खामियों को जाने और दूर करे कांग्रेस

चुनाव खत्म हुआ, मंथन शुरू हुआ. सभी चुनाव हारने का ठीकरा दूसरे पर फोड़ने में लगे हैं. कांग्रेस के नेता इतनी बड़ी हार के बाद भी कोई सीख लेने को तैयार नहीं हैं. सो, कोई प्रदेश नेतृत्व को दोषी बता रहा है तो कोई केंद्रीय नेतृत्व को. टिकट बंटवारे के समय सबने अपने भरोसे चुनाव […]

By Prabhat Khabar Print Desk | June 6, 2014 5:29 AM

चुनाव खत्म हुआ, मंथन शुरू हुआ. सभी चुनाव हारने का ठीकरा दूसरे पर फोड़ने में लगे हैं. कांग्रेस के नेता इतनी बड़ी हार के बाद भी कोई सीख लेने को तैयार नहीं हैं. सो, कोई प्रदेश नेतृत्व को दोषी बता रहा है तो कोई केंद्रीय नेतृत्व को. टिकट बंटवारे के समय सबने अपने भरोसे चुनाव लड़ने एवं जीतने की बात कही थी. सच तो यह है कि झारखंड के कांग्रेसी उम्मीदवार अपने भाई, पुत्र, पौत्र व स्टाफ के भरोसे चुनाव लड़ रहे थे.

जिला अध्यक्ष से लेकर महिला अध्यक्ष तक को संदेह की दृष्टि से देखा जाता रहा. पूरे चुनाव के दौरान भाई, बेटे, स्टाफ, कार्यकर्ताओं को राजनैतिक मजदूर समझते रहे और उन्हीं मजदूरों को सही दिहाड़ी भी मिली जो इन रिश्तेदारों के करीब थे, बाकी तो दिहाड़ी मिलने की राह ताकते रह गये.चतरा, कोडरमा, लोहरदगा, रांची, धनबाद, हजारीबाग से लेकर गोड्डा तक कमोबेश यही स्थिति रही. प्रदेश के नेतृत्व को मजबूत करने की बात करने वालों ने कभी दूसरी पंक्ति के नेता तैयार नहीं होने दिये. तभी तो रांची का टिकट लंबित होने के बावजूद आलाकमान को अंतत: टिकट सुबोधकांत सहाय को ही देना पड़ा.

टिकट लेने में ही सारी ऊर्जा लगा चुके नेताओं ने एक भी राष्ट्रीय स्तर के नेता को अपने क्षेत्र में बुलाने में दिलचस्पी नहीं दिखायी. एक केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने चुनाव के दौरान हर जगह जाने में सक्रियता दिखायी भी तो उम्मीदवारों ने उनमें कोई दिलचस्पी नहीं ली. जहां तक प्रदेश कांग्रेस कमिटी के कामकाज की बात है, तो यहां पार्टी के उम्मीदवारों और उपाध्यक्ष, महासचिव, सचिव के बीच समन्वय का सर्वथा अभाव है. नेताओं की तो बात छोड़िए, झंडा-बैनर बांटनेवालों को किसी ने चाय-पानी तक के लिए नहीं पूछा. कांग्रेस को शायद इन्हीं की बद्दुआ लग गयी.

पूजा सिंह, बोकारो

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