औरतों की अदृश्य बेरोजगारी

मृणाल पांडे वरिष्ठ पत्रकार mrinal.pande@gmail.com इन दिनों थाॅमसन रायटर्स फाउंडेशन की एक ताजा रपट के बड़े चर्चे हैं, जिसके हिसाब से भारत महिलाओं के लिए आज दुनिया का सबसे असुरक्षित देश बन चुका है. पत्रकारों की याददाश्त दूर तलक जाती है. पिछली दफा (2011 में) इसकी रपट ने महिला सुरक्षा की दृष्टि से भारत को […]

By Prabhat Khabar Print Desk | July 19, 2018 7:35 AM
मृणाल पांडे
वरिष्ठ पत्रकार
mrinal.pande@gmail.com
इन दिनों थाॅमसन रायटर्स फाउंडेशन की एक ताजा रपट के बड़े चर्चे हैं, जिसके हिसाब से भारत महिलाओं के लिए आज दुनिया का सबसे असुरक्षित देश बन चुका है. पत्रकारों की याददाश्त दूर तलक जाती है. पिछली दफा (2011 में) इसकी रपट ने महिला सुरक्षा की दृष्टि से भारत को चौथी पायदान पर रखा था. तब अफगानिस्तान, कांगो, पाकिस्तान तथा सोमालिया शीर्ष पर थे. उस रपट पर काफी हो-हल्ला मचा था.
उस समय भाजपा ने महिला असुरक्षा की बाबत रपट की स्थापनाओं को ध्रुव सत्य मानते हुए मनमोहन सिंह सरकार को शर्मसार किया था. आज जब भाजपा जवाबदेह है, तो कहा जा रहा है कि यह रपट तो पश्चिम के पांचेक सौ जाने-माने विशेषज्ञों की राय पर आधारित है, हमारे ताजा डाटा पर नहीं. पर जहां तक सरकारी डाटा का सवाल है, खुद प्रधानमंत्री ने कहा है कि कुछ वजहों से सरकार के पास ताजा रोजगार संबंधित सरकारी डाटा उपलब्ध नहीं है, लिहाजा वे जनता को आश्वस्त करना चाहते हैं कि डरने की कोई बात नहीं, बेरोजगारी कम हो रही है और अर्थव्यवस्था फलफूल रही है.
तर्क जो भी हों, जिस तरह युवा बेरोजगारी से परेशान हैं और घरेलू हिंसा, रेप और यौन बाजार में बच्चियों-औरतों की जबरिया खरीद-फरोख्त सरीखे गंभीर अपराध शहर से गांवों तक बढ़ रहे हैं, उससे साफ है कि हमें हर नकारात्मक रपट को किसी सरकार विरोधी अंतरराष्ट्रीय साजिश की तरह देखने की बजाय इन समस्याओं पर गंभीरता से विचार करना होगा.
क्योंकि 2018 की शुरुआत में जम्मू-कश्मीर में आठ साल की बच्ची के साथ मंदिर के भीतर गैंग रेप हुआ और जब राज्य सरकार के कुछ बड़े लोगों ने बलात्कारियों के पक्ष में रैली निकाली, तो केंद्र गांधारी बना रहा. भीड़ द्वारा कानून हाथ में लेकर शक की बिना पर हत्याएं हर कहीं हो रही हैं, पर शीर्ष की खामोशी तो जारी है.
यूपी में शादी के बाद धर्म परिवर्तन कर चुकी, किंतु जायज तौर से शादीशुदा महिला को पासपोर्ट देने में नाहक सौ-सौ अड़ंगे लगाने और फिर मंत्री द्वारा मानवीयता प्रदर्शन कर अड़ंगेबाज कर्मी के खिलाफ कार्रवाई करने का एक वाकया भी हुआ. जब विदेश मंत्री ने उसे न्याय दिलाया, तो सोशल मीडिया में ट्रोलों द्वारा देश की विदेश मंत्री के विरुद्ध भयावह गाली-गलौज की गयी. काफी देर से गृह मंत्री व यातायात मंत्री ने इसकी निंदा की, लेकिन उज्ज्वला योजना और ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा देनेवाले नेतृत्व ने मौन नहीं तोड़ा. शीर्ष की खामोशी को ‘मौनं सम्मति लक्षणम्’ मानते हुए उत्तर प्रदेश के विधायक महोदय कह गये कि बलात्कार तो कुदरती प्रदूषण है, जिसे रामजी भी नहीं रोक सकेंगे.
यह तो हुई शारीरिक असुरक्षा की बात. महिला रोजगार की बाबत ठोस सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2014 से 2016 तक कुल 4.3 लाख नये रोजगारों का ही सृजन हुआ, जो घोषित संख्या का आधा भी नहीं.
खुद सरकार के 2016 के श्रम आयोग (लेबर ब्यूरो) के आंकड़ों के अनुसार, मनरेगा योजना के तहत पिछले सालों की तुलना में 15 प्रतिशत अधिक बेरोजगारों ने रोजगार के लिए आवेदन किया, जो सुस्त पड़ते शहरी उद्योग जगत और सुखाड़ के मारे ग्रामीण इलाकों में बढ़ती बेरोजगारी का प्रमाण है. इनमें से भी 1.6 करोड़ आवेदकों को मनरेगा के तहत अनियतकालीन (साल में 120 दिन) काम तक नहीं मिला.
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की चर्चित शोध संस्था ई-पॉड (एविडेंस फॉर पॉलिसी डिजाइन) ने भारतीय कामगार भारतीय महिलाओं की स्थिति पर सिकुड़ती शक्ति शोध रपट जारी की है, जिसके मद्देनजर इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में महिलाओं पर (तत्कालीन) मुख्य आर्थिक सलाहकार ने ध्यान दिलाया और यह दर्ज कराया कि पिछले दशक में संगठित तथा असंगठित, दोनों ही तरह के भारतीय कामगारों में महिलाओं की भागीदारी में लगातार गिरावट आयी है. और 2.5 करोड़ कमासुत महिला कामगार कार्यक्षेत्र से बेदखल हुई हैं. ‘बेटी पढ़ाओ’ सरीखी योजनाओं से फायदा लेकर बच्चियां स्कूल जरूर जाने लगी हैं, पर स्कूल पास कर लेने से क्या?
संगठित क्षेत्र को उच्च तकनीकी डिग्री और अंग्रेजी जाननेवाले दक्ष हाथ चाहिए. नतीजतन विकासशील देशों के गुट ‘ब्रिक्स’ में हम महिलाओं को रोजगार देने के क्षेत्र में सबसे निचली पायदान पर और जी-20 देशों की तालिका में नीचे से दूसरी पायदान पर आ गये हैं.
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का सीधा आकलन है, कि अगर आज भारत में काम करने की इच्छुक तमाम महिलाओं को रोजगार मिल जाये, तो भारत की कुल राष्ट्रीय आय में आराम से 27 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी संभव है.
दरअसल, अधिकतर कामकाजी महिलाएं कम उम्र में मां नहीं बनतीं, उनके बच्चों के बीच का अंतराल भी सही होता है. जो विवाहिता लड़कियां काम पर जाती हैं, उनके परिवार अन्य बहनों की शादी भी असमय नहीं करते. कामकाजी महिलाएं अपनी बेरोजगार बहनों की तुलना में स्वतंत्र फैसले लेने में कम दब्बू और बेहतर रोजगार की खोज में बाहर जाने के लिए कहीं अधिक उत्साही होती हैं.
भारत सरकार की राष्ट्रीय सैंपल सर्वे रपट के अनुसार, आज 50 प्रतिशत महिलाओं में लगभग दो-तिहाई गृहिणियां काम पकड़ने की इच्छुक हैं. अगर उनको अपने घर के करीब रोजगार मिले, तब तो इस तादाद में अतिरिक्त 21 प्रतिशत की बढ़ती हो सकती है. घर के पास रोजगार उपलब्ध होने से ही ‘मनरेगा’ में उनकी भागीदारी पुरुषों (48 प्रतिशत) से अधिक (52 प्रतिशत) है.
तरक्की हुई जरूर है, पर और होनी बाकी है. साल 1980 की सरकारी ‘ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड’ योजना ने सरकारी स्कूलों में शिक्षिकाओं के लिए 50 प्रतिशत कोटा तय किया था.
इससे तीन दशकों में शिक्षण का क्षेत्र शहर से गांव तक महिलाओं के लिए कृषि के बाद रोजगार पाने का सबसे बड़ा क्षेत्र तो बना ही, गांव-गांव में लड़कियों को भरपूर शिक्षा दिलाने के लिए भी यह कोटा एक बड़ी वजह बना है. सेवा क्षेत्र में काम करतीं केरल और पूर्वी राज्यों की लाखों महिलाएं आव्रजन से कमासुत बनने के उदाहरण बन गयी हैं.
हमारे युवा रोजगार अभ्यर्थियों में 68 प्रतशित युवक और 62 प्रतिशत युवतियां इस पक्ष में हैं कि अगर अच्छा रोजगार पाने और चिर दारिद्र्य से उबरने के लिए घर से दूर जाना पड़े, तो अवश्य जाना चाहिए.
राज तथा समाज दोनों के समवेत प्रयास ही महिलाओं की बहुमुखी तरक्की का ग्राफ बनाते हैं. सरकार महिलाओं को सही तरह से सही किस्म के रोजगार, प्रशिक्षण तथा संरक्षण दे, तो समाज भी महिलाओं पर लगायी गयी अपनी कई सामाजिक वर्जनाएं खुद धीरे-धीरे शिथिल कर देता है.

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