साहित्य से हो समाज का संवाद

II मनींद्र नाथ ठाकुर II एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com हमारा समाज एक खास तरह के संकट से गुजर रहा है. यदि आप फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया के बहसों पर गौर करेंगे, तो लगेगा कि हम एक विचित्र समाज में रह रहे हैं. लोग बीच-बहस में उग्र हो जाते हैं, गाली-गलौज तक शुरू हो जाता […]

By Prabhat Khabar Print Desk | June 14, 2018 7:28 AM
II मनींद्र नाथ ठाकुर II
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
हमारा समाज एक खास तरह के संकट से गुजर रहा है. यदि आप फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया के बहसों पर गौर करेंगे, तो लगेगा कि हम एक विचित्र समाज में रह रहे हैं. लोग बीच-बहस में उग्र हो जाते हैं, गाली-गलौज तक शुरू हो जाता है.
आप ऐसा नहीं कह सकते हैं कि ऐसा करनेवाले लोग अनपढ़ हैं. बल्कि, अक्सर देखने में यही आ रहा है कि पढ़े-लिखे लोगों के बीच ऐसा ज्यादा होता है. एक बार तो जयपुर के वरिष्ठ पुलिस ने मेरे एक लेख पर, जिसमें केवल इतना लिखा था कि होली समन्वय का पर्व है, गालियां देनी शुरू कर दी. आप किसी भी संवेदनशील मुद्दे पर आनेवाली असंवेदनशील प्रतिक्रियाओं से परेशान हो सकते हैं.
ऐसा क्यों हो रहा है? एक रोचक व्याख्या तो यह है कि पहली बार हमारे समाज में सार्वजनिक माेर्चे पर बोलने की संभावना बढ़ी है. जिसे मर्जी फेसबुक पर लाइव होकर अपनी बात दुनिया तक पहुंचा सकता है. ऐसे में हर तरह की भावनाओं का बेतरतीबी से बाहर आना लाजिमी है.
लेकिन इसका ज्यादा महत्वपूर्ण कारण लगता है समाज का साहित्य से सरोकार खत्म हो जाना. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जो तहजीब लोगों में आयी थी, उसके पीछे साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका थी. साहित्य के माध्यम से समाज में बड़ी बहसें होती थीं. उस समय की साधारण पत्रिकाओं को भी अगर आज ध्यान से पढ़ें, तो उनमें आपको दार्शनिक बहसों का स्वाद मिल जायेगा. कहते हैं कि एक बार मुल्कराज आनंद ने गांधीजी से पूछा कि उन्हें हिंदी तो ठीक से नहीं आती है, फिर क्या करना चाहिए.
गांधीजी का जवाब था- ‘भाषा की चिंता मत करो, जितना ज्यादा हो सके साहित्य की रचना करो, ताकि हमारी बातें लोगों के हृदय तक पहुंच सके.’ साहित्यकारों ने यह भूमका खूब निभायी और लोगों ने जीभर कर उन्हें पढ़ा भी. कई साहित्यिक रचनाएं प्रतिबंधित भी हुईं. इसके विपरीत आजकल हमारे समाज में साहित्य और आम लोगों के बीच एक दूरी सी बन गई है.
ऐसा क्यों हो गया है? क्या साहित्य में धार खत्म हो गयी है या फिर पाठकों की रुचि ही बदल गयी है? साहित्य, खासकर हिंदी साहित्य, की लोकप्रियता क्यों घट गयी है? कुछ लोग कहते हैं कि मनोरंजन के कई और साधन हो गये हैं. लेकिन, साहित्य केवल मनोरंजन का साधन मात्र तो नहीं है.
उससे ज्यादा महत्वपूर्ण कारण मुझे लगता है साहित्यकारों का समाज से कट जाना. शायद साहित्यकार उनकी भाषा में उनकी बहस में हस्तक्षेप करने से चूक रहे हैं, जैसा स्वतंत्रता संग्राम के साहित्यकार कर पा रहे थे. आप प्रसाद के ‘चंद्रगुप्त’ नाटक को पढ़ें, तो आपको भारतीय बौद्धिक परंपरा के स्वराज की लड़ाई दिख जायेगी, ‘हिमाद्रि तुंग शृंग से /प्रबुद्ध शुद्ध भारती / स्वयंप्रभा समुज्ज्वला/स्वतंत्रता पुकारती’ और ‘कंकाल’ उपन्यास में हिंदू धर्म की आलोचना मिल जायेगी.
ये मुद्दे उस समय बहस में थे. आप अगर कहानी सम्राट प्रेमचंद को पढ़ें, तो आधुनिकता से भारतीय समाज का संघर्ष नजर आयेगा. क्या आज का साहित्य आज की तमाम जरूरी बहसों को समेट नहीं पा रहा है? यह एक बड़ा सवाल है.
अगर दुनिया के दूसरे हिस्से को देखें, तो बात समझ में आयेगी कि हम कहां भूल कर रहे हैं. फ्रांस का एक साहित्यकार है माइकल ओलेबेक, जिसकी पुस्तकें ‘एटोमाइज्ड’ और ‘सबमिशन’ बेहद चर्चित रही हैं. पहली पुस्तक में उसने फ्रांस के समाज का रेखाचित्र खींचकर रख दिया है, जिसमें मनुष्य का अस्तित्व मूलतः उसकी काम वासना से देखा जाने लगा है. हर तीन-चार पन्ने पर आप एक काम की घटना पढ़ सकते हैं. हर पात्र इसी चिंता में है कि कहीं उसकी काम क्षमता कम तो नहीं हो रही है.
कई पात्र ऐसे भी हैं, जिनकी रुचि काम में नहीं के बराबर है, लेकिन संभोग में इसलिए शामिल होते हैं कि उन्हें उनके होने का एहसास हो सके. इस उपन्यास का दूसरा पक्ष है जीनोम रिसर्च का मानव समाज पर प्रभाव. लेखक के अनुसार, समाज इतनी तेजी से बदल रहा है कि संभव है कि मानव से आगे के किसी जीव की उत्पत्ति हो जाये, जो देखने में तो हमारे जैसा ही हो, लेकिन सोच और क्षमता में हमसे हजार गुना अलग हो और हम उनके लिए पिछली सदी के जीव के रूप में रह जायें. आप इस उपन्यास को पढ़कर फ्रांस के समाज में चल रही बहस को समझ सकते हैं और शायद इसलिए लेखक महत्वपूर्ण होता है. यही बातें एक जमाने में फ्रांस के लेखक एमिल जोला पर भी लागू होती थी.
क्या ऐसे उदाहरण हमारे समाज में मिल सकते हैं? यदि नहीं तो यह चिंतनीय है. यदि हम चाहते हैं कि हमारे समाज का सोशल मीडिया, जो सचमुच में समाज का दर्पण होता जा रहा है, हमें विक्षिप्त और बदमिजाज न दिखा सके, तो साहित्य और साहित्यकारों से समाज का संवाद फिर से चालू करना होगा. समाज के उन पहलुओं पर लेखकों को धारदार बहस चलानी होगी, जो आम लोगों का सवाल हो. साहित्य को मध्यमवर्गीय चरित्र से परे जाना होगा.
लेकिन, इसमें समाजशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों की भूमिका भी कुछ कम नहीं है. इलाहाबाद के सिविल लाइन, जहां भारत के तमाम बड़े साहित्यकार एक जमाने में रहा करते थे और तीनमूर्ति भवन, जहां भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू रहते थे, के बीच सीधा संवाद एक समय में संभव था. क्या आज ऐसा संभव है?

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