अब सीपीईसी में अफगानिस्तान

अविनाश गोडबोले चीन मामलों के जानकार चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विदेश मंत्रियों के बीच त्रिपक्षीय वार्ता 26 दिसंबर को बीजिंग मे संपन्न हुई. इस चर्चा में अफगानिस्तान को चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडर (सिपेक) में शामिल होने का न्योता दिये जाने की बड़ी खबर सामने आयी है. इस चर्चा के बाद जारी किये संयुक्त वक्तव्य में, […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 28, 2017 6:15 AM

अविनाश गोडबोले

चीन मामलों के जानकार

चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विदेश मंत्रियों के बीच त्रिपक्षीय वार्ता 26 दिसंबर को बीजिंग मे संपन्न हुई. इस चर्चा में अफगानिस्तान को चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडर (सिपेक) में शामिल होने का न्योता दिये जाने की बड़ी खबर सामने आयी है. इस चर्चा के बाद जारी किये संयुक्त वक्तव्य में, चीन के वन बेल्ट वन रोड (ओबोर) प्रोजेक्ट के अंतर्गत आनेवाली परियोजनाओं में और आतंकवाद विरोध मे सहकार्य बढ़ाने पर जोर दिया गया है. क्या इस चर्चा से और इसके परिणामों से भारतीय हितों पर कोई असर होगा, यह सवाल स्वाभाविक है. इस चर्चा के उपरांत ऐसे अनेक विषय सामने आते हैं, जिससे भारत को और गौर से अपनी अफगान भूमिका की समीक्षा करनी होगी.

वैसे, अफगानिस्तान के विषय में चीन द्वारा एक सकारात्मक भूमिका लेना एक अच्छी बात हो सकती थी. लेकिन यह मामला बहूत ज्यादा पेचीदा है. भूमंडलीय राजनीति में अनेक वर्षों से एक तटस्थ भूमिका अपनाने के बाद में शी जिनपिंग का चीन देश एक सक्रिय राजनीति करने लगा है. हाल ही में उसने इजराइल और फिलिस्तीन के बीच एक अनौपचारिक शांति वार्ता का आयोजन किया था. इसके साथ ही सीरिया, म्यांमार का रोहिंग्या प्रश्न और भूमंडलीकरण का भविष्य और ऐसे विषयों पर हाल ही में चीन ने एक स्पष्ट और पश्चिमी देशों के विपरीत भूमिका लेने का सिलसिला शुरू किया है.

सिपेक और ओबोर, इन दोनों विषयों पर भारत की भूमिका हमेशा से स्पष्ट और सैद्धांतिक​ रही है. ​​भारत का यह मानना है कि जमीनी तथा सागरी संपर्क और यातायात प्रकल्प किसी तीसरे देश की सुरक्षा और संप्रभुता का हनन करके नहीं बनाये जा सकते. पाक अधिकृत कश्मीर से गुजरनेवाले सिपेक प्रकल्प से भारत की सुरक्षा और अखंडता पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं और इसी कारण सिपेक को मानदंड बिंदु बनानेवाले ओबोर में भारत भाग नहीं लेगा.

इसके अलावा भी, भारत ने और कई अन्य देशों ने ओबोर के आर्थिक व्यवहार्यता पर सवाल भी उठायें हैं, लेकिन सुरक्षा और संप्रभुता का मुद्दा सबसे अहम है, जिस पर भारत की भूमिका बदलने का कोई संदेह भी चीन ना रखे.

अफगानिस्तान में चीन को पिछले कई वर्षों से एक फ्री लोडर यानी कि अन्य देशों के बलिदान के बाद आर्थिक लाभ उठाने के लिए आया हुआ एक देश के रूप में देखा जाता है.

जारंज-डेलाराम सड़क और अफगान संसद भवन जैसे मूलभूत सुविधाओं के निर्माण में भारत के बीएसएफ और आईटीबीपी के अनेक जवानों का खून बहा है. साथ ही में 1999 के आईसी-814 के अपहरण में तालिबान का पाकिस्तानी आतंकवादी गुटों को समर्थन देने का इतिहास भी भारत भूला नहीं है. भारत ने हमेशा से ही तालिबान को एक आतंकवादी संगठन के रूप में देखा है. लेकिन, अब चीन वहां आकर तालिबान को शांति प्रक्रिया में शामिल करने की सलाह दे रहा है!

यह सब अचानक नहीं हो रहा, बल्कि एक सुनियोजित साजिश का हिस्सा है. जिस भी देश में चीन ने आर्थिक गतिविधियां बढ़ायी है, वहां के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप जरूर की है. सूडान, जिंबाब्वे, श्रीलंका और ऑस्ट्रेलिया ने भी चीन पर ऐसे आरोप लगाये थे.

अफगानिस्तान की खान में निवेश के साथ ही चीनी निवेश 2010 में शुरू हुए थे. साथ ही वहां के तेल और गैस​ प्रकल्पों के उत्खनन और विकास तथा निर्यात में भी चीन रुचि रखता है. हाल ही में चीन की एक कंपनी ने वहां रेलवे के निर्माण का कार्य शुरू किया है.

साथ ही तजाकिस्तान से चीन आनेवाले तेल, गैस और अन्य खनिजों के लिए भी अफगानिस्तान और सिपेक का जुड़ना चीन के लिए उपयुक्त होगा. ​इन सब से शायद अफगानिस्तान का विकास हो, लेकिन आर्थिक विषयों पर भी श्रीलंका का अनुभव हमारे सामने ताजा है, जिसमें हंबनतोता जैसा सामरिक महत्व वाला प्रोजेक्ट एक चीनी कंपनी को 99 साल के लिए मिल गया है. ओबोर के प्रोजेक्ट पैसे वाले यूरोप के लिए महंगे होते दिख रहे हैं, वहां अफगानिस्तान क्या कर पायेगा?

लेकिन, सबसे बड़ा खतरा चीन के तालिबान के बारे में सोच से है. तालिबान एक आतंकवादी संगठन है और वह अफगानिस्तान की शांति प्रकिया एवं लोक निर्वाचित सरकार को नहीं मानता है. साथ ही, तालिबान पर पाकिस्तान के खुफिया संगठन आईएसआई के साथ मिलकर, भारतीय दूतावास एवं हेरात में कॉन्सुलेट पर हुए आतंकी हमलों में शामिल होने का शक है. ऐसे संगठन का सामान्यीकरण करना एक चिंता का विषय है.

अगर तालिबान की ताकत बढ़ी, तो पिछले 16 साल से अफगानिस्तान में जो बदला है, वह सब नष्ट हो सकता है. वैसे भी, पाकिस्तान को चीन आतंकवाद से पीड़ित देश मानता है. तालिबान के साथ मिलकर पाकिस्तान अरसे से भारत के हितों को नुकसान पहुंचाता रहा है और यह अब शायद चीन की मान्यता के साथ होगा.

भारत को अपनी सतर्कता और अधिक बढ़ानी होगी और अफगान सरकार के साथ अपने प्रोजेक्टों को और मजबूत करना होगा. आइएनएसटीसी और चाहबहार जैसे प्रोजेक्ट भारत को क्रियाशील भूमिका लेने में मदद करते हैं. साथ ही, काबुल की लोकतांत्रिक सरकार को भी सक्षम बनाने की नीति जारी रखनी होगी.

Next Article

Exit mobile version