यह साल भी यारों बीत गया

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया मशहूर वैज्ञानिक और शायर गौहर रजा कहते हैं- ‘ये साल भी यारों बीत गया/ कुछ खून बहा कुछ घर उजड़े/ कुछ कटरे जल कर खाक हुए’. ये पंक्तियां किसी साल का लेखा-जोखा नहीं हैं और न ही उदासी का वृत्तांत हैं. ये पंक्तियां मानव समाज […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 29, 2017 6:46 AM

डॉ अनुज लुगुन

सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया

मशहूर वैज्ञानिक और शायर गौहर रजा कहते हैं- ‘ये साल भी यारों बीत गया/ कुछ खून बहा कुछ घर उजड़े/ कुछ कटरे जल कर खाक हुए’. ये पंक्तियां किसी साल का लेखा-जोखा नहीं हैं और न ही उदासी का वृत्तांत हैं.

ये पंक्तियां मानव समाज के बढ़ते कदमों की शिनाख्त हैं, जो आदिम समय से चलते हुए यहां तक पहुंचे हैं. निरंतर प्रगति की ओर बढ़ते मानव समाज के कदम मनुष्यता की चाह रखते हैं. इसी चाह से उसने प्रकृति के समानांतर अपनी संस्कृति निर्मित की है. इसी प्रक्रिया में कवि और कलाकार हुए हैं, मीर-गालिब हुए हैं, नानक-बुल्लेशाह हुए हैं. हमेशा परिवर्तनकारी शक्तियों ने यथास्थितिवाद से मुठभेड़ किया है और यह अब भी जारी है.

हमें लगता है आधुनिक जीवन को तकनीक नियंत्रित करती हैं. ये तकनीक मनुष्य की बौद्धिकता के साथ लगातार विकसित होती जाती हैं. हम तकनीकपरस्त होते जाते हैं और उन शक्तियों से बेपरवाह भी होते जाते हैं, जो तकनीक को नियंत्रित करते हैं. यानी मनुष्य की तकनीकी विकास के साथ-साथ उस पर वर्चस्व रखनेवाले समूहों का कुटिल विचार भी समानांतर चलता रहता है. हम उनकी गिरफ्त में होते हैं, लेकिन हमें इसका आभास तक नहीं होता. यानी हम जो आम इंसान हैं, जो अमनपसंद हैं, जो भाईचारा रखते हैं, वर्चस्वकारी शक्तियों की साजिश का शिकार होते हैं. आज का वैश्विक परिदृश्य इससे मुक्त नहीं है.

हम इस साल के पन्नों को पलटकर देखें, तो यह भी युद्ध और उसकी त्रासदी से अछूता नहीं रहा है. एक ओर कट्टरपंथी इस्लामिक स्टेट के आतंकी हमलों का साया बना रहा, वहीं दूसरी ओर सीरिया युद्ध दर्द की तरह पूरे बरस उभरता रहा.

इस साल के अंत तक जेरुसलम पर डोनाल्ड ट्रंप की नीति ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नयी हलचल पैदा कर दी. चिंता की बात है कि दुनिया की बड़ी शक्तियां जहां कदम रख रही हैं, वहां इतनी अशांति क्यों है? अरब और मध्य एशिया के देश ही आतंकवाद की जड़ के रूप में क्यों दिख रहे हैं. यह सामान्य सवाल नहीं है.

दो महायुद्धों के बाद नृशंसता झेलकर भी यदि हम लगातार युद्ध और हथियारों की प्रतिस्पर्धा में उलझते जा रहे हैं, तब इस सवाल पर विचार करना जरूरी हो जाता है. अब भी लाखों लोग युद्ध पीड़ित हैं, शरणार्थी शिविरों में रहने को विवश हैं और विश्व समुदाय दया दिखाने से ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहा है. हमें अपनी मनुष्यता पर विचार करना चाहिए. संयुक्त राष्ट्र भूख, बीमारी, अशिक्षा, हिंसा पर चिंता जाहिर करता है, लगातार उसकी चेतवानी भरी रिपोर्ट प्रकाशित होती हैं, इसके बावजूद हमारी मनुष्यता युद्ध की दिशा में उलझ रही है.

तो क्या यह मान लिया जाये कि मनुष्य के तकनीकी विकास का लक्ष्य युद्ध बन गया है? विज्ञान की उपलब्धि यह मानी जाये कि उसका सामर्थ्य पूरी सृष्टि को पलक झपकते नष्ट करने में है? अपने विकास क्रम में मनुष्य ने संघम, रामराज्य, बेगमपुरा आदि का यूटोपिया गढ़ा. मार्क्स-एंगेल्स ने ‘साम्यवाद’ की परिकल्पना की.

अन्याय और उत्पीड़न के विरुद्ध न्याय और प्रेम के लिए संघर्ष सदियों से जारी है. फिर भी मानव समाज आपस में ही भिड़ने को तैयार क्यों है? भाववादी कहते हैं यह मनुष्य की नैतिक कमजोरी है. यथार्थवादी कहते हैं कि सत्ता और वर्चस्व की लड़ाई है और यह संसाधनों पर कब्जे के लिए आगे और भी ज्यादा हिंसक रूप में जारी रहेगी. कुल मिलाकर मानव समाज अपने विकास के ऐतिहासिक चरणों में अब भी अपने मनुष्य रूप को हासिल नहीं कर सका है.

ऐसे में हम अपने देश को देखें. हजारों साल का भारतीय समाज आज जैसे वापस अपने पुराने इतिहास में कैद हो जाना चाहता है. इतिहास के नायकों के बीच जंग छिड़ी है. प्रतीकों और मिथकों को लेकर उन्माद की स्थिति है. यह वर्तमान सत्ताधारी राजनीति का प्रतिफलन बनकर उभर रहा है.

जीवों पर दया मनुष्यता का श्रेष्ठ रूप हो सकता है, लेकिन एक जीव के नाम पर दूसरे जीव की हत्या करना किसी का धर्म कैसे हो सकता है? हमें अपनी लोकतांत्रिकता पर मंथन करना चाहिए. हमारा देश विविधताओं का देश है.

विविधताओं को सहेजना भले ही कठिन लगता हो, पर सुंदरता तो इसी में है. हम एक दूसरे के प्रति कितने सहिष्णु हैं, यह हमारी लोकतांत्रिकता का सूचक है. पिछले दिनों जिस तरह की घटनाएं घटी हैं, वह हमारी विविधता के लिए चिंता की बात है. नफरत की राजनीति करनेवालों के लिए हमारी विविधता में से शत्रु को चिह्नित करना आसान होता है. वे सत्ता तक पहुंचने के लिए हर हथकंडे अपनाते हैं.

उनकी जुबान में ‘विकास’ और ‘देशभक्ति’ के जुमले तो होते हैं, लेकिन आम जन की गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, सामाजिक सुरक्षा की सार्थक कार्ययोजना नहीं होती है. न किसानों के लिए उन्नत कृषि की समुचित व्यवस्था होती है, न मजदूर किसी एजेंडे के हिस्से होते हैं और न ही सामाजिक वंचितों का उत्पीड़न खत्म होता है.

बेरोजगार भटकते युवा उनके सबसे आसान शिकार होते हैं और उनकी फौज बढ़ती जाती है. राजनीतिक प्रोपेगंडा से बाहर जब हम बुनियादी मुद्दों की तहकीकात करते हैं, तो यह बीतता हुआ साल कई तीखे सवाल लेकर हमारे सामने खड़ा हो जाता है. ऐसे में एक आम नागरिक क्या करे? इसकी चिंतनपरक चिंता हो.

आनेवाले समय से एक उम्मीद तो रहती ही है, बस वह अपने विवेक के साथ कायम रहे. नये साल में हम मनुष्य के इतिहास के प्रगतिशील विचारों की कड़ी से जुड़ें और उसका विस्तार हो.

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