दिल्ली में बंदर राज!

पीयूष पांडे, व्यंग्यकार pandeypiyush07@gmail.com दिल्ली में इन दिनों बंदरों का राज है. आप इसका कोई गलत मतलब मत निकालिए. दिल्ली में वास्तव में इन दिनों असल बंदरों की तूती बोल रही है. कई इलाकों में उनके जलवे और आतंक का मिश्रित रूप गठबंधन के उन सहयोगियों की तरह दिख रहा है, जिनका खुश रहना और […]

By Prabhat Khabar Print Desk | July 31, 2018 1:43 AM

पीयूष पांडे, व्यंग्यकार

pandeypiyush07@gmail.com
दिल्ली में इन दिनों बंदरों का राज है. आप इसका कोई गलत मतलब मत निकालिए. दिल्ली में वास्तव में इन दिनों असल बंदरों की तूती बोल रही है. कई इलाकों में उनके जलवे और आतंक का मिश्रित रूप गठबंधन के उन सहयोगियों की तरह दिख रहा है, जिनका खुश रहना और रूठना दोनों सरकार पर भारी पड़ते हैं. खुश रहे तो ठेके मांगते हैं. कार्यकर्ताओं की लायी ट्रांसफर की डिमांड पूरी करते हैं. रूठे तो सार्वजनिक रूप से सरकार की ही आलोचना करने लगते हैं.
लेकिन बात नेताओं की नहीं, बंदरों की हो रही है. दिल्ली में बंदरों का जलवा ऐसा है कि रेहड़ी वाले उनसे पंगा नहीं लेते और बंदरों के प्रगट होते ही उन्हें फौरन कुछ खाने को दे देते हैं. बंदरों की इस हफ्तावसूली के चर्चे मुंबई तक पहुंचा, तो भाई लोग बंदरों से हफ्तावसूली की ट्रेनिंग लेने दिल्ली आयेंगे. रेहड़ी वाले या आम लोग यदि बंदरों से पंगा लेने की कोशिश करते हैं, तो बंदर रौद्र रूप दिखाकर उन्हें अस्पताल की तरफ रवाना कर देते हैं. बंदरों के प्रकोप से मुक्ति दिलाने के लिए दिल्ली नगर निगम पूरे देश से बंदर पकड़नेवालों को बुला रही है. प्रति बंदर पकड़ने का मेहनताना 2400 रुपये कर दिया है, जो देश में सबसे ज्यादा है लेकिन फिर भी ‘मंकी कैचर’ नहीं आ रहे.
सोच रहा हूं कि बचपन में पिताजी ने जिस तरह जबर्दस्ती टाइपिंग का कोर्स कराया था, अगर वैसे ही जबर्दस्ती बंदर पकड़ने का कोई कोर्स करा देते, तो आज मर्सिडीज में घूम रहा होता. हर महीने 100 बंदर पकड़ता और ऐश करता. पिताजी को लगता था कि बेटा टाइपिंग सीख लेगा, तो कचहरी के बाहर बैठकर चार-पांच हजार तो कमा ही लेगा.
मुझे यह समझ नहीं आया कि बंदरों को पकड़ने के लिए मंकी कैचर बुलाये जा रहे हैं, तो बंदरों को भगाने के लिए उनके बॉस लंगूर को क्यों नहीं बुलाया जा रहा? मैंने एक मंकी कैचर से पूछा तो वह बोला- ‘आजकल लंगूर मिलते कहां हैं? वे जंगल में मिलते हैं और जंगल अब बचा नहीं. फिर बंदर भी लंगूर की धौंसपट्टी में आते नहीं. मॉब लिंचिंग का जमाना है. लंगूर को भी डर लगता होगा कि कहीं बंदर मिलकर लिंचिंग न कर दें. लिंचिंग मामले में कहीं कोई सुनवाई भी नहीं. भीड़ हो हो करते हुए आती है, पीटती है और निकल लेती है.’
मैंने कहा- ‘ठीक है उसे लिचिंग का डर होगा. लंगूर अक्लमंद होता है. मुमकिन है न्यूज वगैरह देखता हो, तो टीवी पर पिटाई की तस्वीरें देखकर दहल जाता हो. फिर भी, लंगूर का कर्म है बंदरों को भगाना. वह बंदरों के सामने हार मान जायेगा, तो हजारों पौराणिक कहानियों का क्लाइमेक्स बदल जायेगा.’
वह बोला- वक्त का तकाजा है, बहुमत के साथ रहिये या बहुमत से मत उलझिए. लंगूर बंदरों का कहां तक भगायेगा. बंदर जनकपुरी से भागते हैं, तो तिलकनगर में खंभा गाड़ देते हैं. तिलकनगर से भागते हैं, तो मायापुरी में डेरा जमा देते हैं.’
मैं समझ गया था कि दुस्साहस बहुत बड़ा है. भीड़ साथ हो तो किसी को किसी से डर नहीं लगता. न सरकार को, न विपक्ष को, न इंसान को, न ही बंदर को. किसी को भी नहीं. पड़ोसी के मुताबिक रविवार रात आठ बजे दीपक झा की पत्नी सोनी रसोईघर में खाना बना रही थी

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