कानून नहीं, हम अंधे थे

रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय. . . . . .जुड़े गांठ पड़ि जाये! रिश्तों में छोटी-मोटी गांठे बनती रहती हैं, मगर मजबूत रिश्ता वह है, जिस पर लोग अटूट विश्वास करते हैं. किसी ने सोचा भी न था कि चार जजों की ‘बेंच’ एक दिन कानूनी चोला उतार कर ‘सड़कों’ पर आ जायेगी. […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 16, 2018 5:28 AM
रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय. . . . . .जुड़े गांठ पड़ि जाये! रिश्तों में छोटी-मोटी गांठे बनती रहती हैं, मगर मजबूत रिश्ता वह है, जिस पर लोग अटूट विश्वास करते हैं. किसी ने सोचा भी न था कि चार जजों की ‘बेंच’ एक दिन कानूनी चोला उतार कर ‘सड़कों’ पर आ जायेगी.
न्याय के मंदिर में होने वाले अन्याय के खिलाफ ‘याचिका’ दायर हो जायेगी. जनता के मुकदमों की सुनवाई करने वाले लोग जनता के बीच अपनी फरियाद ले कर आ जायेंगे. बेशक सब कुछ ऐतिहासिक था. 20 साल बाद लोग बेशक नहीं कहेंगे कि उन्होंने अपनी आत्मा बेच दी थी, मगर आनेवाली पीढ़ी जरूर कहेगी ‘मीलॉर्ड, कानून नहीं हम अंधे थे’. न्यायपालिका पर अटूट विश्वास था हमारा, मगर अचानक न्याय खेमों में बंटा नजर आने लगा.
मौकापरस्त सियासत भी फड़फड़ाने लगी. जाने क्या हुआ एक झटके में कि लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ दरक गया? संभव है, भरोसा टूटने से बच जाये. बाहर निकली तलवारें भी म्यानों में वापस चली जाएं, मगर रिश्तों में पड़ी गांठ सुलझाना क्या आसान होगा?
एमके मिश्रा, रांची

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