चुनाव आयोग की हिचकिचाहट

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com निर्वाचन आयोग के प्रति उचित ही बड़े सम्मान से देखा जाता है. राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति समेत विभिन्न चुनाव प्रक्रियाओं को सराहनीय क्षमता और समर्पण से यह संस्था संचालित करती रही है. आयोग की निष्पक्षता और एक संस्था के रूप में इसकी स्वायत्तता संदेह के घेरे में नहीं […]

By Prabhat Khabar Print Desk | April 11, 2019 5:45 AM

पवन के वर्मा

लेखक एवं पूर्व प्रशासक

pavankvarma1953@gmail.com

निर्वाचन आयोग के प्रति उचित ही बड़े सम्मान से देखा जाता है. राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति समेत विभिन्न चुनाव प्रक्रियाओं को सराहनीय क्षमता और समर्पण से यह संस्था संचालित करती रही है. आयोग की निष्पक्षता और एक संस्था के रूप में इसकी स्वायत्तता संदेह के घेरे में नहीं रही हैं. लेकिन, आज उसकी क्षमता पर प्रश्न खड़े किये जा रहे हैं. ऐसा इसलिए नहीं कि आयोग के नेक इरादे में कमी है, बल्कि इसलिए कि यह संस्था किन्हीं कारणों से आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन होने पर सक्रिय और निर्णायक ढंग से कार्रवाई करने में हिचकती दिखायी दे रही है. इस हिचकिचाहट का क्या कारण है?

क्या चुनाव आयोग के पास रोक लगाने के पर्याप्त कारण नहीं हैं या फिर उल्लंघनों के विरुद्ध वह उन अधिकारों का प्रयोग नहीं करना चाहता है? यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है, क्योंकि देश में मतदाताओं की संख्या लगभग 90 करोड़ है और यह जरूरी है कि आयोग की क्षमता और निष्पक्षता में लोगों का विश्वास बना रहे.

संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत निर्वाचन आयोग को शक्तियां प्राप्त हैं कि वह चुनाव को ‘संचालित’ करे. यह एक शक्तिशाली और बहुप्रयोजन प्रावधान है.

इसी के अनुरूप सभी राजनीतिक पार्टियों और प्रत्याशियों के लिए आयोग आदर्श आचार संहिता लागू करता है. मसलन, इसमें साफ कहा गया है कि कोई पार्टी ऐसी गतिविधि नहीं करेगी, जिससे विभिन्न जातियों और धार्मिक या भाषायी समुदायों के बीच भेदभाव या तनाव बढ़े. यह भी निर्दिष्ट किया गया है कि वोट के लिए जातिगत या सांप्रदायिक भावनाओं का दोहन नहीं होना चाहिए.

यह भी प्रावधान है कि मुख्य चुनाव आयुक्त को कार्यकाल पूरा होने से पहले नहीं हटाया जा सकता है और न ही नियुक्ति के बाद उनकी सेवा शर्तों में नकारात्मक बदलाव किया जा सकता है. पद से हटाने के लिए वही प्रक्रिया अपनानी होगी, जो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के लिए निर्धारित है. इस तरह मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल लगभग निरापद है और उन्हें किसी सिद्ध दुराचार या अक्षमता के आधार पर संसद के दोनों सदनों के दो-तिहाई बहुमत से ही हटाया जा सकता है.

तब भी मुख्य चुनाव आयुक्त और उनके दो सहकर्मी राजनीतिक वर्ग द्वारा किये जा रहे खुले उल्लंघन के विरुद्ध कार्रवाई करने में संकोच और हिचक क्यों दिखा रहे हैं? संविधान के तहत आयोग की शक्तियां निर्बाध हैं. फिर भी, हम आयोग को संहिता के उल्लंघन पर अधिक-से-अधिक डपट कर या अप्रभावी चेतावनी देते हुए देख रहे हैं. ताजा उदाहरण योगी आदित्यनाथ द्वारा ‘मोदीजी की सेना’ कहकर सशस्त्र बलों के राजनीतिक दुरुपयोग की कोशिश के मामले में आयोग की प्रतिक्रिया है.

इस मसले का स्वतः संज्ञान लेने की जगह आयोग ने उन्हें एक नोटिस भेजा और इतना ही कहा कि आगे से सशस्त्र बलों के उल्लेख में सावधानी बरतें. अब जब प्रक्रिया ही इतनी सुस्त है और कार्रवाई नरम, तो इसमें क्या आश्चर्य कि वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने भी ठीक यही बात अपने भाषण में कह दी.

राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह एक वीडियो में कहते पाये गये कि वे भाजपा के समर्थक हैं और लोगों को प्रधानमंत्री मोदी के लिए मतदान करना चाहिए. उनके अराजनीतिक होने के संवैधानिक निर्देश का यह गंभीर उल्लंघन है. चुनाव आयोग ने इसका संज्ञान लिया और राष्ट्रपति के पास अपनी राय भेज दी. उन्होंने इसे सलाह के लिए गृह मंत्रालय के पास भेज दिया. इसके बाद मामले में कोई जानकारी सामने नहीं आयी है.

साल 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान मुख्य चुनाव आयुक्त ने यूपीए सरकार के दो मंत्रियों द्वारा जान-बूझकर और लगातार आयोग के निर्देशों के उल्लंघन की शिकायत राष्ट्रपति के पास भेजी थी. उन्होंने इसे प्रधानमंत्री कार्यालय को भेज दिया. चूंकि दोनों मंत्री तत्कालीन प्रधानमंत्री की पार्टी से थे, सो अचरज की बात नहीं है कि उन्होंने इस मामले में कुछ खास कार्रवाई नहीं की.

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को चुनाव आयोग की भूमिका में बदलाव करने की जरूरत है. यदि आयोग खुद ही आगे बढ़कर कार्रवाई नहीं करता है, तो उसकी भूमिका कमजोर होती है तथा उसके निर्देश बेअसर हो जाते हैं.

हमारे नेता सावधानी बरतने की सलाह या नाराजगी जताने की ज्यादा परवाह नहीं करते हैं. वे नियमों के अनुसार तभी चलेंगे, जब उन्हें लगेगा कि आचार संहिता के उल्लंघन पर आयोग कार्रवाई कर सकता है और उन्हें दंडित कर सकता है. ऐसे दंड एक तय समय के लिए चुनाव प्रचार को रोकने, चुनाव रद्द करने या किसी उम्मीदवार को अयोग्य करार देने के रूप में हो सकते हैं. संवैधानिक शक्तियों से लैस स्वायत्त संस्था के रूप में चुनाव आयोग कानून का डर पैदा कर सकता है.

आम नागरिकों को टीएन शेषण जैसे आयुक्तों की कमी खलती है, जो निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए राजनीतिक खेमे को डरा कर रखते थे. आखिरकार, आयोग की अच्छाई मुख्य चुनाव आयुक्त पर निर्भर करती है.

सर्वोच्च न्यायालय को आयुक्तों की नियुक्ति सत्ताधारी दल की इच्छा से न कराकर कॉलेजियम के जरिये कराने के लंबित मामले पर जल्दी फैसला करना चाहिए. जिस तरह मौजूदा चुनाव आयोग काम कर रहा है, उसे देखकर गालिब का एक शेर याद आता है-

हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन

खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक

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