आचार की संहिता

संतोष उत्सुक वरिष्ठ व्यंग्यकार santoshutsuk@gmail.com आचार संहिता सख्ती से लगी हुई है, लेकिन सरकारी सड़क की तरह यहां, वहां और कहां-कहां टूट-फूट भी रही है. यह मौसम कांच का होता है, जिसे तोड़ने के लिए लोकतांत्रिक बेकरारी का नटखट ‘कन्हैया’, इसके लगने की घोषणा के साथ ही अवतरित हो जाता है. विकासजी निढाल हो जाते […]

By Prabhat Khabar Print Desk | April 12, 2019 6:09 AM
संतोष उत्सुक
वरिष्ठ व्यंग्यकार
santoshutsuk@gmail.com
आचार संहिता सख्ती से लगी हुई है, लेकिन सरकारी सड़क की तरह यहां, वहां और कहां-कहां टूट-फूट भी रही है. यह मौसम कांच का होता है, जिसे तोड़ने के लिए लोकतांत्रिक बेकरारी का नटखट ‘कन्हैया’, इसके लगने की घोषणा के साथ ही अवतरित हो जाता है. विकासजी निढाल हो जाते हैं, घोषणाओं की योजनाओं और योजनाओं की घोषणाओं का आचार डलने से रह जाता है. विपक्ष पूरे विश्वास के साथ सरकार बनाने की घोषणाएं ‘मुफ्त’ में करता है.
ईवीएम का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि अनुशासन सिखाने में कसर नहीं छोड़ी, वरना व्यक्तिगत या संस्थानिक आर्मी के मुखिया इस फिराक में रहते हैं कि कब मिर्चों के आचार का मटका फोड़ें और खाकर आईसीयू में भरती हों, ताकि राजनीतिक कीमत आसमान चढ़े. जीभ कहती है कि जो मजा अपने मनचाहे स्वादिष्ट आचार के साथ खाने का है, वह बिना आचार कहां? कितनी मेहनत, योजना और धन से विज्ञापन करवाते हैं, लेकिन उतरवाने पड़ते हैं.
वैसे विचार किया जाये कि महंगे विज्ञापन बोर्ड उतरवाने की जरूरत नहीं, बल्कि इन पर वैधानिक चेतावनी चिपका देनी चाहिए, ‘इसे पढ़ना नयी सरकार के गठन तक हानिकारक है, कृपया इस बोर्ड की तरफ न देखें’. इन पर सफेद कपड़ा लटका दें, तो शांतिप्रियता का विशाल प्रतीक बन सकता है. सरकार लौट आये, तो यही विज्ञापन प्रयोग कर देश की दौलत भी बचायी जा सकती है.
इस मौसम में अनाधिकृत निर्माण करनेवाले भी राजनीतिक चटखारे ले-लेकर नव निर्माण करने में लगे हैं, क्योंकि नगरपालिका के कर्मचारी आचार संहिता के अनुसार चुनाव करवाने में व्यस्त हो गये हैं.
उनके पास किसी को भी हमेशा की तरह ‘सख्त’ नोटिस भेजने का समय नहीं है. इस दौरान धारा एक सौ चवालिस लगा दी जाती है. इसे न भी लगायें, तो क्या लोकतांत्रिक अनुशासन तो हमारे रोम-रोम में रचा बसा हुआ है. इस अंतराल में वोटरों को मुस्कुराहटों में तली वायदों की मसालेदार स्वादिष्ट चाट खाने को मिलती है, जिससे उनका स्वास्थ्य भी दुरुस्त हो जाता है.
चुनाव तो संहिता के अनुसार ही होता है, लेकिन हर आचार डालने के अपने अपने सिद्धहस्त फाॅर्मूले होते हैं, लेकिन स्वादिष्ट वही डाल सकता है, जिसके हाथ में संतुलन, अनुभव और प्रतिबद्धता रहती है.
संहिता लगते ही पेड ‘खबरें’ ही नहीं, पेड ‘चैनल’ भी रुक जाते हैं. सोशल मीडिया पर भी फर्क पड़ जाता है. तो सवाल है कि कहीं हमारे देशप्रेमी राजनेता इसका कोई फायदा तो नहीं उठाते? यह बात हम जानते हैं कि किसी भी व्यवसाय में लाभ कमाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद का आचार प्रयोग करना ही पड़ता है.
आचार स्वाद से भरपूर रहे और बाजार पर किसी तरह कब्जा कर ले, इसके लिए सब कुछ तो करना ही पड़ता है. यदि समय पर उपयोग न हो, तो स्वादिष्ट आम भी तो सड़ जाता है न. बुद्धिजन फरमा रहे हैं आचार खाना शुरू करने के बाद झूठे आरोप न लगायें. क्या सच्चे आरोपों की खटास से गला खराब नहीं हो जायेगा?

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