पटकथा के बाद की कथा

मनोज श्रीवास्तव व्यंग्यकार फिल्म तो टूरिंग टॉकीज में मजा देती है या एकल सिनेमा में. टूरिंग टॉकीज टूट गये और एकल सिनेमा अंतिम सांस ले-रहे हैं. लेकिन, इनके दर्शक अभी भी जिंदा हैं, जो सिनेमा को पकड़े हुए हैं. सलमान खान को दुनिया चाहे सीरियसली न ले, पर एकल सिनेमा के लिए आवाज उठानेवाला वह […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 3, 2018 7:22 AM
मनोज श्रीवास्तव
व्यंग्यकार
फिल्म तो टूरिंग टॉकीज में मजा देती है या एकल सिनेमा में. टूरिंग टॉकीज टूट गये और एकल सिनेमा अंतिम सांस ले-रहे हैं. लेकिन, इनके दर्शक अभी भी जिंदा हैं, जो सिनेमा को पकड़े हुए हैं.
सलमान खान को दुनिया चाहे सीरियसली न ले, पर एकल सिनेमा के लिए आवाज उठानेवाला वह अकेला बंदा है, जो जानता है कि मल्टीप्लेक्स के दर्शक नकली दर्शक हैं, जिन्हें न सिनेमा पता है, न इतिहास, न संस्कृति. इसलिए इनके आगे आजकल नकली सिनेमा परोसे जाने लगा है.
आज के अधिकांश लेखक-निर्देशक के सिर्फ शरीर ही बॉलीवुड में होते हैं, पर दिमाग से वे हॉलीवुड में विचरण करते रहते हैं. विदेशी फिल्म फेस्टिवल में अवाॅर्ड पाती बननेवाली फिल्म के मंसूबे बांधे रहते हैं. पटकथा लेखक अपनी पटकथा को बगल में दबाये अवाॅर्ड सेरेमनी में सीढ़ियां चढ़ने के ख्याल से भरकर निर्माता के घर की सीढ़ियां नापता रहता है. निर्देशक को लगता है, बस एक फिल्म उसे स्टीफन स्पीलबर्ग बना देगी.
फिल्म के मुहूर्त तक यह सफर चलता है, फिर उन्हें एहसास होने लगता है कि क्या बना रहे हैं, क्या यह किसी को समझ आयेगा? प्रोड्यूसर और वितरक मीन-मेख निकालने लगते हैं.
फिल्म पूरी बनने तक वितरकों को जहाज डूबता दिखता है, क्योंकि ऑस्कर के चक्कर में सब्जेक्ट और फिल्मांकन ऐसे बन पड़ते हैं कि फिल्म दर्शक के सिर के ऊपर से निकल जाये. अब क्या होगा? मल्टीप्लेक्स का दर्शक तो एक वीक छोड़िए, सिर्फ तीन दिन साथ देने तक का है. और जो विद्वान वर्ग है, उनमें आधे से ज्यादा को फिल्म देखने की फुर्सत ही नहीं है. और बाकी बचे झोला-चप्पलधारी, जिनके पास मल्टीप्लेक्स में घुसने को न जूते हैं, न जेब! ऐसे में फिल्म कैसे चलेगी?
अब वितरकों के दबाव में जुगाड़ ढूंढा जाता है. जो पटकथा और प्लॉट को निर्देशक और लेखक कलेजे से लगाये बैठे थे, उसे लीक करने का प्रस्ताव आता है. निर्देशक और लेखक के मुंह उतर जाते हैं.
जिस कथा की गोपनीयता को बीबी से भी छुपाकर रखे थे, वही हटाने को दिल दरिया बताने का नकली दिखावा करते हैं. सही है, आजकल प्रचार का खर्च फिल्म की लागत से अधिक है. बेचारा प्रोड्यूसर कंगला हो जायेगा और वितरक का घर बिक जायेगा, इसके लिए स्क्रिप्ट लीक करना होगा तो करेंगे, आखिर अपनी फिल्म इंडस्ट्री की इज्जत का सवाल है.
अब वितरक खुश है. मीडिया में प्लॉट फेंक दिया जाता है. चार दिन में चारों ओर चर्चे होने लगते हैं.बैठे-ठाले सभी को फिल्म का कांसेप्ट समझा दिया जाता है. कोई यह ध्यान नहीं देता कि जो पटकथा सात तालों में बंद थी, जिसे लेखक-निर्देशक कभी अपने बीबी-बच्चों के सामने मुंह पर नहीं लाये, वह ठेले-चौपाटी पर कैसे चल रही है? यही मैजिक है और इसी के भरोसे सिनेमा मालिक निश्चिंत है कि दर्शक हॉल के अंदर सिर नहीं पकड़ेगा, बल्कि कुर्सी पकड़कर बैठा रहेगा.

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