फसल, किसान और विलेज टूरिज्म

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार कुछ दिनों पहले टीवी चैनलों पर दिखाया जा रहा था कि सही दाम न मिल पाने के कारण किसान आलू, प्याज और टमाटर को सड़कों पर फेंक रहे थे. यह देख सहज ही विश्वास नहीं होता था. क्योंकि अपने आसपास इन सब्जियों के दामों में कोई कमी नहीं आयी थी. उस […]

By Prabhat Khabar Print Desk | April 18, 2018 5:35 AM

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

कुछ दिनों पहले टीवी चैनलों पर दिखाया जा रहा था कि सही दाम न मिल पाने के कारण किसान आलू, प्याज और टमाटर को सड़कों पर फेंक रहे थे. यह देख सहज ही विश्वास नहीं होता था. क्योंकि अपने आसपास इन सब्जियों के दामों में कोई कमी नहीं आयी थी.

उस दौरान जब महंगी सब्जी की मार से हम सब परेशान थे, तब बिचौलिये मुनाफा कमा रहे थे. लेकिन बिचौलिये से अलग एक ऐसा भी वर्ग है, जो मुनाफा कमा लेता है. यह वर्ग वह है, जो बदलते मिजाज को पहचानता है.

एक लड़के ने बताया कि जब किसान प्याज को सड़कों पर फेंक रहे थे, तब उसने एक कमरा किराये पर लिया और बहुत सस्ते दामों पर खरीदकर उसमें प्याज का भंडारण कर लिया. इसके बाद दाम चढ़ने पर उसने एक लाख का मुनाफा कमा लिया.

उस लड़के की बात सुनकर जो बात सबसे पहले दिमाग में कौंधी, वह यही थी कि यदि गांव-गांव किसान के पास भंडारण की सुविधा हो, तो उन्हें आलू, टमाटर, प्याज न तो सड़कों पर फेंकने पड़ते, और न ही घाटे के कारण उन्हें आत्महत्या करनी पड़ती.

इसके अलावा, उपभोक्ता पर भी महंगाई की इतनी मार भी नहीं पड़ती. क्योंकि सही भंडारण और चीजों के सही संरक्षण की व्यवस्था न होने के कारण जब वे नष्ट हो जाती हैं, तब कमी से चीजें महंगी हो जाती हैं. और इन महंगी कीमतों से किसानों को कोई फायदा नहीं होता.

इसके अलावा, ऐसी व्यवस्था भी की जा सकती है कि जहां टमाटर होते हों, वहां उनसे जुड़े उद्योग लगाये जा सकें, जिससे कि इनसे जुड़ी खान-पान की तमाम चीजें वहीं बन सकें, जहां इनका उत्पादन होता है. इससे ये खराब नहीं होंगी, साथ ही लाने ले-जाने का खर्च भी बचेगा. ये कम दामों पर उपलब्ध भी करायी जा सकेंगी.

इससे किसान और उपभोक्ता दोनों का फायदा हो सकता है. मगर अक्सर सरकारें ऐसे कामों में फंसी रहती हैं, जिनसे उनके वोट पक्के होते रहें. जनता के फायदे पर वे तब तक बात नहीं करतीं, जब तक कि वोट बैंक कम होने का खतरा न हो. यही कारण है कि सरकारें बदलती जाती हैं, महंगाई बढ़ती जाती है और किसानों की तकलीफें कभी कम नहीं होतीं.

वे कर्ज, खराब मौसम और मंडियों में ठीक दाम न मिल पाने और बिचौलियों के भाव-ताव और शोषण के शिकार होते रहते हैं. उनकी खराब आर्थिक हालत अक्सर नीति का विषय नहीं बनती. उनके रूखे चेहरे मीडिया के चमकदार बॉलीवुडिया संस्करणों से अक्सर गायब रहते हैं. जिन फलों, सब्जियों, तेल के उत्पादों को सेलिब्रिटीज अक्सर विज्ञापनों के जरिये बेचते दिखते हैं, उन्हें पैदा करनेवाले किसी स्क्रीन का हिस्सा नहीं बनते.

किसानों की परेशानियां, उनका रहन-सहन, उनकी चौपाल, गांव की साफ प्रदूषण मुक्त हवा, हरियाली, पेड़, पौधे, फूल आदि विलेज टूरिज्म के हवाले करके ही सब खुश हो लेते हैं. यह भी कितनी नकली खुशी है. गांव की गरीबी देखकर हम खुश और गांव में रहनेवाले दुखी!

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