ठोस कदमों से आयेगी स्वच्छता

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि हम सनकियों के राष्ट्र- एक ऐसा राष्ट्र और ऐसे नागरिक- तो नहीं, जो एक साथ एवं लगातार दो स्तरों पर जीते हुए दोनों के फर्क से भी अनजान हैं? मैं यह सवाल स्वच्छ भारत के उस राष्ट्रव्यापी अभियान के संदर्भ में […]

By Prabhat Khabar Print Desk | July 17, 2018 7:12 AM
पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि हम सनकियों के राष्ट्र- एक ऐसा राष्ट्र और ऐसे नागरिक- तो नहीं, जो एक साथ एवं लगातार दो स्तरों पर जीते हुए दोनों के फर्क से भी अनजान हैं? मैं यह सवाल स्वच्छ भारत के उस राष्ट्रव्यापी अभियान के संदर्भ में उठा रहा हूं, जिसे वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक बड़े कार्यक्रम के रूप में प्रारंभ किया गया था.
नीयत के स्तर पर इस विचार में कोई दोष नहीं निकाला जा सकता. एक राष्ट्र के रूप में हम ऐसे लोग हैं, जो अपने आस-पास बने रहते अस्वच्छता के सहअस्तित्व से अप्रभावित रहते हैं.
एक धर्मनिष्ठ हिंदू गंगा घाटों पर व्याप्त गंदगी एवं कचरे के अंबार और स्वयं इस नदी के प्रदूषित होने से पूरी तरह बेपरवाह रहते हुए उसके पवित्र जल में डुबकियां लगा सकता है. वह केवल धार्मिक विधानों एवं उसके प्रतिफलों से सरोकार रखता है. इस व्यक्तिगत प्राथमिकता से परे किसी अन्य चीज पर उसका ध्यान कभी नहीं जाता. संभवतः यही वजह है कि हमारे सबसे पवित्र मंदिरों के ही चतुर्दिक प्रायः गंदगियों के सबसे बड़े अंबार भी देखे जा सकते हैं.
महात्मा गांधी ने जब काशी विश्वनाथ मंदिर तक पहुंचने की तंग और गंदी गली को गंदगी तथा मक्खियों से पटी पड़ी तथा स्वयं मंदिर को सड़ते और बदबू देते फूलों से युक्त पाया, तो उन्हें ‘गहरी पीड़ा’ पहुंची थी. पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भी स्वच्छता का यही अभाव रहता है, जहां चारों ओर बिखरे पड़े कचरे और प्रसाद पर भिनकती मक्खियां देखी जा सकती हैं. वहां के देव विग्रहों को पहनायी गयी सुंदर मालाओं पर चलते विशालकाय तेलचट्टे मैंने अपनी आंखों से देखे हैं.
इनमें से कौन-सा परिदृश्य आज बदल सका है? स्वच्छ भारत के नारे के विज्ञापनों पर व्यय की गयी विशाल धनराशियों ने निस्संदेह, एक स्वच्छतर भारत के निर्माण की जरूरत को लेकर कुछ जागरूकता जरूर पैदा की, पर क्या उससे उसके उद्देश्य की सिद्धि हो सकी?
पिछले ही सप्ताह सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ तक को निराशा में यह पूछना पड़ा कि दिल्ली में अनिस्तारित कचरे के अंबार तथा अवशिष्ट प्रबंधन की एक नीति के अभाव का उत्तरदायी कौन है. दिल्ली प्रतिदिन 10,000 टन कचरा पैदा करती है, जिसका केवल अल्पांश ही उपचारित हो पाता है, जबकि शेष को विभिन्न कूड़ास्थलों पर ढेर लगा दिया जाता है.
प्राप्त रिपोर्टों के अनुसार, गाजीपुर के ऐसे ही एक कूड़ास्थल पर लगी ढेर की ऊंचाई 50 मीटर से भी ऊपर पहुंच चुकी है और वह जल्दी ही कुतुबमीनार को भी पीछे छोड़ चुकी होगी. यहीं के भलस्वा और ओखला के कूड़ास्थलों की स्थिति भी यही है.
शीर्ष अदालत ने यह भी पूछा कि वर्ष 2016 में केंद्र द्वारा निर्मित ठोस अवशिष्ट प्रबंधन नियमावली का क्रियान्वयन क्यों नहीं हो सका? गाजीपुर में जमा ढेर के स्खलन से दो व्यक्तियों की मृत्यु के बाद पिछले वर्ष के सितंबर में इस न्यायालय ने सरकार से इस समस्या के समाधान की दिशा में ‘मजबूत इच्छा तथा प्रतिबद्धता प्रदर्शन’ करने को कहा था. जब आठ माह बाद भी सरकार इस स्थिति से निबटने की कोई रणनीति नहीं बना सकी, तो कोर्ट को दोषी अधिकारियों के उत्तरदायित्व तय करने के आदेश देने पड़े.
यदि देश की राजधानी की दशा ऐसी है, तो यहां के अन्य शहरों के परिदृश्य की तो केवल कल्पना ही की जा सकती है. इस वर्ष माॅनसून के आगमन के पश्चात देश की वित्तीय राजधानी मुंबई में नगर निकाय की पूरी व्यवस्था चरमरा गयी, जल निष्कासन प्रणाली विफल रही और इस महानगर की सभी मुख्य सड़कें गंदगी और कचरे की नदियों में तब्दील हो गयीं.
हमारे शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर हमेशा ही खतरनाक स्तर को स्पर्श करता रहता है. यमुना अविश्वसनीय रूप से विषैली हो चुकी है, गंगा स्वच्छता से बहुत दूर है और उच्च प्रौद्योगिकी की राजधानी बेंगलुरु की नैसर्गिक झीलें और जल निकाय रासायनिक प्रदूषकों के झाग से भरे हैं.
यह सही है कि शौचालयों के निर्माण में प्रगति हुई है. जनवरी 2018 में सरकार ने यह दावा किया कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में छह करोड़ शौचालयों का निर्माण हो चुका है तथा तीन लाख गांव एवं 300 जिले खुले में शौच से मुक्त घोषित किये जा चुके हैं.
यह एक उत्साहवर्धक खबर है. पर इस उत्कृष्ट उपलब्धि का अवमूल्यन किये बगैर मैं ऐसा समझता हूं कि एक स्वतंत्र एजेंसी द्वारा यह आकलन भी किये जाने की जरूरत है कि इनमें से कितने शौचालय वस्तुतः काम कर रहे हैं. इस संदेह की एक वजह है.
इसी वर्ष अप्रैल में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की 2016-17 की रिपोर्ट ने यह बताया कि इस योजना के तहत दिल्ली में एक भी शौचालय निर्मित नहीं हुआ और इस हेतु आवंटित 40 करोड़ रुपये अप्रयुक्त पड़े रहे.
इन तथ्यों को देखते हुए मुझे यह मनोरंजक के साथ ही चिंताजनक भी लगता है कि नीति आयोग स्वच्छ भारत के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए केवल एक ‘कार्य योजना’ ही बना पाया है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस रिपोर्ट के मद्देनजर कि विश्व के 15 सबसे प्रदूषित शहरों में 14 भारत में ही हैं, नीति आयोग का यह कदम अत्यंत देर से उठाया भी लगता है.
इस कार्य योजना में वायु प्रदूषण रोकने के लिए विद्युत गाड़ियों का उपयोग बढ़ाने, फसल अवशिष्टों को जलाने से रोकने, प्रदूषणकारक विद्युत संयंत्र बंद करने, अवशिष्ट प्रसंस्करण को प्रोत्साहन प्रदान करने, कूड़ास्थलों पर कर लगाने तथा शहरों से धूल हटाने के यांत्रिक उपायों को अनिवार्य बनाने जैसे संस्थागत कदमों की चर्चा है.
पर असली सवाल तो यह है कि क्या इस कार्य योजना की आवश्यकता प्रधानमंत्री द्वारा स्वच्छ भारत के आह्वान के तुरंत बाद ही नहीं थी?
यदि पिछले चार वर्षों में शौचालयों के निर्माण के अलावा ऐसे संस्थागत कदम नहीं उठाकर अब कहीं जाकर उन पर काम किया जा रहा है, तो क्या यह स्वच्छ भारत के क्रियान्वयन का एक विचित्र-सा तरीका नहीं है?
तथ्य तो यह है कि भारत को भौतिक रूप से स्वच्छ करने के लिए संस्थागत प्रकृति के दूरगामी कदमों की योजना बनाने, उनके लिए निधियों की व्यवस्था करने, उनकी मॉनिटरिंग करने और उन्हें क्रियान्वित करने की जरूरत थी. मात्र एक नारा, फिर चाहे वह कितने ही नेक इरादे से परिपूर्ण क्यों न हो, कभी भी एक विकल्प नहीं बन सकता.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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