बदलती पहाड़ी आबो-हवा

मुकुल श्रीवास्तव टिप्पणीकार पिछली गर्मियों में टिहरी की यात्रा पर था- मकसद उस डूबे शहर को देखना, जिसके ऊपर अब भारत का सबसे बड़ा बांध बना दिया गया है. जहां कभी टिहरी शहर था, वहां अब बयालीस किलोमीटर के दायरे में फैली झील है, जिसमें तरह–तरह के वाटर स्पोर्ट्स की सुविधा भी उपलब्ध है. गर्मियों […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 5, 2017 6:54 AM

मुकुल श्रीवास्तव

टिप्पणीकार

पिछली गर्मियों में टिहरी की यात्रा पर था- मकसद उस डूबे शहर को देखना, जिसके ऊपर अब भारत का सबसे बड़ा बांध बना दिया गया है. जहां कभी टिहरी शहर था, वहां अब बयालीस किलोमीटर के दायरे में फैली झील है, जिसमें तरह–तरह के वाटर स्पोर्ट्स की सुविधा भी उपलब्ध है.

गर्मियों में जब बांध का पानी थोड़ा कम हो जाता है, तो करीब दो सौ साल तक आबाद रहे टिहरी शहर के कुछ हिस्से दिखते हैं. कुछ सूखे हुए पुराने पेड़ और टिहरी के राजमहल के खंडहर. एक पूरा भरा पूरा शहर डूबा दिया गया, जो कालखंड के विभिन्न हिस्सों में बसा और फला फूला और उसके लगभग पंद्रह किलोमीटर आगे फिर पहाड़ काटे गये एक नया शहर बसाने के लिए, जिसे अब नयी टिहरी के नाम से जाना जाता है. ये सब क्यों किया गया? विकास के नाम पर.

बिजली के लिए हमें बांधों की जरूरत है. वैसे उत्तराखंड की राजधानी देहरादून, जो टिहरी से लगभग एक सौ बीस किलोमीटर दूर है, वहां अभी भी अक्सर बिजली गुल हो जाती है, जबकि टिहरी बांध को चालू हुए दस वर्ष बीत चुके हैं. मुझे बताया गया कि टिहरी में बननेवाली बिजली का बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को जाता है, जहां इस प्रकार की बहुमंजिला इमारतें हैं, जहां दिन में रोशनी के लिए भी बिजली की जरूरत

पड़ती है.

असल में यही विकास है कि पहले जंगल काटो, फिर वहां एक इमारत बनाओ, जहां दिन में रोशनी के लिए बिजली चाहिए. कमरे हवादार मत बनाओ और उसको आरामदेह बनाने के लिए एसी लगाओ और इस सारी प्रक्रिया को हमने विकास का नाम दिया है.

खैर टिहरी के आधे डूबे हुए राजमहल को देखते हुए मेरे मन में यही सब सवाल उठ रहे थे, क्योंकि जल-जंगल-जमीन की बात करनेवाले विकास विरोधी समझे जाते हैं. मैं टिहरी उत्तर भारत की चिलचिलाती गर्मी से बचने के लिए आया था, पर मेरे गेस्ट हाउस में एसी लगा हुआ, मैं रात में प्राकृतिक हवा की चाह में भ्रमण पर निकल पड़ा रात के स्याह अंधेरे में दूर पहाड़ों पर आग की लपटें दिख रही थीं.

जंगलों में आग लगी है साहब जी, मेरी तंद्रा को तोड़ती हुई आवाज गेस्ट हाउस के चौकीदार की थी. कैसे? अब गर्मी ज्यादा पड़ने लग गयी है, बारिश देर से होती है, इसलिए सूखे पेड़ हवा की रगड़ से खुद जल पड़ते हैं.

वैसे कभी–कभी पुरानी घास को हटाने के लिए लोग खुद भी आग लगा देते हैं और हवा से आग बेकाबू हो जाती है, तो पहाड़ जल उठते हैं. मेरी एक तरफ जंगलों में लगी आग थी, जिससे पहाड़ चमक रहे थे और दूसरी तरफ टिहरी बांध की बिजली से जगमगाता नया टिहरी शहर विकास की आग में दमक रहा था, मैं अपने कमरे में थोड़ी ठंड की चाह में लौट रहा था- जहां एसी लगा था.

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