वन कोष का दुरुपयोग

जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के बढ़ते खतरे को देखते हुए पर्यावरण संरक्षण एक अहम मुद्दा है. लेकिन, बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हमारी सरकारों और संबद्ध विभागों में लापरवाही का आलम है. इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने फिर फटकार लगायी है. मंगलवार को एक सुनवाई के दौरान नाराज खंडपीठ ने कहा कि विधायिका […]

By Prabhat Khabar Print Desk | April 13, 2018 7:59 AM

जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के बढ़ते खतरे को देखते हुए पर्यावरण संरक्षण एक अहम मुद्दा है. लेकिन, बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हमारी सरकारों और संबद्ध विभागों में लापरवाही का आलम है. इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने फिर फटकार लगायी है.

मंगलवार को एक सुनवाई के दौरान नाराज खंडपीठ ने कहा कि विधायिका अदालत को बेवकूफ बना रही है और पर्यावरण संरक्षण के लिए जमा की गयी राशि को अन्य मदों में खर्च किया जा रहा है. पर्यावरण के लिए जमा धन का उपयोग सड़कें बनाने, बस स्टैंडों की मरम्मत और कॉलेजों में प्रयोगशालाएं स्थापित करने जैसे कामों में हो रहा है. केंद्र और राज्य सरकारों के पास लंबित यह धनराशि करीब एक लाख करोड़ रुपये है.

अदालत ने खीझ कर यहां तक कहा है कि उसने सरकार पर भरोसा किया, लेकिन कुछ काम नहीं हुआ और जब अदालत कठोर टिप्पणी करती है, तो उसे न्यायिक दायरे का अतिक्रमण और सक्रियता का नाम दिया जाता है.

यह भी चिंताजनक है कि धन का बड़ा हिस्सा संबंधित कोष में ऐसे ही पड़ा हुआ है. वर्ष 2016 के कंपेंसेटरी एफॉरेस्टेशन फंड एक्ट के तहत प्रावधान है कि किसी वन भूमि के वन्य उद्देश्यों से इतर उपयोग का निवेदन करनेवालों से धन लिया जाना चाहिए. इसी कानून के अंतर्गत विशेष फंड स्थापित किया गया है. इस कानून की जड़ें 1980 के वन (संरक्षण) कानून में हैं.

इस वर्ष फरवरी में इस कानून से संबंधित बहुप्रतीक्षित जरूरी निर्देश भी जारी किये गये हैं, ताकि अनुसूचित जनजातियों और परंपरागत रूप से वनों में निवास करनेवालों के अधिकारों की रक्षा के लिए बने 2006 के कानून के उल्लंघन की शिकायतों को दूर किया जा सके. सरकारी आंकड़ों की मानें, तो बीते तीन दशकों में करीब 24 हजार औद्योगिक, रक्षा और जल-विद्युत परियोजनाओं के कारण 14 हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक वन क्षेत्र का सफाया हो चुका है.

इसके अलावा 15 हजार वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र अतिक्रमण के कारण नष्ट हो गया है. देश के 21.34 फीसदी हिस्से में यानी सात लाख वर्ग किलोमीटर से कुछ अधिक ही वन बचे हैं.

करीब 250 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र को हर साल अन्य गतिविधियों के लिए दे दिया जाता है. इस स्थिति को यदि नदियों के प्रदूषण, प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ते कहर, जल एवं वायु प्रदूषण, ऊर्जा की बढ़ती खपत जैसी समस्याओं के साथ जोड़कर देखें, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि पर्यावरण की रक्षा कितनी आवश्यक है.

ऐसे में यदि इस मद में जमा रकम का समुचित उपयोग नहीं होगा, तो आगामी वर्षों में स्थिति अनियंत्रित हो सकती है. विकास की अपेक्षाओं को पूरा करने और अर्थव्यवस्था को गति देने के साथ पर्यावरण पर ध्यान देना भी हमारी प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए. अगर इस संबंध में चूकें, कुप्रबंधन और लापरवाही बरकरार रहीं, तो आर्थिक विकास और समृद्धि की आकांक्षाएं फलीभूत न हो सकेंगी.

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