चीन की चुनौती

भले ही सुरक्षा परिषद् में कश्मीर पर चीन एवं पाकिस्तान को समर्थन नहीं मिल सका है, लेकिन इससे भारत को निश्चिंत नहीं बैठना चाहिए. दशकों बाद सुरक्षा परिषद् में चीन द्वारा इस मसले को उठाना पाकिस्तान तथा आतंकवादी एवं अलगाववादी समूहों के लिए हिंसा करने का उकसावा है, ताकि कश्मीर पर दुनिया की निगाह बनी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | August 21, 2019 6:12 AM
भले ही सुरक्षा परिषद् में कश्मीर पर चीन एवं पाकिस्तान को समर्थन नहीं मिल सका है, लेकिन इससे भारत को निश्चिंत नहीं बैठना चाहिए. दशकों बाद सुरक्षा परिषद् में चीन द्वारा इस मसले को उठाना पाकिस्तान तथा आतंकवादी एवं अलगाववादी समूहों के लिए हिंसा करने का उकसावा है, ताकि कश्मीर पर दुनिया की निगाह बनी रहे. चीनी रवैया अचरज की वजह इसलिए भी है कि कुछ दिन पहले ही विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भारत के पक्ष को साफगोई से उसके सामने रख दिया था.
भारत पर जम्मू-कश्मीर की यथास्थिति में बदलाव का आरोप लगाने से पहले चीन को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए कि वह खुद अक्साई चिन पर काबिज है और पाकिस्तान से भी उसने एक हिस्सा ले रखा है. इसके अलावा उसने काराकोरम में सड़क-निर्माण किया है और अब पाक-अधिकृत कश्मीर में इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने की कोशिश में है. चीन की नजर में अगर यह क्षेत्र विवादास्पद है, तो फिर उसके एकतरफा फैसलों को कैसे देखा जाना चाहिए.
पाकिस्तान एक दशक पहले गिलगिट-बाल्टिस्तान को अपने हिस्से में आधिकारिक रूप से मिलाने की कवायद कर चुका है. पाक-अधिकृत कश्मीर में संसाधनों और जमीन की लूट जारी है तथा वहां धड़ल्ले से बाहरियों को बसाया जा रहा है. यह विडंबना ही है कि चीन (पाकिस्तान भी) भारत पर यथास्थिति बदलने और मानवाधिकार हनन का आरोप मढ़ने की कोशिश कर रहा है.
सच तो यह है कि तिब्बत, सिंकियांग और झिंगझियांग में चीन का एकाधिकारवादी सत्ता तंत्र तमाम अधिकारों को धत्ता बताते हुए न केवल जनसंख्या का हिसाब बदल रहा है, बल्कि धार्मिक व जातीय अल्पसंख्यकों के दमन का सिलसिला भी चल रहा है. भारत ने हमेशा चीन या किसी अन्य देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने से परहेज किया है. यदि चीन इस कूटनीतिक आदर्श का उल्लंघन कर रहा है, तो भारत को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए.
चीन से पूछा जाना चाहिए कि उसके और पाकिस्तान के दावे तथा घाटी में अस्थिरता के कारण भारत को बड़ी संख्या में सेना तैनात करने की सामरिक मजबूरी है, लेकिन तिब्बत में लाखों चीनी सैनिकों की मौजूदगी की क्या वजह है. वहां न तो भारत का कोई दावा है, न ही वह किसी आतंकी या अलगाववादी समूह को समर्थन दे रहा है तथा न ही वहां ऐसा कोई संगठन सक्रिय है. क्या कश्मीर के बारे में भी ऐसा कहा जा सकता है? भारत को अक्साई चिन पर अब जोर देना चाहिए. द्विपक्षीय मुद्दों पर भी भारत दबाव बढ़ा सकता है.
हांगकांग की मौजूदा अस्थिरता का वहां बसे भारतीयों पर असर पर भी हमें बोलना चाहिए. आंख मूंद कर पाकिस्तान की तरफदारी करने की चीनी नीति पर भी सवाल उठाना जरूरी है. सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के भारत के दावे पर चीन हमेशा से बाधक रहा है. इस मामले में भी भारत को अपनी शिथिलता त्यागनी चाहिए. भारतीय विदेश नीति को धारदार बनाने की जरूरत आन पड़ी है.

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