सामाजिक-राजनीतिक समीकरण

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in वर्ष 2019 के चुनाव के मद्देनजर तैयारियां हो रही हैं. सत्तारूढ़ भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार ने अपने चुनावी वादों के मुताबिक सफलता हासिल नहीं की है. इस दौरान धर्म के नाम पर उन्मादी भीड़ ने खूब उत्पात मचाया है. विरोधी विचार […]

By Prabhat Khabar Print Desk | September 20, 2018 6:51 AM
डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in
वर्ष 2019 के चुनाव के मद्देनजर तैयारियां हो रही हैं. सत्तारूढ़ भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार ने अपने चुनावी वादों के मुताबिक सफलता हासिल नहीं की है. इस दौरान धर्म के नाम पर उन्मादी भीड़ ने खूब उत्पात मचाया है. विरोधी विचार वालों और सत्ता से असहमत होनेवाले पक्षों पर हमले भी बहुत हुए हैं.
ऐसे में सत्तारूढ़ दल के पास नैतिक रूप से अपने पुराने वायदों के साथ जनता के सामने आना कठिन है. इसके बावजूद वह अपनी चुनावी तैयारी और रणनीति में कमजोर नहीं है. वहीं दूसरी ओर भाजपा विरोध में सभी विरोधी दल एकजुट होकर महागठबंधन बना रहे हैं. इस बीच एससी/एसटी एक्ट को लेकर पक्ष और विपक्ष दोनों ने भारत बंद कराकर अपनी ताकत प्रदर्शित करने की कोशिश की है.
आरक्षण विरोध और उसके समर्थन में दो पक्षों के बीच तीखी टकराहट हुई है और विपक्ष ने तेल की कीमत बढ़ाये जाने को लेकर सरकार को घेरने की कोशिश की है. इन्हीं सबके बीच एक और महत्वपूर्ण घटना घटित हुई है, वह है जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र संघ का चुनाव और उसमें लेफ्ट यूनिटी को सभी सीटों पर मिली जीत.
जेएनयू छात्र संघ का चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि वह राजनीति के वैचारिक बहस का केंद्र है. भाजपा ने वामपंथ का गढ़ कहे जानेवाले जेएनयू में अपनी पैठ बनाने की पुरजोर कोशिश की है. उसे देशद्रोहियों के अड्डे के तौर पर दुष्प्रचारित भी किया गया. लेकिन, वाम छात्र संगठनों ने उसे इस बार के चुनाव में भी उसे पराजित कर उसके उद्देश्य को पूरा होने नहीं दिया.
इसके आलावा एक तीसरा पक्ष भी इस छात्र राजनीति में उभर कर आया है, वह है बहुजन राजनीति का पक्ष. एक ओर राजद ने अपनी कोशिश की, तो दूसरी ओर आदिवासी-दलित-पिछड़ों के नाम से गठित बहुजन छात्र संगठन ‘बिरसा फुले अांबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन’ यानी बापसा (बीएपीएसए) ने भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज की है. बापसा का कहना है कि ‘लाल भगवा एक हैं, सारे कॉमरेड फेक हैं.’
बापसा का यह पक्ष क्या भविष्य की राजनीति का संकेत है? इस छात्र राजनीति में वाम और नीला अलग-अलग चुनाव लड़ रहे थे. क्या वाम और नीला का यह बंटवारा सिर्फ कैंपस के अंदर की बात रहेगी या आनेवाले चुनाव के दिनों में भी यही विभाजन देखने को मिलेगा? यह सवाल इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि बीच-बीच में ‘लाल-नीला’ के एक होने की आवाज आती रहती है.
बापसा का स्वतंत्र चुनाव लड़ना बहुजन राजनीति के उस पक्ष का संकेत है, जिसमें वह ब्राह्मणवाद के विरोध की लड़ाई और सामाजिक न्याय के मुद्दे को ठीक से न उठाये जाने को सवर्ण मानसिकता का सूचक मानता है.
यह बहुजन को उस एकीकरण की दिशा में आगे ले जाने की कोशिश करता है, जिसके ने होने की वजह से वंचितों को राजनीतिक शक्ति नहीं मिल सकी है. बापसा एक सवाल की तरह है वाम प्रगतिशील संगठनों के लिए. भारतीय वाम का नेतृत्व भले ही सवर्णों के हाथ में हो उसका वैचारिक आधार और उसका लक्ष्य वंचित और वंचितों की मुक्ति है. लेकिन, संसदीय वाम उनको नेतृत्व देने के मामले में असफल रहा है. यह बहुजनों के वाम से अलगाव का बड़ा कारण है.
वाम और बापसा के आमने-सामने होने से जो टकराहट उभरी है वह इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि आम बर्ताव में एक दूसरे के खिलाफ यह भी आरोप लगता है कि वाम में शामिल दलित पिछड़े भटके हुए लोग हैं और स्वतंत्र राजनीतिक पहचान बनाने में जुटे दलित-पिछड़े-आदिवासी अवसरवादी हैं. छात्र राजनीति के इस चेहरे से हम मुख्यधारा की संसदीय राजनीति के बारे में कोई अनुमान लगा सकते हैं या नहीं? यह सवाल है.
यह तो तय है कि बहुजन एकता की वैचारिकी मजबूत हो रही है. उसी की ताकत का परिणाम है कि ‘लाल-नीला’ के एक होने की बात भी उठ रही है और उसे भविष्य के विकल्प के रूप में भी देखा जा रहा है.
लेकिन नयी उभरती बहुजन राजनीति की बड़ी चुनौती यह होगी कि वह खुद को कैसे लालू-मुलायम-मायावती की राजनीति से आगे ले जाती है. सामाजिक न्याय के प्रश्नों को मुखरता से उठाने के बावजूद यह आर्थिक सवाल बना रह जायेगा कि देश की अर्थव्यवस्था को पूंजीवादी गिरफ्त से कैसे मुक्त किया जाये? वंचितों के सामाजिक सवालों को मुखरता के साथ राजनीति के केंद्र में लाने के बावजूद कोई वैकल्पिक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था न देने की वजह से ही बहुजन में बिखराव हुआ और उसका भरपूर लाभ उठाकर भाजपा ने सभी विपक्षियों को एक कोने में धकेल दिया.
राजनीतिक रणनीतियों के बीच में सबसे जरूरी मुद्दा है हमारा बदलता समाज विज्ञान. उदारवाद के बाद के ढाई दशकों में सवर्ण और अवर्ण दोनों पक्षों की युवा पीढ़ी तैयार हुई है. संचार क्रांति की ‘फोर जी’ स्पीड वाले दौर में इनके पास न सामाजिक न्याय जैसे सामाजिक मुद्दों को समझने का धैर्य है, और न ही पूंजीवाद की क्रूरता को विश्लेषित करने का संयम है.
हाल के दिनों में हुई झड़पों में इसी युवा वर्ग की भागीदारी सबसे ज्यादा दिखी है. यही युवा वर्ग अवसरों से सबसे ज्यादा वंचित है. यही बेरोजगारी की मार झेल रहा है.
बाजार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार इत्यादि को औसत आय वाले आम युवाओं की खरीद से दूर कर दिया है. इसके बावजूद वह अपने ही बुनियादी मुद्दों पर एकजुट नहीं है. सत्ता की विफलताओं पर सवाल उठाने के बजाय यह एक दूसरे से ही भिड़ने को तैयार हैं. छद्म देशभक्ति और देशद्रोह जैसे गैर रचनात्मक मुद्दों में उलझा यह युवा बदलते हुए समाजशास्त्र को समझ नहीं पा रहा है. अर्द्ध-सामंती और अर्द्ध-पूंजीवादी प्रवृत्तियों से नियंत्रित यह युवा वर्ग आपने दायरे से बाहर न किसानों-आदिवासियों की जमीन लूट को लेकर संवेदनशील दिखायी देता है और न वंचितों और अल्पसंख्यकों पर होनेवाले उत्पीड़न से चिंतित होता है.
परिणामस्वरूप वह धार्मिक उन्माद और मॉब लिंचिंग की अराजक भीड़ में तब्दील हो रहा है. अपने समय में उग्र हुई इन परिस्थितियों पर स्वयं भाजपा उतनी संवेदनशील नहीं दिखी है और न ही उसने कोई सामाजिक और आर्थिक विकल्प प्रस्तुत किया है.
और शायद ही महागठबंधन बदले हुए सामाजिक विज्ञान के लिए कोई नया विकल्प तैयार कर पायेगा. तो क्या फिर चुनाव सिर्फ सीट जुटाने की कवायद भर रह जायेगा? जब तक हमारे सामाजिक न्याय के मुद्दे और आर्थिक मुद्दे क्रांतिकारी तरीके से हल नहीं हो जाते हैं, यह सवाल बना रहेगा.

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