क्या सच में यह सोने का शहर है!

जगदीश रतनानी वरिष्ठ पत्रकार यह मुंबई में नववर्ष की मूक शुरुआत रही है. पार्टिर्यों के हाॅट स्पाॅट्स और उनके विस्तार, अतिक्रमण तथा कब्जे जांच के दायरे में आ गये हैं. उल्लंघनों की ओर से आंख मूंद लेने के लिए नागरिक अधिकारी निलंबित कर दिये गये हैं, जिसके कारण दिसंबर के आखिरी हफ्ते में एक पब […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 3, 2018 7:24 AM

जगदीश रतनानी

वरिष्ठ पत्रकार

यह मुंबई में नववर्ष की मूक शुरुआत रही है. पार्टिर्यों के हाॅट स्पाॅट्स और उनके विस्तार, अतिक्रमण तथा कब्जे जांच के दायरे में आ गये हैं. उल्लंघनों की ओर से आंख मूंद लेने के लिए नागरिक अधिकारी निलंबित कर दिये गये हैं, जिसके कारण दिसंबर के आखिरी हफ्ते में एक पब में 14 व्यक्तियों की मौत हो गयी. नया साल एक उदास धुन के साथ लुढ़क रहा है. क्या यह सच में ‘सोने का शहर’ है, जो सपनों को साकार करता है या यह महज खाये-अघाये ऐसे महानगरवासियों का शहर है, कि हर कोई दूध चाहता है? इस अर्थ में क्या मुंबई मर रही है और क्या कुछ ठोस किया जाना चाहिए?

घटना की जगह वह जगह है, जहां कभी कपड़ा मिल थी, जो कभी सरकार के बाद दूसरी सबसे बड़ी नियोक्ता थी. जैसे मिलें बंद हुईं और पड़ोस में रह रहे श्रमिकों को बाहर किया गया, वहां कांच के मोहरे आये, जहां कूल्हे पार्टी में जाते थे. उसी जगह, जहां लोग चलनों का अनुसरण करते हंै और मिजाज में विलीन होकर अपने गमों से पीछा छुड़ाते हैं, मिल मजदूरों ने पहली बार कृत्रिम प्रकाश के बूते बढ़ायी गयी श्रम-अवधि के विरोध में रोशनी के बल्बों को तोड़कर विद्रोह का झंडा बुलंद किया था.

बदलते समय को लेकर विलाप करने की बजाय यह ध्यान रखने के लिए है. अपनाना भी आगे बढ़ना है और मुंबई की यही कहानी है. लेकिन, जब किसी भी कीमत पर व्यवसाय का विचार काल्पनिक सिद्धांतों तथा बंजर स्पष्टीकरणों की अगुवाई करता है, वहां एक कठिन घुमाव है. हाल में जिस तरह की सफाई दी गयी कि- इन हादसों में आग लगने तथा मौतों का कारण अधिक जनसमूह का होना है.

यहां से अगली छलांग आती है कि शहर में प्रवेश रोक देना चाहिए.

यह विचार नया नहीं है कि मुुंबई में प्रवसन नियंत्रित होना चाहिए. यह हमेशा आता रहा है. शिवसेना ने 1985 में, तत्कालीन बांबे म्युनिसिपल काॅरपोरेशन में सत्ता में आने के कुछ घंटों के भीतर ही इसे उछाला था. और अभिनेत्री से सांसद बनीं हेमा मालिनी अब ज्वाला की रोशनी में भी उसी फंदे में गिरी हैं. यह व्यवस्था की संज्ञान लेने की कवायद है. टीवी साक्षात्कार में यह कहने के लिए स्वाभाविक ही उनकी आलोचना हुई कि 20 मिलियन से अधिक आबादी के साथ वित्तीय केंद्र मुंबई में अधिक लोगों के प्रवेश की ‘वहां अब गुंजाइश नहीं है’. उनकी दलील, यदि उसे दलील कहा जा सके, तो वह इस शहर के जीवन की ‘बॉलीवुड मार्का’ एक कमजोर समझ से थोड़ी अधिक ही है.

वास्तविक तस्वीर बहुत अलग है. अनुकूलनीयता, औद्योगिकता तथा उद्यम के साथ आयी है, और शत-प्रतिशत सफलता के अवसरों वाला एक ऐसा परिवेश निर्मित किया, जिसमें कारोबारों को बढ़ावा मिला. यह सुव्यवस्थित तो है लेकिन उतना नहीं, जितना समझा जाता है. उद्यम सिर्फ धीरूभाई अंबानी निर्मित साम्राज्य अथवा फिल्मी सितारों की गरीबी से अमीरी वाली कहानियों में नहीं है, बल्कि लोगों के कठोर परिश्रम से तैयार लाखों लघुतर उद्यमों की सफलताओं में भी होता है, जिनके पास खोने को कुछ नहीं होता और जो अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं. कारोबारी पटुता की कहानियां और उद्यम, हर जगह पाये जा सकते हैं फुटपाथी दुकानों, ढाबों, बड़ापाव के स्टालों तथा उनके स्टोर्स में बेचनेवाले उनके मैकडोनाल्डी संस्करणों में.

और हां, हुक्का बारों तथा उन भड़कीले मायावी पबों में, जो इसे कभी न सोने वाले शहर का रुतबा सौंपते हैं. लेकिन कारोबार का एक बड़ा हिस्सा, किसी भी तरह किसी कीमत पर व्यवस्था के साथ खेलता दिख रहा है.

पंजीकृत प्रतिष्ठानों और वेंडरों की तुलना अवैध अधिक है; लगभग 60 फीसदी लोग मलिन बस्तियों में गुजर करते हैं; एक ही स्थान पर सड़क की पटरी पर कलाकार चित्र बनाते हैं, तो दूसरी पटरी की ओर कोई स्कूल चलता है.

सभी तरह की सेवाओं की मांग अधिक है और यह शहर जिस प्रकार के अवसर पेश करता है, कुछ अन्य शहर ही कर सकते हैं. इसका अर्थ एक गुप्त अर्थव्यवस्था भी है, जिसमें हर कोई सौदा करने को तैयार है. कीमत अगर सही है, तो कोई भी हर्जाना चलता है. इनमें सबसे बदतर उल्लंघन मुंबई नगर निगम की नाक के नीचे होते हैं, जिसे एशिया की सबसे अमीर नगरपालिका का गौरव हासिल है. ढीले नियंत्रणों वाला एक बड़ा निगम, समान रूप से बड़े उल्लंघनों की लीपापोती करता है, जबकि प्रशासन के अन्य अंग साझेदारी निभाते हैं.

रपटों के मुताबिक, जिस पब में आग लगी थी, उसने हादसे से कुछ ही दिन पहले अग्निशमन विभाग की मंजूरी प्राप्त की थी. इससे बदतर कुछ नहीं हो सकता. वस्तुत: अग्निशमन विभाग खुद ही संकट में रहा है. एक तरफ, जहां निरीक्षण के ढेरों प्रशासनिक कार्य हैं, जिनके लिए वह तैयार नहीं है तो दूसरी ओर, पर्याप्त प्रशिक्षण, बुनियादी ढांचे और उपकरणों की कमी भी है.

स्पष्टतया, यदि इस शहर को अपना आकर्षण नहीं खोना है, तो तय करने के लिए काफी कुछ है. लेकिन ऐसा करने का एक तरीका ‘बाहरी लागों’ के बारे में बोलना नहीं है, जो यहां के लिए झुंड हैं. ये वे लोग है जो मुंबई को क्रियाशील रखतेे तथा आगे बढ़ाते हैं.

दरबान, जो आपके होटल में घुसते ही सलाम ठोंकता है, डिस्क जाॅकी, जो डांस फ्लोर को और बारटेंडर जो काउंटर को जीवंत बनाए रखता है, ये लोग भी नायक हैं, जितनी हेमा मालिनी एक नायिका हैं. वह मुंबई से नहीं हैं और न ही वे. लेकिन, एक साथ वे मुंबईकर हैं, जो मुंबई का जादू रचते हैं.

(अनुवाद : कुमार विजय)

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