आपाधापी में जीवन की सहजता

मिथिलेश कु. राय युवा रचनाकार सरकारी बसों की बात अलग होती है. लेकिन सभी सड़कों पर सरकारी बसें कहां दौड़ती हैं. हुजूम का हुजूम प्राइवेट बसें हैं, जिनके सहारे एक बड़ी आबादी को सफर करना पड़ता है. इन बसों के भी कुछ नियम होते होंगे. लेकिन इनके ऊपर नियम बदलते रहने का जबरदस्त दबाव रहता […]

By Prabhat Khabar Print Desk | June 14, 2018 7:26 AM

मिथिलेश कु. राय

युवा रचनाकार

सरकारी बसों की बात अलग होती है. लेकिन सभी सड़कों पर सरकारी बसें कहां दौड़ती हैं. हुजूम का हुजूम प्राइवेट बसें हैं, जिनके सहारे एक बड़ी आबादी को सफर करना पड़ता है. इन बसों के भी कुछ नियम होते होंगे. लेकिन इनके ऊपर नियम बदलते रहने का जबरदस्त दबाव रहता है. मसलन, स्टॉपेज पर लोग नहीं उतरेंगे. स्टॉपेज से थोड़े से आगे घर है, गाड़ी को वहां भी दो मिनट रोकना पड़ेगा. अरे, रोकेंगे कैसे नहीं. रोकना ही पड़ेगा!

इन बसों के कंडक्टर को बड़ी फजीहत झेलनी पड़ती है. एक हीरो की तरह लगातार संघर्ष करते हुए ही इनका समय गुजरता है. डीजल के दाम बढ़ गये तो भाड़ा भी बढ़ गया है. अब लीजिये, एक-एक सवारी को हिसाब दीजिये कि डीजल कितने रुपये महंगा हो गया है, जिसके कारण भाड़ा एक रुपया बढ़ गया है. इस पर सबकी सुनिये भी. जवाब दीजिये. हंस दीजिये. भौंहें टेढ़ी कर लीजिये. चुप हो जाइये.

चलती हुई गाड़ी से उतर जाना और चलती हुई गाड़ी में लपककर चढ़ जाना, इस कला को साधने में पता नहीं कंडक्टर को कितने बरस लग जाते होंगे.

मेरे लिए इस तरह से चढ़ना-उतरना और भरी भीड़ में रत्तीभर जगह बनाकर हरेक के पास जाने का हुनर विकसित कर पाना तो दसेक वर्ष में भी संभव नहीं हो पायेगा. कितना याद रख पाऊंगा? उन्हें ही फिर से टोक दूंगा जिन्हें नहीं टोकना चाहिए. ये कैसे सिर्फ उसी के पास जाकर खड़े हो जाते हैं, जो पिछले स्टैंड पर चढ़े हैं. चेहरे याद रख पाने की इतनी तीव्र शक्ति का विकास इनका कैसे हुआ होगा?

अभी वहां भाड़ा मांगने पर गाली सुना. शायद वह कोई पहुंचा हुआ आदमी था. कहने लगा कि तू मुझे पहचानता नहीं है. इस पर कंडक्टर ने सिर्फ इतना कहा कि गाड़ी तेल पीकर चलती है. बस. चांटा खाते-खाते बचा.

लेकिन सारी ग्लानि कैसे मिट गयी पल भर में? इतनी जल्दी सब सामान्य कैसे हो गया. छोटे बच्चे सा सबकुछ भूल कैसे गया. अब साइड मांगने में उसका दिमाग उलझ गया है. एक ने दस रुपये के लिए पांच सौ का नोट थमा दिया है. साफ कह रहा है कि छूट्टे हैं ही नहीं. अब ऐसे ही छूट्टे करने लगे तो इतने छूट्टे आयेंगे कहां से. छोड़ भी नहीं सकता. सो उसी के समाधान के लिए पान खाने की इच्छा हो गयी है.

आगे जाम का माहौल बन रहा है. दिमाग जाम में फंसी गाड़ी निकालने के बारे में सोच रहा है. दिमाग सोच रहा है कि जितना देर होगा, मालिक उतने सवाल करेंगे. किसी स्टैंड पर मिनटभर भी खड़ा नहीं होने देगा. कहेगा तुम्हारे बाद की गाड़ी का समय हो गया है. निकालो-निकालो.

हॉर्न से सबका दिमाग फटा जा रहा है. अरे, पुलिस का सिपाही अपनी लाठी से उसे क्यों कोंच रहा है! वह हुजूर-हुजूर किये जा रहा है. आगे की गाड़ी जब तक नहीं निकलेगी, हमारी गाड़ी कैसे निकलेगी हुजूर! सिपाही आगे बढ़ गया, तो वह भी आकर स्टाफ सीट पर बैठ गया और हथेली पर तंबाकू मलने लगा. अब जाम से निकलने में समय तो लग ही जायेगा.

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