नेपाल का जनादेश

राजतंत्र से लोकतंत्र की तरफ करवट लेने में नेपाल को लगभग एक दशक का समय लगा और संक्रमण की इस अवधि में हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. सितंबर, 2015 में वहां संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य स्थापित हुआ. इस घोषणा के बाद पहली बार हुए चुनाव के नतीजों पर दो बड़ी बातें दांव पर हैं. […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 12, 2017 6:02 AM

राजतंत्र से लोकतंत्र की तरफ करवट लेने में नेपाल को लगभग एक दशक का समय लगा और संक्रमण की इस अवधि में हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. सितंबर, 2015 में वहां संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य स्थापित हुआ. इस घोषणा के बाद पहली बार हुए चुनाव के नतीजों पर दो बड़ी बातें दांव पर हैं.

एक तो यह तय होना है कि बतौर एक लोकतांत्रिक देश नेपाल के भीतर आंतरिक सत्ता-संरचना क्या रूप लेती है, और दूसरे यह कि क्षेत्र में भारत और चीन के बीच चल रही रस्साकशी में नेपाल का रुख क्या होगा? नतीजे वाम गठबंधन के पक्ष में हैं. चूंकि इस खेमे के भीतर केपी ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनिफाइड मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट-सीपीएन यूएमएल) ने प्रचंड की माओवादी पार्टी से ज्यादा सीटें जीती हैं, सो यह करीब तय दिख रहा है कि सत्ता की बागडोर ओली के हाथ में रहेगी. गठबंधन की दोनों पार्टियां एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी बनाने पर भी विचार कर रही हैं.

नयी सरकार के सामने मुख्य चुनौती देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं की जड़ जमाने की होगी. साथ ही, यह भी ध्यान रखना होगा कि विभिन्न राजनीतिक तबके एक बार फिर से आपसी लड़ाई की राह पर न लौट जाएं. नेपाल के संविधान को लेकर अंदरूनी संघर्ष लंबे समय तक चला था और कई मसलों पर मतभेद अब भी बरकरार हैं. मधेशी समुदाय की शिकायत रही है कि संविधान में उनके हक को जान-बूझकर कम किया गया है और इस जुगत से नेपाल की मुख्यधारा की राजनीति में उन्हें अलग-थलग करने की कोशिश की गयी है.

मधेशी समुदाय का प्रतिनिधित्व भी संसद में होगा, लेकिन उसकी मुख्य मांग का समाधान होना अभी शेष है. नयी सरकार के लिए दूसरी बड़ी चुनौती भारत और चीन के साथ अपने संबंधों को परिभाषित करने की होगी. संविधान बनने के बाद भारत ने नेपाल सरकार से मधेशियों को साथ लेकर चलने के लिए कहा, लेकिन इस सलाह की अनदेखी करके ओली ने प्रचंड के समर्थन से सरकार बनायी और मधेशी आंदोलन को भारत-प्रेरित करार दिया. भारत के कहने पर प्रचंड ने ओली सरकार से समर्थन वापस लेकर नेपाली कांग्रेस से रिश्ता जोड़ा था. हालांकि, प्रचंड को चीन की सलाह ओली के साथ रहने की थी. ओली का रुख अब तक चीन समर्थक रहा है. उन्होंने अपने चुनाव प्रचार में चीन के रेल नेटवर्क का विस्तार नेपाल में करने की बात कही है.

अनेक पर्यवेक्षक नेपाली चुनाव को भारत और चीन के बीच ताकत की आजमाईश के रूप में भी देख रहे हैं. ऐसे में भारतीय और चीनी कूटनीति के लिए भी यह एक परीक्षा की घड़ी है. इस प्रक्रिया के परिणामों का दक्षिणी एशिया की आर्थिकी और राजनीति पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ सकता है. बहरहाल, अभी तो नयी सरकार की नीतिगत राह के स्पष्ट होने की प्रतीक्षा है.

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