बाजार में हाहाकार

शुक्रवार से मंगलवार के बीच तीन कारोबारी दिनों में बंबई स्टॉक एक्सचेंज में निवेशकों के करीब दस लाख करोड़ रुपये डूब चुके हैं. दुनियाभर के शेयर बाजारों की माता कहे जानेवाले अमेरिकी स्टॉक एक्सचेंंज डाउ जोंस के साथ एशियाई बाजारों में भी तेज गिरावट हो रही है. कुछ दिनों पहले ही भारतीय शेयर बाजार रिकॉर्ड […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 7, 2018 4:36 AM

शुक्रवार से मंगलवार के बीच तीन कारोबारी दिनों में बंबई स्टॉक एक्सचेंज में निवेशकों के करीब दस लाख करोड़ रुपये डूब चुके हैं. दुनियाभर के शेयर बाजारों की माता कहे जानेवाले अमेरिकी स्टॉक एक्सचेंंज डाउ जोंस के साथ एशियाई बाजारों में भी तेज गिरावट हो रही है. कुछ दिनों पहले ही भारतीय शेयर बाजार रिकॉर्ड कारोबार कर रहे थे, पर अब यह रुझान ऋणात्मक हो चुका है. जानकारों की मानें, तो आगामी कुछ दिनों में इसमें सुधार की गुंजाइश भी नहीं है.

तेज बिकवाली का मुख्य कारण अमेरिका में मुद्रास्फीति तथा ब्याज दर बढ़ने के आसार को बताया जा रहा है. हालांकि, भारतीय बाजार के संदर्भ में कुछ विशेषज्ञ बजट में दीर्घकालिक पूंजी आमद कर को लागू करने के फैसले को भी एक वजह मान रहे हैं. वित्त एवं राजस्व सचिव हसमुख अधिया ने भरोसा दिलाया है कि सरकार इस हालत में सुधार के उपायों पर विचार करेगी, पर बाजारों को देखकर लगता है कि सरकार के पास विकल्प न के बराबर हैं, क्योंकि गिरावट विश्वव्यापी है तथा मुख्य कारक उसके वश में भी नहीं हैं.

भारतीय बाजार में सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र टेलीकॉम, वाहन, रियल इस्टेट, उपभोक्ता वस्तु एवं सेवा तथा पूंजी हैं. फिलहाल संतोष की बात है कि जनवरी के अच्छे लेन-देन और मौजूदा गिरावट के बीच आधारभूत सेंसेक्स और निफ्टी में क्रमशः एक और 1.7 फीसदी कमी ही आयी है. लेकिन, अगर गिरावट जारी रही और डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत बेहतर नहीं हुई, तो बाजार अस्थिर हो सकता है.

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा कॉरपोरेट करों में छूट देने के कारण वहां के उद्योग जगत में इस छूट का बड़ा हिस्सा निवेशित होगा तथा कामगारों के पारिश्रमिक के बढ़ने की संभावना भी है. ऐसे में मुद्रास्फीति तथा ब्याज दर बढ़ने की संभावना तेज हो गयी है. डॉलर की मजबूती का भी दबाव विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर है, क्योंकि उनकी लेनदारी डॉलर में ही ज्यादा है. अब भारत और चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं की उम्मीद इस बात पर टिकी है कि बेहतर अमेरिकी अर्थव्यवस्था से उनका निर्यात बढ़ेगा. परंतु ऐसा होने में अभी समय है.

फिलहाल तो सबसे बड़ी चिंता यह है कि निवेशकों, खासकर विदेशी संस्थागत निवेशकों, को किस तरह से बाजार में कायम रखा जाये. यदि कुछ दिनों में उथल-पुथल थम भी जाती है, तो भी इस असर से उबरने में वक्त लगेगा. यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि ऐसा भी तब ही हो सकेगा, जब फिर कुछ महीनों में बिकवाली का तेज दौर वापस न आ जाये.

जहां तक अर्थव्यवस्था और विकास पर इस घटनाक्रम के प्रभाव का प्रश्न है, तो निश्चित रूप से इस संकट से अनेक छोटी-बड़ी परियोजनाओं में विलंब होगा तथा वित्तीय संस्थाओं पर धन निवेशित करने का दबाव बढ़ेगा. देखना यह है कि सीमित संभावनाओं के बीच सरकार और उद्योग जगत आगामी दिनों में क्या कदम उठाते हैं?

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