प्राइवेसी का पिटारा
मुकुल श्रीवास्तव टिप्पणीकार वर्तमान समय में फेसबुक ने और कुछ किया हो या नहीं किया हो, लेकिन इसने हमारी जिंदगी को एक मेगा इवेंट में जरूर बदल दिया है. मिलना, बिछुड़ना, चलना, रूठना, मनाना, रोना, खोना और पाना आदि-आदि न जाने क्या-क्या बस फेसबुक के जरिये सबकुछ लोगों को पता चलना चाहिए. जैसे-जैसे सोशल मीडिया […]
मुकुल श्रीवास्तव
टिप्पणीकार
वर्तमान समय में फेसबुक ने और कुछ किया हो या नहीं किया हो, लेकिन इसने हमारी जिंदगी को एक मेगा इवेंट में जरूर बदल दिया है. मिलना, बिछुड़ना, चलना, रूठना, मनाना, रोना, खोना और पाना आदि-आदि न जाने क्या-क्या बस फेसबुक के जरिये सबकुछ लोगों को पता चलना चाहिए.
जैसे-जैसे सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे ही तेजी से निजता के अधिकार की सुरक्षा की मांग भी बढ़ती जा रही है. विचित्र दौर है, जब हम खुद चाहते हैं कि लोग हमारे बारे में जानें, हम क्या खाते हैं, कौन हमारे खास दोस्त हैं और हम कब क्या कर रहे हैं, या कहां जा रहे हैं.
यह आत्ममुग्धता का महान दौर है, जब एक ही वक्त में दो परिस्थितियां आमने-सामने हैं. किसी का जन्मदिन है तो फेसबुक आपको याद दिला दे रहा है और हम भी जन्मदिन की शुभकामनाएं लिखकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ले रहे हैं.
किसी घर में किसी की मौत हुई, उसने मृतक की तस्वीर लगायी और शुरू हो गया रेस्ट इन पीस (आरआइपी) का सिलसिला, मानो किसी अपने को ढांढस बंधाने के लिए ये चंद शब्द काफी हों और इससे मानवता का हक अदा हो गया. सब कुछ इतना तकनीकी और व्यवस्थित होता जा रहा है कि मानो होड़ लगी हो कि जिंदगी के सरप्राइज एलीमेंट को खत्म करके ही दम लिया जायेगा.
इस परिस्थिति को अगर गलत और सही के नजरिये से नहीं देखा जाये, तो बस यह समझा जाये कि हम सूचना तकनीक के इस युग में कितने प्रत्याशित होते जा रहे हैं. सब कुछ कितना मशीनी होता जा रहा है.
सोशल मीडिया सूचनाओं के आदान-प्रदान और वैचारिक विमर्श के लिए एक क्रांतिकारी तकनीक है, पर जिंदगी के कठिन मसले आपसी लड़ाई-झगड़े के लिए तो यह जगह बिलकुल भी ठीक नहीं, क्योंकि अपनी निजता को बचाकर रखने में हमारी भी कोई जिम्मेदारी बनती है.
मेरे एक मित्र ने शादी से पहले स्टेटस अपडेट किया- इन रिलेशनशिप विद… इसके बाद तो समाज के तरह-तरह के सवालों से बचने के लिए अपने सारे पुराने स्टेटस हटाने पड़े. उस लड़की की क्या स्थिति हुई होगी, इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है. डिजिटल दोस्ती और दुश्मनी दोनों हमें एक व्यक्ति के तौर पर हल्का बना रहे हैं, वहीं वर्चुअल संबंध पारस्परिक मेल-मिलाप के अभाव में औपचारिकताओं के मोहताज बनकर रह जा रहे हैं.
जिंदगी जीने का असली मजा तो तभी है, जब आपके पास दो-चार ऐसे लोग हों, जिनसे आप बगैर फोन किये कभी भी मिल सकते हों या अगर आप फेसबुक पर अपने मित्र को शुभकामना न भी दें, तो भी संबंधों पर कोई असर न पड़ता हो. क्योंकि, रिश्ते सोशल मीडिया के मोहताज नहीं होते हैं. फिर वह संबंध ही क्या, जिसका आपको ढिंढोरा पीटना पड़े. और यही प्राइवेसी है, जो मेरे हैं, वे मेरे ही रहेंगे.