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कैसा राज, कैसा समाज!

।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।(वरिष्ठ पत्रकार)यह बात अब आईने की तरह साफ है कि इस देश को समता, स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी व पंथनिरपेक्ष गणराज्य बनाने के संकल्प को संविधान की पोथियों में अकेला छोड़ देना हम पर भारी पड़ने लगा है. क्योंकि इससे अंधाधुंध उपभोग व अमीरी की हवस […]

।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
यह बात अब आईने की तरह साफ है कि इस देश को समता, स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी व पंथनिरपेक्ष गणराज्य बनाने के संकल्प को संविधान की पोथियों में अकेला छोड़ देना हम पर भारी पड़ने लगा है. क्योंकि इससे अंधाधुंध उपभोग व अमीरी की हवस पैदा करने वाला, असमानता व शोषण पर आधारित जो मानवीय गरिमाहीन, असामाजिक, निर्मम, बलात्कारी व स्वार्थी समाज बन रहा है, उसमें खास व आम के बीच की खाई निरंतर चौड़ी होती ही जा रही है.

साथ ही न आम आदमी की सुरक्षा संभव हो पा रही है, न ही स्त्रियों की. यह हो भी कैसे सकता है कि देश में चारों ओर गैरबराबरी अट्टहास करती रहे, फिर भी स्त्री-पुरुष बराबरी का सपना साकार हो जाये. गैरबराबरी के रहते वह सामाजिक संवेदनशीलता भी दिवास्वप्न ही है, जिसकी जरूरत प्रधानमंत्री हर जनरोष के बाद जताते हैं, जो स्त्रियों के प्रति जघन्यताओं के बाद भड़कता है.

राजधानी दिल्ली की 16 दिसंबर की गैंगरेप की बहुचर्चित घटना के बाद बने कड़े कानून से बेखौफ बलात्कारियों द्वारा नये और ज्यादा वीभत्स अपराधों को अंजाम देने के बाद यह भ्रम भी टूट ही जाना चाहिए कि कानूनी सुरक्षा अकेले किसी समस्या को समाधान तक ले जा सकती है.

कानून क्या करेगा, अगर उसका पालन करानेवालों की आंखों पर नाना प्रकार के पूर्वाग्रहों, भेदभावों व काहिलियों की पट्टियां बंधी हुई हों और बड़ा वर्ग अमर्यादित शक्ति व समृद्घि के गुमान में अपने को हर कानून से ऊपर समझता हो?

हमारी व्यवस्था का कड़वा सच यह है कि बलात्कार सिर्फ स्त्रियों से नहीं हो रहे. समूचा देश नाना प्रकार से अनीतिगत बलात्कारों का शिकार है. भूमंडलीकरण के नाम पर समर्थो द्वारा असमर्थों के भरपूर व्यावसायिक दोहन की खुली स्वीकृति ने सिर्फ इतना ही नहीं किया है कि हमें अकेला करके चारों तरफ भय और अविश्वास का वातावरण सृजित कर दे. उसने पुरानी सारी नैतिकताओं का आखेट करके ऐसी नयी सुविधाजनक नैतिकताएं गढ़ ली हैं, जो अनैतिकताओं से भी ज्यादा खतरनाक हैं.

इनके कारण न सात तालों के भीतर सुरक्षा का अहसास घना होता है और न खुले में. इसलिए कि तथाकथित खुलापन भी बंद दिमागों के हवाले कर दिया गया है. तभी तो स्त्रियों की सुरक्षा को ध्यान में रख कर बनाये गये महिला थाने भी किसी काम के नहीं. बुलंदशहर में महिला पुलिसकर्मी ही बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने आयी बच्ची को हवालात के हवाले कर देती हैं! इन महिला पुलिसकर्मियों को अपने ही वर्ग के प्रति इतना संवेदनहीन व्यवस्था ने नहीं, तो और किसने बनाया?

एक वक्त हम कहते थे कि पुलिस बलों में दलितों, अल्पसंख्यकों व महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा, तो पुलिस इनके लिए संवेदनशील हो जायेगी! लेकिन अब दलित महिला मुख्यमंत्री के राज में भी महिलाएं महफूज नहीं रह पातीं और एक महिला मुख्यमंत्री अपने राज्य में बढ़ते बलात्कारों को खुलेपन की संस्कृति की देन बताती और पल्ला झाड़ती नहीं थकतीं! लेकिन वे नहीं बतातीं कि तब क्या बलात्कारों से निजात उस संस्कृति की शरण में जाने से मिलेगी, जिसमें इंद्र के छलपूर्वक बलात्कार की सजा उलटे अहिल्या को ही भुगतनी पड़ी थी? वे बतायें भी क्या, जब लोकसभा में विपक्ष की महिला नेता की जुबान 16 दिसंबर की पीड़िता को ‘जिंदा लाश’ बताने में भी नहीं लड़खड़ाती!
शायद वक्त आ गया है जब इस खतरे को महसूसा जाये कि व्यवस्था इसी तरह सुरक्षा देने में असफल रही, तो एक दिन पीड़ितजन उसके बाहर सूरक्षाएं ढूंढ़ने लगेंगे! उस दिन से बचने का रास्ता महज यह है कि व्यवस्था का अमानवीय चरित्र खत्म करके किसी के भी साफ्ट टारगेट होने की स्थिति उन्मूलित कर दी जाये. समझा जाये कि बलात्कार मानसिकता भी है और प्रवृत्ति भी.

यह सिखाती है कि जो कुछ भी नीतिसम्मत ढंग से हासिल नहीं होता, उसे छीना-झपटी या नोच-खसोट के रास्ते से पा लिया जाये! और नोच-खसोट ही करनी है, तो जैसे देश के संसाधन वैसी स्त्री की देह! दुर्भाग्य से अभी व्यवस्था न केवल बलात्कारी मानसिकता का हौसला बढ़ाती लगती है, बल्कि लूट-खसोट की ग्लोबल आंधी के उपयुक्त उसका एक खास वर्ग तैयार कर रही है.

जो लूट में शामिल नहीं हैं, वे सब उसके पीड़ित हैं! जिन कर्णधारों को इससे निजात दिलानी थी, वे या तो उसका ठीकरा उसी समाज पर फोड़ रहे हैं, जो उन्हीं द्वारा नियंत्रित है, या फिर जनता से समाधान सुझाने को कह रहे हैं! उन्हें अपने तईं कोई समाधान सूझता ही नहीं!

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