यथार्थ का सामना करें

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक कहावत है कि कोई गिलास आधा भरा है या आधा खाली, यह आपके नजरिये पर निर्भर है. पर ऐसा लगता है कि आज की चीखती सियासी बहसों ने इसका इस तरह सरलीकरण कर दिया है कि अब उस गिलास को या तो पूरा ही भरा होना है या […]

By Prabhat Khabar Print Desk | November 9, 2017 4:48 AM

पवन के वर्मा

लेखक एवं पूर्व प्रशासक

कहावत है कि कोई गिलास आधा भरा है या आधा खाली, यह आपके नजरिये पर निर्भर है. पर ऐसा लगता है कि आज की चीखती सियासी बहसों ने इसका इस तरह सरलीकरण कर दिया है कि अब उस गिलास को या तो पूरा ही भरा होना है या पूरा खाली. यह सरलता एक विद्रूपता लाती है, जो या तो जोरदार आलोचना की शक्ल लेती है या अनुपयुक्त उल्लास की. इस टिप्पणी का संदर्भ उस हालिया घोषणा का है, जिसके अनुसार कारोबारी सुगमता के क्षेत्र में विश्वबैंक द्वारा निर्धारित वैश्विक सूचकांक में भारत ने 30 पायदानों की छलांग लगायी है. इसका स्वागत होना चाहिए. मगर, साथ ही यह सत्य भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि इसी सूचकांक के अन्य अत्यंत अहम सूचकों पर भारत अब भी अत्यंत पिछड़ा है.

मसलन, हमने दिवालियेपन के समाधान, ऑनलाइन कर भुगतान की सुगमता तथा अल्पसंख्यक निवेशकों की सुरक्षा जैसे सूचकों पर प्रगति की है. पर, कारोबारी शुरुआत में 190 देशों की इस सूची में हम 156वें पायदान पर हैं. इसी तरह, संविदाओं के प्रवर्तन में हमारी जगह 164, निर्माण अनुमति हासिल करने में 181 और संपत्ति के निबंधन में 154वीं श्रेणियों पर ही है.

महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि विश्वबैंक की यह रिपोर्ट स्वयं ही उपर्युक्त बदहाली को रेखांकित करती है कि भारत कई अहम क्षेत्रों में पिछड़ा है. इनमें से कुछ में तो हम वस्तुतः पहले से भी नीचे आ गिरे हैं. यह रिपोर्ट संविदा प्रवर्तन के क्षेत्र का जिक्र करती है, जिसमें 15 वर्षों पूर्व जहां औसतन 1420 दिन लगा करते थे, वहीं अब 1445 दिन लग जाते हैं. रिपोर्ट यह भी बताती है कि कोई कारोबार आरंभ करने में आवश्यक प्रक्रियाओं की संख्या अब भी बहुत जटिल है.

यह देखना भी अहम होगा कि हमारी अर्थव्यवस्था की सेहत के संबंध में अन्य अंतरराष्ट्रीय आकलन क्या कहते हैं. इसी साल 12 अक्तूबर को आयी वैश्विक भूख सूचकांक की रिपोर्ट ने यह बताया कि 119 देशों के बीच भारत अब 45 पायदान नीचे खिसक 100वें स्थान पर स्थित है. अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान द्वारा विकसित यह एक बहुआयामीय सूचकांक है. यह किसी देश में कुपोषण-ग्रस्त लोगों के अनुपात, पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में वृद्धि-अवरुद्धता, वजन-अवरुद्धता तथा उनकी मृत्यु दर के आंकड़ों पर आधारित होता है.

जब उक्त रिपोर्ट जारी हुई, तो सरकार ने यह दलील देने की कोशिश की थी कि इस सूची में हमारी 100वीं स्थिति की वजह यह है कि इसमें कई नये देशों को शामिल किया गया है. मैं समझता हूं कि यह तर्क टिकने योग्य नही है, क्योंकि सर्वेक्षित देशों की संख्या से परे एक निर्विवाद तथ्य यह है कि इस सांख्यिकीय सूचकांक (जहां 20 से ऊपर की कोई भी संख्या भूख की गंभीर स्थिति बताती है) पर हमारी स्थिति 2016 के 28.5 से गिरकर 2017 में 31.4 पर पहुंच गयी है.

इसी तरह, इस वर्ष मई में जारी की गयी मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट ने भी यह बताया कि 188 देशों की इस सूची में पिछले एक साल के अंदर हम 130 से 131वें स्थान पर पहुंच कर कांगो, नामीबिया एवं पाकिस्तान के साथ हो लिये हैं, जबकि हमारे ही पड़ोसी श्रीलंका तथा मालदीव्स हमसे काफी ऊपर हैं. विश्व आर्थिक मंच द्वारा भी इसी वर्ष जारी वैश्विक लैंगिक असमानता सूचकांक रिपोर्ट में भारत 21 स्थान नीचे फिसलकर 144 देशों में 108वें पायदान पर पहुंच चुका है.

प्रश्न यह है कि यदि समग्र कारोबारी सुगमता में सुधार आने के बावजूद देश कई सारे क्षेत्रों में अब भी संतोषजनक स्थिति से काफी दूर है, यदि रातों में और अधिक लोग भूखे पेट सोने को विवश हैं और बुनियादी स्वास्थ्य तथा शैक्षिक सुविधाओं में और भी गिरावट आयी है, तो यह स्थिति उल्लास की वजह होनी चाहिए अथवा आत्मावलोकन की?

जिस देश में अत्यंत दरिद्रों, निरक्षरों तथा कुपोषित बच्चों की वैश्विक स्तर पर सर्वाधिक बड़ी आबादी निवास करती है, उसे अपने लिए आर्थिक विकास के निरपेक्ष अर्थ में अहम होने के बाद भी यह तो सुनिश्चित करना ही चाहिए कि इस विकास के फल भी गरीबों के बीच अत्यधिक गरीबों की दहलीज तक पहुंच सकें. यही न्याय के साथ विकास है, जो हमेशा से जदयू तथा नीतीश कुमार की नीति रहा है.

प्रधानमंत्री एवं सरकार को मेरी सलाह यह होगी कि विश्वबैंक की रिपोर्ट पर अत्यधिक उल्लसित न होकर, उसकी आंशिक सराहना का स्वागत करते हुए यह गौर करें कि अागे क्या करने की जरूरत है, ताकि हमारी अर्थव्यवस्था अधिक सक्षम तथा समावेशी बन सके. सरकार को यह याद रखना चाहिए कि विश्वबैंक की रिपोर्ट जीएसटी के फलस्वरूप, खासकर लघु तथा माध्यम कारोबारों द्वारा महसूस की जा रही कठिनाइयों पर विचार नहीं करती.

इसी तरह, यह नोटबंदी के नतीजतन लगातार जारी आर्थिक अस्तव्यस्तता पर भी गौर नहीं करती, जो एक नेकनीयत कदम होते हुए भी एक ‘बड़ी प्रबंधन विफलता’ थी.

जहां लघु कारोबार बंद हो रहे या संघर्षरत हैं, जहां किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं जारी हैं, जहां निजी निवेश उचित से कम हैं और रोजगार पाना कठिन है, वहां परिपक्व प्रतिक्रिया यह होगी कि हम विश्वबैंक का धन्यवाद करते हुए उन बड़ी आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों के प्रति यथार्थवाद तथा संतुलन का बोध कायम रखें, जिन पर पार पाना अभी बाकी है.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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