न्‍यायपालिका की स्‍वतंत्रता बनी रहे

।। सुभाष कश्यप ।। प्रख्यात संविधानविद् न्यायिक नियुक्ति की व्यवस्था में पारदर्शिता की जरूरत है, ताकि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच एक-दूसरे को लेकर किसी तरह का कोई भ्रम न पैदा हो सके. उम्मीद है कि सरकार इस बाबत व्यापक मंथन और विचार-विमर्श के बाद ही कोई फैसला लेगी. देश की बड़ी अदालतों में जजों […]

By Prabhat Khabar Print Desk | July 25, 2014 5:01 AM

।। सुभाष कश्यप ।।

प्रख्यात संविधानविद्

न्यायिक नियुक्ति की व्यवस्था में पारदर्शिता की जरूरत है, ताकि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच एक-दूसरे को लेकर किसी तरह का कोई भ्रम न पैदा हो सके. उम्मीद है कि सरकार इस बाबत व्यापक मंथन और विचार-विमर्श के बाद ही कोई फैसला लेगी.

देश की बड़ी अदालतों में जजों की नियुक्ति कोलेजियम प्रणाली के तहत हो रही है. लेकिन, जस्टिस मरकडेय काटजू के खुलासे से जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पर शुरू हुए विवाद के बाद अब इसे खत्म कर राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाने की बात की जा रही है.

इसके नफा-नुकसान को समझने से पहले कोलेजियम प्रणाली को समझ लेना जरूरी है. दरअसल, कोलेजियम प्रणाली एक ‘एक्स्ट्रा कांस्टीटय़ूशनल’ यानी ‘अपर संवैधानिक’ प्रणाली है. ऐसी कोलेजियम प्रणाली का भारतीय संविधान में कहीं कोई प्रावधान नहीं है. यह उच्चतम न्यायालय की एक व्यवस्था है, जिसके पास जजों की नियुक्ति का पूरा अधिकार है.

जहां तक इस मामले में कार्यपालिका यानी सरकार के अधिकार की बात है, तो वह कोलेजियम की सिफारिशों को मानने के लिए बाध्य है. हां यदि सरकार चाहे, तो अपने सीमित अधिकार के तहत कोलेजियम की सिफारिश को एक बार लौटा सकती है, लेकिन दूसरी बार की गयी उसी सिफारिश को मानने के लिए वह बाध्य है.

ध्यान देने योग्य यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम में पांच जज सदस्य होते हैं, जिनमें भारत के मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार और वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल होते हैं. मेरा ख्याल है कि उच्चतम न्यायालय की यह व्यवस्था, न्यायपालिका में कार्यपालिका के दखल को कम करने के लिए ही बनायी गयी होगी.

अब कुछ लोगों का मानना है कि राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाने से बेहतर होगा कि कोलेजियम प्रणाली में ही जरूरी संशोधन किया जाये. ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी भी है कि हमारे संविधान में कोलेजियम की ताकत को लेकर जब ऐसा कोई प्रावधान है ही नहीं, जिससे कि उसे संवैधानिक प्रावधान माना जाये, तो इसमें कोई संशोधन आखिर कैसे हो सकता है?

यही वजह है कि जस्टिस मरकडेय काटजू के खुलासे के बाद यह मामला बढ़ता ही चला गया है, जिसके परिणामस्वरूप अब इसे खत्म करने की बात की जा रही है. किसी भी व्यवस्था को खत्म करने का तात्पर्य है, उसकी जगह एक नयी व्यवस्था को स्थापित करना, इस शर्त के साथ कि यह नयी व्यवस्था उस पहली व्यवस्था से कहीं ज्यादा अच्छी और पारदर्शी होगी. यानी पहली व्यवस्था की कमियों-खामियों को दूर करते हुए देशकाल और समय के हिसाब से कुछ नये प्रावधानों को जोड़ कर ही नयी व्यवस्था बनायी जानी चाहिए. अगर ऐसा न हो पाये, तो किसी नयी व्यवस्था को स्थापित करने का कोई अर्थ नहीं है.

अब सवाल आता है नयी व्यवस्था पर कि वह कैसी होगी. यानी राष्ट्रीय न्यायिक आयोग की रूपरेखा क्या होगी और किन-किन मामलों में वह अपना दखल रखेगी, जिससे कि न्यायिक प्रक्रिया और सुदृढ़ और पारदर्शी हो. इस बारे में अभी सरकार विचार-विमर्श कर रही है, इसलिए मैं अभी इसकी रूपरेखा के बारे में कुछ नहीं कह सकता.

हां, यदि सरकार मुझसे कोई सुझाव मांगती है, तो एक संविधानविद् होने के नाते मैं उसे सुझाव जरूर दूंगा. संविधान में ऐसा कोई नियम नहीं है कि सिर्फ जजों का समूह ही जजों की नियुक्ति कर सकता है. अगर ऐसा रहेगा, तो इसमें पारदर्शिता कहां से होगी, और फिर जज समूह भी भाई-भतीजावाद की चपेट में आ जाता है.

यही वजह है कि न्यायिक नियुक्ति की व्यवस्था में पारदर्शिता की जरूरत है, ताकि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच एक-दूसरे को लेकर किसी तरह का कोई भ्रम न पैदा हो सके.

जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता के मद्देनजर कुछ लोगों का मानना है कि यह अमेरिकी प्रणाली जैसी होनी चाहिए. अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा जज की सिफारिश के बाद सीनेट की न्यायिक समिति इस पर बहस करती है, जिसका सीधा प्रसारण टीवी पर होता है, जिसे अमेरिकी जनता देखती-समझती है.

लेकिन भारत के मद्देनजर मैं ऐसी किसी भी प्रक्रिया को पारदर्शिता के लिए जरूरी नहीं मानता और इसलिए जनसाधारण तक जजों की नियुक्ति प्रक्रिया का सीधा प्रसारण को अनुचित तो नहीं, लेकिन उचित भी नहीं मानता. लेकिन हां, यदि सरकार ऐसी किसी व्यवस्था पर विचार करती है, तब ही इस पर कोई राय दी जा सकती है.

हालांकि, अभी इस बारे में कुछ भी कहने में मैं असमर्थ हूं कि निकट भविष्य में राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के गठन के बाद इसका स्वरूप कैसा होगा. लेकिन, इतना जरूर कहना चाहूंगा कि इसमें निहायत ही ईमानदार और निष्ठावान व्यक्तियों की जरूरत है, ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता कायम रहे.

इस व्यवस्था के तहत जिनकी भी नियुक्ति हो, उस पर व्यापक विचार-विमर्श के साथ न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों की महत्ता-स्वतंत्रता का ख्याल रखा जाये, ताकि दोनों के बीच हितों का कहीं कोई टकराव न उत्पन्न होने पाये. उम्मीद है कि सरकार इस बाबत व्यापक मंथन और विचार-विमर्श करके ही इस व्यवस्था को स्थापित करेगी.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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