बदलता आदिवासी समाज-विज्ञान

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया भारत से अंग्रेजों का जाना अन्य भारतीयों की तरह ही आदिवासियों के लिए भी अंग्रेजों का जाना था और इसके साथ ही उन्होंने भी नेहरू के नेतृत्व के साथ एक उम्मीद भी जतायी थी. नेहरू स्वयं आदिवासियों को लेकर पंचशील सूत्रों के जरिये अपनी चिंता […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 18, 2019 8:29 AM

डॉ अनुज लुगुन

सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
भारत से अंग्रेजों का जाना अन्य भारतीयों की तरह ही आदिवासियों के लिए भी अंग्रेजों का जाना था और इसके साथ ही उन्होंने भी नेहरू के नेतृत्व के साथ एक उम्मीद भी जतायी थी. नेहरू स्वयं आदिवासियों को लेकर पंचशील सूत्रों के जरिये अपनी चिंता जता चुके थे, बावजूद इसके उन्होंने देश के विकास के लिए जो रास्ता तय किया, वह गांधीवादी रास्ता नहीं था. उनके द्वारा तय रास्ते का आशय साफ था- संसाधनों का अतिरिक्त दोहन. नेहरू द्वारा देश के विकास के लिए जिस ‘विकास के मंदिर’ की उद्घोषणा हुई, उसी में एक और औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया निहित थी. यह सीधे-सीधे सांस्कृतिक औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया नहीं थी, लेकिन इसमें आदिवासी अस्तित्व-संकट के बीज छुपे थे. आदिवासी अस्तित्व संकट पर विचार करना केवल आदिवासी समाज के किसी एक पहलू पर विचार करना नहीं है. इस भ्रम ने ही आजादी से अब तक आदिवासी समाज का सबसे गलत विश्लेषण प्रस्तुत किया है.

आजादी के बाद जिन दिनों तेजी से औद्योगीकरण की प्रक्रिया आरंभ की गयी, उसी दिन से आदिवासी समाज के साथ औपनिवेशिक व्यवहार शुरू हो गया था. बावजूद इसके कि इस शुरुआती दौर में अपनी जमीनें देने के बाद भी आदिवासियों के मन में देश के विकास या राष्ट्रहित के लिए अपनी सहमति थी, जो नेहरू युग के बाद सवाल में बदल गयी. यहां दो बातें साथ चल रही होती हैं- एक ओर तो आदिवासियों से उनकी जमीन छीनी जा रही है, दूसरी ओर आदिवासियों की सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था पर बाह्य सत्ता का जबरन प्रवेश कराया जा रहा है. स्थानीय स्तर पर आदिवासियों की अपनी प्रशासनिक व्यवस्था थी, जो कहीं से भी कभी भी अलोकतांत्रिक नहीं रही है, लेकिन लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण के नाम पर आदिवासियों की उन संस्थाओं को ध्वस्त कर दिया गया. इस तरह की व्यवस्था ने आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी सुरक्षा अधिनियमों के होते हुए भी बहुत तेजी से गैर-आदिवासियों को कानूनी व्यवस्था देकर प्रवेश कराया. यह प्रवेश इसलिए चिंताजनक साबित हुआ, क्योंकि इसने फिर से आदिवासी समाज को शोषण के नये दौर में धकेल दिया. इस प्रक्रिया ने आदिवासियों के बीच अजनबियत का माहौल तैयार किया.

एक ओर तो जमीन छिन जाने से विस्थापन के बरअक्स पुनर्वास की कोई ठोस वैधानिक व्यवस्था नहीं हुई, वहीं दूसरी ओर आदिवासी अर्थव्यवस्था जो कि कृषि और वनोपज से संयुक्त थी, वह ध्वस्त हुई. यानी जमीन भी गयी, वन और वन के उत्पाद भी उनके हाथ से निकल गये. इसने आदिवासियों को सीधे आर्थिक रूप से प्रभावित किया और वे सारे दावे जो उनको विस्थापित करने के दौरान नौकरी और उनके विकास के लिए किये गये थे, सब धरे रह गये. जिन जगहों से आदिवासी विस्थापित हुए वहां चमचमाते कल-कारखाने, बड़ी-बड़ी काॅलोनियां तो बसीं, लेकिन इससे आदिवासी न केवल एक कोने में धकेले गये, बल्कि उनका बहुत तेजी से किसान से मजदूर वर्ग में रूपांतरण हुआ. जो काॅलोनियां विकसित हुईं, उनमें रहनेवाले आदिवासी नहीं थे. इसलिए वहां मौजूद दोनों जनसंख्या एक-दूसरे से अपरिचित थी. वहां अंतत: उस कॉलोनीवासियों का प्रभुत्व कायम हुआ और आदिवासी अपनी जिस संस्कृति पर गर्व करते थे, वहां वह हेय माना जाने लगा. कॉलोनी की संस्कृति गैर आदिवासी संस्कृति थी, जो अपने साथ सामंती और पितृसत्तात्मक संस्कार लेकर आयी थी, जिसने आदिवासी महिलाओं का रूपांतरण ‘वेश्याओं’ के रूप में भी किया.

कॉलोनी के इर्द-गिर्द बसे आदिवासी इस प्रभुत्व से न केवल अपनी पहचान खोते गये, बल्कि उनका वहां झुग्गी-झोपड़ियों में जो सामाजिक संरचना बनी, वह न अपने पूर्व के समाज की तरह थी और न ही उस कॉलोनी के समाज की तरह.

बाद के दिनों में उस कॉलोनी के मध्यवर्गीय ‘सहृदयों’ ने उसी सामाजिक ढांचे और स्वभाव को आधार बनाकर जब साहित्य लिखा, तो उसमें यह सहज ही निष्कर्ष निकाला जा सकता था कि आदिवासी या तो वेश्यावृत्ति कर जीवन-यापन करते हैं, या आर्थिक समस्या ही उनकी मूल समस्या है. दूसरी ओर जब आदिवासी समाज का मजदूर उस कॉलोनी में या कॉलोनी के बाजार में प्रवेश किया, तो वह यह समझ नहीं पाया कि वह अपने ‘श्रम’ को किस ‘रूप’ में परिभाषित करे, क्योंकि उसके पूर्व का सामाजिक परिवेश मौजूदा परिवेश से हर मामले में अलग था. यह केवल उनके किसान से मजदूर वर्ग में रूपांतरण के पहले चरण में ही नहीं हुआ, बल्कि यह संस्कारगत एवं अनुवांशिक वजहों से उसकी अगली पीढ़ी तक भी जारी रहा.

नव-उदारवादी दौर में जितनी तेजी से कॉलोनियों और औद्योगिक शहरों का विस्तार होना शुरू हुआ है उतनी ही तेजी के साथ आदिवासी समाज का औपनिवेशीकरण तेज हुआ है. नव-उदारवादी भारत की कथित ‘विकास’ की परिभाषा में आदिवासी समाज के प्रति भयानक संवेदनहीनता बरती जा रही है. इस कथित ‘विकास’ ने अब सीधे रूप में आदिवासियों के सवालों को और उनके स्वर को सुनना बंद कर दिया है. अब आदिवासियों के लिए एक ही बात सामने है कि यदि आप सहमत हैं, तो हमारे साथ ‘हां’ मिलाइए, अन्यथा आप ‘देशद्रोही’ समझे जायेंगे, क्योंकि आप देश के ‘विकास’ में बाधक हैं.

आदिवासी समाज की अलग सांस्कृतिक विशिष्टता की बात करते हुए बाहरी समाज उस पर रीझ तो जाता है, लेकिन वही समाज जब अपनी उसी विशिष्टता के साथ जीने के लिए अपना हक मांगता है, तो उसे असामाजिक माना जाता है. ऐसा कर वह आदिवासी समाज की विशिष्टता को ही स्वीकार नहीं करता, बल्कि संवैधानिक व्यवस्थाओं को भी नकारता है. बाहरी समाज का आदिवासी समाज के प्रति यह ब्राह्मणवादी व्यवहार ही है. दूसरा नजरिया आदिवासी समाज को आर्थिक रूप से पिछड़े समाज के रूप में चिह्नित करने का रहा है. खास तौर पर वामपंथी-प्रगतिशील विचारधाराओं का यह नजरिया भी आदिवासी समाज की वस्तुगत परिस्थितियों के आधार पर नहीं है, बल्कि बाह्य अवधारणाओं का ही आरोपण है. आज के नव-बाजारवादी दौर में आदिवासी समाज के जिस ‘विकास’ की बात कही जा रही है, वह आदिवासी समाज को भी एक उपभोक्ता के रूप में बाजार में उतारने की है. इसी ने आदिवासी समाज की अस्मिता और अस्तित्व को संकट की स्थिति में ला खड़ा किया है. इन्हीं संदर्भों में आज के आदिवासी-प्रश्न का वैश्विक संदर्भ उभरता है, जो मौजूदा ‘विकास’ और ‘सभ्यता’ को फिर से परिभाषित और विश्लेषित करने की मांग करता है.

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