सात अरब साल पुराना कुल्हड़!

आलोक पुराणिक वरिष्ठ व्यंग्यकार puranika@gmail.com जिसे भारतीय आमतौर पर खाट बोलते हैं, उसे इंटरनेट की सेल में स्पेशली इथनिकली डेकोरेटेड बाडी फ्रेंडली ट्राइबल बेड कहकर 500 डाॅलर का बेचा जा रहा था. यानी करीब पैंतीस हजार रुपये की खाट, मतलब शीशम की लकड़ी से परम सुसज्जित डबल बेड. आत्महत्या करे कोई ऐसे बेड के पैंतीस […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 10, 2018 7:18 AM
आलोक पुराणिक
वरिष्ठ व्यंग्यकार
puranika@gmail.com
जिसे भारतीय आमतौर पर खाट बोलते हैं, उसे इंटरनेट की सेल में स्पेशली इथनिकली डेकोरेटेड बाडी फ्रेंडली ट्राइबल बेड कहकर 500 डाॅलर का बेचा जा रहा था. यानी करीब पैंतीस हजार रुपये की खाट, मतलब शीशम की लकड़ी से परम सुसज्जित डबल बेड. आत्महत्या करे कोई ऐसे बेड के पैंतीस हजार रेट देखकर.
इधर एक ई-मेल आया- जिसमें बताया गया था कि सात अरब छियासठ करोड़ साल पुरानी हाइजीनिक मिट्टी से बना स्पेशल हेल्थी रूरल ग्लास, सिर्फ पांच सौ रुपये का एक. बाद में फोटू देखने पर यह आइटम कुल्हड़ निकला. कुल्हड़ अंग्रेजी में पांच सौ का बिक जाता है, हिंदी वाले पचास रुपये भी ना दें. फिर भी अंग्रेजी वाले परम इंटेलिजेंट माने जाते हैं.
मेरे एक मित्र रहते हैं गांव में. वहां उन्होंने एक भूत-प्रेत झाड़नेवाले का साइनबोर्ड देखा- अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार एसोसिएशन. मतलब एसोसिएशन होते ही अंग्रेजी लुक आ गया और भूत-प्रेत झाड़क ओझा-बाबा एक एकदम ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट टाइप हो गया. मित्र ने बताया कि ये ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट लाखों में कमाते हैं. दिल्ली-मुंबई के ह्यूमन राइट्स एनजीओ एक्टिविस्ट भी लाखों में कमाते हैं. ह्यूमन राइट्स में कमाई के मामले में गांव और शहर का भेद मिट गया.
अंग्रेजी में जाने क्या-क्या बेचा जा रहा है. हिंदीवाले अगर समझदार न हों, तो जाने क्या-क्या खरीद भी लें. अभी एक कला प्रदर्शनी में मैंने देखा- एक फटी रजाई टंगी हुई थी दीवार पर.
उस पर अंग्रेजी में विवरण लिखा था- लाइफ, सम कॉटन, सम क्लॉथ. इसकी परम घनघोर दार्शनिक व्याख्याएं वहां चल रही थीं. इन व्याख्याओं का आशय था कि जिंदगी क्या है, सिर्फ रूई के फाहे जैसी है, कब उड़ जाये ना पता. कौन सी रूई कपड़ा बन जाये, कौन सी रूई यूं ही रह जाये क्या पता. वाह क्या कलाकृति है. एक समीक्षक ने क्रांति यूं देख ली- रजाई का एक हिस्सा सुविधाजनक है, इस हिस्से में देश का अमीर रहता है.
रजाई जहां से फटी है, उसे हम देश का गरीब वर्ग मान लें. एक दिन गरीब क्रांति करके पूरी रजाई फाड़ देगा. क्रांति कर देगा- कई उपस्थितों ने तालियां बजायी. रजाई से क्रांति निकलते मैंने पहली बार देखा. मैंने सोचा कि अब से मैं इंग्लिश स्पीकिंग जेंट्री की कला प्रदर्शनियों में रोज जाया करूंगा. रोज आठ-दस क्रांतियां निकल लेंगी वहां से.
फिर मैं कह पाऊंगा कि देश क्रांतियों के दौर से गुजर रहा है. वैसे मेरे अंदर के हिंदीवाले का मन हुआ कि कह दे- सरासर फटी रजाई है यह, पर नहीं कहा. फटी रजाई उर्फ दार्शनिक कलाकृति की नीलामी हुई- सत्तासी हजार रुपये में बिकी.
मैंने उस क्षण सोचा काश मैं इंग्लिश स्पीकिंग, इंग्लिश एक्सप्लेनिंग कलाकार होता. फिर किसी ने मुझे बताया कि फटी रजाई को बतौर कलाकृति बेचने के लिए तुम्हारा शातिर होना और कस्टमर का अंग्रेजीदां और बेवकूफ एक साथ होना जरूरी होता है. इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि तुममें कस्टमर को इंग्लिश में बेवकूफ बनाने की प्रतिबद्धता हो.

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