आपने कितने गड़े मुर्दे उखाड़े?

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार अपने यहां लोगों को गड़े मुर्दे उखाड़ने का बड़ा शौक है. अपना यह शौक पूरा करने के चक्कर में वे यह भी खयाल नहीं रखते कि जिस अदद गड़े मुर्दे को वे उखाड़ रहे हैं, वह उखाड़ने लायक भी है या नहीं? अव्वल तो हमारे यहां मुर्दों को ठोक-पीटकर मुश्किल से […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 1, 2017 6:12 AM

सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

अपने यहां लोगों को गड़े मुर्दे उखाड़ने का बड़ा शौक है. अपना यह शौक पूरा करने के चक्कर में वे यह भी खयाल नहीं रखते कि जिस अदद गड़े मुर्दे को वे उखाड़ रहे हैं, वह उखाड़ने लायक भी है या नहीं? अव्वल तो हमारे यहां मुर्दों को ठोक-पीटकर मुश्किल से गाड़ा जाता है और लोग हैं कि उन्हें फिर से उखाड़ने में लग जाते हैं. गड़े मुर्दे उखाड़कर जो चटखारे वे लेते हैं, उसकी कीमत दूसरों को चुकानी पड़ती है. कई बार तो ये उखाड़े गये मुर्दे पूरा जनजीवन ही बिगाड़कर रख देते हैं.

राजनेताओं और उनमें भी सत्ता पर काबिज दल के नेताओं को तो गड़े मुर्दे उखाड़ने का खास शगल ही होता है. इस सरकार में तो यह शौक इतना फला-फूला है कि कला की ऊंचाई प्राप्त कर गया है.

पहले नेताजी बोस की मृत्यु के गड़े मुर्दे उखाड़े गये, फिर नेहरू-गांधी के ‘कर्मों’ के. और तो और, इतिहास और पुराणों से भी नायाब गड़े मुर्दे उखाड़कर लाये जा रहे हैं. राजनीति अब विरोधियों के गड़े मुर्दे उखाड़ने और अपने कुकर्मों के मुर्दे दफन करने की कब्रगाह ही बन गयी है.

प्रजातंत्र की गाड़ी गड़े मुर्दे उखाड़ने के बल पर ही आगे बढ़ रही है. देश-प्रदेश में कोई दंगा-फसाद होता है, तो कुछ दिन रो-पीटकर लोग उसे बुरे सपने की तरह भूल जाते हैं. आज मरे, कल दूसरा दिन. फिर कौन किसके लिए रोता है. जीते-जी इतने रोने-धोने लगे रहते हैं कि मरे हुए के लिए रोने की किसे फुरसत? जिंदा रहते हुए जीवित लोगों के लिए रोना क्या क्या कम है?

लेकिन राजनेता हैं कि गड़े मुर्दे उखाड़ने और उन पर राजनीति करने से बाज नहीं आते. वे समझते हैं कि वे ऐसा नहीं करेंगे, तो जल्दी ही वे खुद मुर्दे बनकर गाड़ दिये जाने की स्थिति में पहुंच जायेंगे. इसी आशंका से वे विरोधियों के कर्मों, कुकर्मों, यहां तक कि सुकर्मों के भी गड़े मुर्दे उखाड़कर उन्हें कुकर्मों की तरह पेश करते रहते हैं. जिन बातों को जनहित और देशहित में भुला दिया जाना चाहिए, उन्हें वे भूलने नहीं देते. फलत: पुराने दंगे-फसादों की फिर से जांच बैठती है, लेकिन निष्कर्ष क्या निकला, इसके बारे में चुप्पी साध ली जाती है. बेचारी जनता दोषियों को सजा मिलने की प्रतीक्षा करती ही रह जाती है.

कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि गड़े मुर्दे उखाड़ने बंद कर दिये जायें, तो दंगे-फसाद यूं ही बंद हो जायेंगे. लेकिन, फिर सियासत कैसे चलेगी? बकौल शायर- अगर कुछ देर के लिए हम लोग लड़ना भूल जाते हैं, तो हमारी इस सियासत को पसीना छूट जाता है.

अत: गड़े मुर्दे उखाड़ने और दफनाने का काम देश की राजनीति और प्रजातंत्र की निरंतरता और सफलता के लिए जरूरी है, जिसे हमारे नेता बखूबी अंजाम दिये चले जा रहे हैं. और अब तो उनकी देखा-देखी जनता ने भी खूब गड़े मुर्दे उखाड़ने शुरू कर दिये हैं. सोशल मीडिया जनता द्वारा उखाड़े जा रहे गड़े मुर्दों से भरा रहता है. आप ही बताइए, आपने कितने गड़े मुर्दे उखाड़े?

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