुमा घोषित करने के लिए वहीं शाहीन बाग में बैठी-बैठी मीटिंग बुला लेंगी.
क्यों बहनो! खरी बात कही न मैंने?
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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