बदहाल बैंकिंग व्यवस्था

धन हाथ से निकल जाये, तो चिंता स्वाभाविक है, पर यह भरोसा भी रहता है कि व्यवस्था ठीक रही, तो मेहनत से पूंजी कमा ली जायेगी. व्यवस्था का संगत बना रहना बहुत कुछ निगरानी के इंतजाम पर निर्भर करता है. निगरानी दुरुस्त हो, तो व्यवस्था पर लोगों का विश्वास कायम रहता है. लेकिन निगरानी और […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 20, 2018 5:58 AM

धन हाथ से निकल जाये, तो चिंता स्वाभाविक है, पर यह भरोसा भी रहता है कि व्यवस्था ठीक रही, तो मेहनत से पूंजी कमा ली जायेगी. व्यवस्था का संगत बना रहना बहुत कुछ निगरानी के इंतजाम पर निर्भर करता है. निगरानी दुरुस्त हो, तो व्यवस्था पर लोगों का विश्वास कायम रहता है.

लेकिन निगरानी और अंकुश का तंत्र ही कमजोर हो, तब? सरकारी बैंकों पर बढ़ते बैड लोन के बोझ, बड़े-बड़े फर्जीवाड़े के सिलसिले, लगातार घाटे और कार्रवाई की नाकामियों के बीच एक अहम सवाल यह भी है. देश की बैकिंग व्यवस्था की बदहाली साफ दिखने लगी है. सूचना के अधिकार के तहत दाखिल एक अर्जी के जवाब में रिजर्व बैंक ने जानकारी दी है कि सरकारी और निजी बैंकों ने आपसी सहमति से बीते साढ़े पांच सालों (2012-13 से 2017 के सितंबर तक) में 3.67 लाख करोड़ की पूंजी को राइट ऑफ (डूबी पूंजी के रूप में चिह्नित) किया. ऐसा करनेवाले 27 सरकारी बैंक हैं और 22 निजी क्षेत्र के बैंक. इस श्रेणी की रकम लगातार बढ़ी है.

साल 2012-13 में यह लगभग 32 हजार करोड़ रुपये थी, तो 2016-17 में करीब 1.03 लाख करोड़ रुपये. जहां तक सरकारी बैंकों का सवाल है, उन्होंने मान लिया है कि डूबत की रकम चाहे जितनी हो, संकट के मौके पर सरकार आगे आकर विपदा से छुटकारा दिलायेगी. सरकारी खजाने से बीते 11 सालों में सरकारी बैंकों को 2.6 लाख रुपये की सहायता हासिल हुई. पिछले साल अक्तूबर में सरकार ने कहा कि वह अगले दो सालों में सरकारी बैंकों में 2.11 लाख करोड़ रुपये का निवेश करेगी, ताकि सरकारी बैंक अपने घटते मुनाफे की चिंता से उबरें और नये कर्ज देने का साहस जुटा पाएं. साल 2015 में भी सरकारी बैकों में निवेश की ऐसी घोषणा हुई थी.

लेकिन, सरकारी बैंकों का शीर्ष प्रबंधन अपना मुनाफा बढ़ाने या फिर डूबी पूंजी को वसूली के लिए नहीं चेत पाया, नतीजतन बैड लोन का बोझ बढ़ता गया. साल 2017 के सितंबर महीने तक सरकारी बैंकों का एनपीए बढ़कर 7.34 लाख करोड़ पहुंच चुका था. हाल में भारतीय स्टेट बैंक ने 20,339 करोड़ रुपये के फंसे कर्ज को बट्टा खाते में डाला. सरकारी बैंकों के लिहाज से बट्टे खाते में डाली जानेवाली यह सबसे बड़ी राशि है. बीते वित्त वर्ष (2016-17) में बैंकों के बट्टे खाते में 81,683 करोड़ रुपये की राशि डाली गयी. साल 2012-13 को आधार वर्ष मानें, तो पांच सालों में सरकारी बैंकों में बट्टा खाते में डाली गयी रकम में तीन गुना इजाफा हुआ है.

अगर बैंकिंग व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए निगरानी और अंकुश के कारगर इंतजाम नहीं किये जाते हैं, तो सबसे बड़ा घाटा लोगों के विश्वास का होगा. बैंक वित्त व्यवस्था के मेरुदंड होते हैं और वित्त व्यवस्था देश की आर्थिक गतिविधियों की धुरी. ऐसे में लोगों का भरोसा डिग जाये, तो अर्थव्यवस्था को किसी भी वक्त संकट घेर सकता है.

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