त्वरित सुनवाई हो

भ्रष्टाचार व अपराध से ग्रस्त राजनीति और चुनावी अनियमितताओं जैसी गंभीर समस्याएं तमाम कायदों और कवायदों के बावजूद लोकतांत्रिक व्यवस्था से खत्म नहीं हो सकी हैं. सुधार और पारदर्शिता की पहलें होती रहीं और इनके बरक्स राजनीति तंत्र का अपराधीकरण भी होता रहा. शायद ही देश में ऐसा कोई राजनीतिक दल है, जिसके अनेक जनप्रतिनिधियों […]

By Prabhat Khabar Print Desk | November 3, 2017 6:50 AM
भ्रष्टाचार व अपराध से ग्रस्त राजनीति और चुनावी अनियमितताओं जैसी गंभीर समस्याएं तमाम कायदों और कवायदों के बावजूद लोकतांत्रिक व्यवस्था से खत्म नहीं हो सकी हैं. सुधार और पारदर्शिता की पहलें होती रहीं और इनके बरक्स राजनीति तंत्र का अपराधीकरण भी होता रहा.
शायद ही देश में ऐसा कोई राजनीतिक दल है, जिसके अनेक जनप्रतिनिधियों पर संगीन अपराधों के आरोप न हों. वर्ष 2014 के चुनाव में दाखिल हलफनामों में जनप्रतिनिधियों पर 1581 आपराधिक मामलों लंबित थे, जिनमें लोकसभा के 543 सदस्यों में से 184 (33 फीसदी), 231 राज्यसभा सांसदों में से 44 (19 फीसदी) और 4078 विधायकों में से 1353 (33 फीसदी) पर आपराधिक मामले थे. मार्च, 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को एक वर्ष के भीतर जन-प्रतिनिधियों पर चल रहे मामलों को निपटाने का आदेश दिया था. अब एक खंडपीठ ने केंद्र सरकार से 13 दिसंबर तक 1581 आपराधिक मामलों पर कार्रवाई की रिपोर्ट तलब की है. शीर्ष न्यायालय का यह आदेश बड़ी उम्मीद जगानेवाला है. हालांकि, दाखिल याचिका में दोषी राजनेताओं को आजीवन चुनाव लड़ने से रोकने जैसी मांगें भी हैं, लेकिन अनुच्छेद 14 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की विस्तृत व्याख्या के बाद ही ऐसे प्रावधान के अमल का रास्ता साफ हो सकेगा.
चुनाव आयोग और विधि आयोग दोषी नेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध के लिए सिफारिश पहले कर चुके हैं. आपराधिक मामलों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन से न केवल आरोपित नेताओं की सक्रियता पर लगाम लगेगी, बल्कि गलत आरोपों से घिरे नेताओं को भी जल्दी न्याय मिल सकेगा. मामलों को अरसों तक ढोनेवाली हमारी न्याय व्यवस्था का सबसे ज्यादा फायदा आरोपित नेता उठाते हैं. जब तक मामले नतीजे की दहलीज पर पहुंचते हैं, तब तक ऐसे नेता कैरियर का लंबा अरसा गुजार चुके होते हैं.
दुर्भाग्य से विचारधारा, कार्यक्रमों और नीतिगत मुद्दों समेत भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मसलों पर ज्यादातर दल उदासीन हैं. सत्ता ही दलों के बीच एकमात्र अंतर रह जाना बड़े अफसोस की बात है. पारदर्शिता पर लंबी उदासीनता के बाद लोकपाल व लोकायुक्त विधेयक, 2013 अस्तित्व में आया, लेकिन चार वर्ष बाद भी न तो नियुक्ति पायी है और न ही कोई ठोस पहल. व्यवस्थागत पारदर्शिता का अभाव ही भ्रष्टाचार की जड़ों को मजबूत कर रहा है.
ऐसे में जरूरी है कि राजनीति में अपराधियों के आने से रोकने और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए सभी दल मजबूत इच्छाशक्ति के साथ आगे आयें. निहित स्वार्थ की लालसा रखनेवाले न तो जनहित के बारे में सोच सकते हैं और न ही ईमानदार प्रतिनिधि बन सकते हैं. स्वस्थ जनतंत्र के लिए जनप्रतिनिधियों को जिम्मेदार होना ही होगा. इसके लिए सभी संबद्ध पक्षों को बदलाव की कोशिश करनी होगी तथा नागरिकों को भी अपनी ओर से दबाव बनाये रखना होगा.

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