सम्मान का साहित्यिक समारोह

संतोष उत्सुक व्यंग्यकार कभी-कभार छपनेवाली साहित्यिक पत्रिका के संपादक का फोन सुबह सात बजे ही आ गया. बोले, आप भी साहित्य प्रेमी हैं, इसलिए साल की अंतिम शाम शहर में आयोजित किये जा रहे सम्मान समारोह में समय पर पहुंचने का कष्ट करें. पत्रिका का प्रसिद्ध संपादक स्वयं फोन करे, तो अच्छा लगता ही है. […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 4, 2018 7:08 AM
संतोष उत्सुक
व्यंग्यकार
कभी-कभार छपनेवाली साहित्यिक पत्रिका के संपादक का फोन सुबह सात बजे ही आ गया. बोले, आप भी साहित्य प्रेमी हैं, इसलिए साल की अंतिम शाम शहर में आयोजित किये जा रहे सम्मान समारोह में समय पर पहुंचने का कष्ट करें. पत्रिका का प्रसिद्ध संपादक स्वयं फोन करे, तो अच्छा लगता ही है.
अपनी अप्रकाशित रचनाओं के बारे में स्मरण करते, साहित्य प्रेमवश वहां पहुंचे, तो संपादकजी ने अच्छे से पहचानते हुए स्वयं स्वागत किया. मुख्य अतिथि पता नहीं क्यों समय पर रहे. सम्मानित होनेवाले तीन ‘युवा’ कवि, संस्कृति विभाग के निदेशक व एक करीबी संपादक मंच पर सजे. कार्यक्रम का मिनटानुसार ब्योरा बंटा. र्कायक्रम अनुशासन के अनुसार आगे चलना था. स्वागत भाषण शुरू हुआ.
प्रशस्ति वाचन के उपरांत प्रथम कवि का सम्मान किया गया, फिर दिग्गज साहित्यकार ने उनके व्यक्तित्त्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला. संदर्भित किताब, जिस पर पुरस्कार दिया जा रहा था, लगन से पढ़ी थी, इसलिए काफी कविताओं का जिक्र भी किया. कवि की मूंछें ऊपर उठती दिखीं, तो उन्हें अच्छा लगता दिखा. मगर इधर समय शुरू से ही कम पड़ने लगा. हमेशा की तरह मुख्य अतिथि को अगले कार्यक्रम में जाना था, सो संक्षिप्त रहने के बारे में मंच से कह दिया गया.
दूसरे कवि के व्यक्तित्त्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालनेवाले जाम में फंस देर से आये, तभी संक्षिप्त बोले. तीसरे कवि पर प्रकाश डालनेवाले कष्टदायक पहाड़ी स्थल से आते थक गये थे, मगर बढ़िया वक्तव्य लिख कर लाये थे, पर संक्षिप्तता की पर्ची उन्हें थमा दी गयी. इस तरह साहित्य कम होते जाने का रोना रोते समाज में साहित्यिक लोगों के पास साहित्य पर चर्चा सुनने का समय कम पड़ता जा रहा था.
तीनों कवियों को सम्मान, मुख्य अतिथि को कुर्सी से खड़ा कर वहीं निबटवा दिये. समय सचमुच कम था, मगर असली सेतू-निर्माण बाकी था. सुपरमाननीय मुख्य अतिथि, महामाननीय अध्यक्ष व माननीय विशिष्ट अतिथि संपादक का सम्मान करना भी भारतीय परंपरा है, सो किया गया. कम पड़ता साहित्य कम पड़ता समय. इतना सब निबटाना मुश्किल है यारों. एक युवा समीक्षक को रुकने के लिए दो बार पर्ची दी गयी, क्योंकि मुख्य अतिथि को आदतानुसार जाना था.
तीन कवियों पर प्रकाश डालनेवाले तीन गुणियों ने भी मेहनत की थी, सो उन्हें भी वही प्रतिमा मुख्य अतिथि के हाथों भेंट की गयी, ताकि भविष्य में भी पधारें. कार्यक्रमों का क्रम बदलना पड़ा, क्योंकि मुख्य अतिथि ने तो अब जाना ही था. एक असाहित्यिक बंदा चुटकी ले रहा था, यारों साहित्य की दुनिया में सम्मान का बहुत महत्त्व है.
और समाज में जब साहित्य की कमी के कारण कई विद्रुपताएं घर कर गयी हैं, साहित्यिक सम्मान समारोह जरूरी हो गये हैं. चोरी की गयी कविता पर सम्मान में हमें एक बार सरस्वती मां की प्रतिमा मिली थी, मगर यहां गणेशजी की प्रतिमा पहली बार देखी!

Next Article

Exit mobile version