अर्थव्यवस्था पर मुस्तैदी जरूरी

डॉ अवनींद्र ठाकुर अर्थशास्त्री पिछले कुछ समय से भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में आये कई आंकड़ों ने वर्तमान सरकार की कई नीतियों की सफलता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है. उदाहरण के तौर पर देश की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर में कमी, सरकारी एवं निजी क्षेत्र में रोजगार की कमी, औद्योगिक विकास […]

By Prabhat Khabar Print Desk | October 17, 2017 7:23 AM
डॉ अवनींद्र ठाकुर
अर्थशास्त्री
पिछले कुछ समय से भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में आये कई आंकड़ों ने वर्तमान सरकार की कई नीतियों की सफलता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है. उदाहरण के तौर पर देश की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर में कमी, सरकारी एवं निजी क्षेत्र में रोजगार की कमी, औद्योगिक विकास की चिंताजनक स्थिति इत्यादि कुछ आंकड़े हैं, जो सरकार के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है.
इस परिप्रेक्ष्य में जहां एक ओर सरकार की तरफ से लगातार नीतियों को तर्कसंगत एवं दूरगामी सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी है, वहीं गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि देश की अर्थव्यवस्था के बारे में जो लोग भी नकारात्मक बातें करते हैं, वे राष्ट्रविरोधी प्रवृत्ति के लोग हैं, क्योंकि देश इस सरकार के नेतृत्व में बड़े ही ठोस स्तर पर आर्थिक विकास की ओर अग्रसर है.
कभी-कभी कुछ नकारात्मक प्रभाव को बाहरी प्रभाव या चुनौतियों के रूप में प्रकट करने की कोशिशें भी कई स्तर पर की गयी हैं. हाल ही में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अमेरिका की मौद्रिक नीति को भी कई समस्याओं की जड़ बताया था.
इस संदर्भ में सरकार के लिए अभी हाल में ही आये औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (इंडेक्स ऑफ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन) के आंकड़े काफी मायने रखते हैं. नये आंकड़े सरकार के लिए दो स्तर पर राहत प्रदान करते नजर आ रहे हैं.
एक ओर जहां औद्योगिक उत्पादन सूचकांक पिछले नौ महीने में सबसे ज्यादा 4.3 प्रतिशत के स्तर को पार करता नजर आ रहा है, वहीं मुद्रास्फीति की दर सितंबर माह में भी लगभग 3.5 प्रतिशत पर स्थिर दिखायी गयी है.
जून माह में ऋणात्मक तथा जुलाई में एक प्रतिशत से भी कम रहने की चिंताजनक स्थिति से 4.3 प्रतिशत के स्तर पर पहुंचना निश्चित तौर पर सरकार के लिए एक खुशखबरी ही है. और साथ ही, इसे सरकार की ओर से अर्थव्यवस्था में उभार के संकेत के रूप में भी देखा जाना लाजमी है.
लेकिन, इस आंकड़े पर इतनी जिम्मेदारी देना भी कई स्तर पर तर्कसंगत नहीं नजर आता है. पहली बात तो यह है कि अगस्त में मैन्युफैक्चरिंग (विनिर्माण) के ही 13 सब-सेक्टर, जिनकी हिस्सेदारी 27 प्रतिशत से भी ज्यादा है, में संकुचन दर्शाया गया है. इसमें मुख्य रूप से कपड़ा, प्लास्टिक, चमड़ा इत्यादि उद्योग हैं, जिनमें मजदूरों की संख्या काफी अधिक होती है. इसके अलावा पूरे मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, जिसका भाग 77 प्रतिशत से भी अधिक है, में सिर्फ तीन प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी है.
सीमेंट उद्योग में संकुचन एक तरह से कंस्ट्रक्शन के भविष्य में विस्तार पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है. व्यावसायिक वाहनों के क्षेत्र में गिरावट आदि भी व्यवसाय के विस्तार की संभावनाओं की कमी को सूचित करता है. इस तरह से सिर्फ अगस्त माह में कुछ औद्योगिक क्षेत्रों में वृद्धि दर के आधार पर दीर्घकालिक विश्लेषण तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता है.
दूसरी बात यह है कि नोटबंदी के कारण कई छोटे-छोटे उद्योगों का उत्पादन एवं आपूर्ति बाधित हो गयी थी.इसके फलस्वरूप अगर पुनर्मुद्रीकरण के बाद तथा त्योहारों के समय में निजी मांगों में विस्तार होता भी है, तो देश के कुटीर एवं लघु उद्योगों के लिए इन मांगों की पूर्ति कर पाना संभव नहीं दिख रहा है. इसके परिणामस्वरूप, इन वस्तुओं के आयात में वृद्धि होना स्वाभाविक ही है.
अगर पिछले कुछ महीनों में आयात की वृद्धि दर को देखा जाये, तो इसमें तेल के अलावा अन्य आयातों में 20 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि इसका द्योतक है. इसके अलावा जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर प्रणाली) के लागू होने के बाद सरकार के द्वारा पुरानी वस्तुओं की बिक्री संबंधित कई छूट भी दिये गये हैं. इसलिए इंडेक्स ऑफ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन की वृद्धि दर के पीछे पुरानी इंवेंटरी के बाजार में निकालने का भी योगदान नजर आता है.
और अगर छोटे एवं लघु उद्योग, खासकर असंगठित क्षेत्र, में जीएसटी के अनुसार अपने उत्पादन एवं बिक्री को संपादित नहीं कर पाते हैं, तो आगे भी इन उद्योगों की वृद्धि की संभावनाओं पर आशंका के बादल मंडरा सकते हैं. जीडीपी की वृद्धि दर में कमी भी आनेवाले समय में मांग की कमी की संभावना पैदा करती है, जो उद्योगों के विकास एवं विस्तार के लिए एक चुनौती के रूप में सामने आ सकता है.
इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस उछाल के पीछे मुख्य रूप से कोयला, बिजली एवं ऑटोमोबाइल क्षेत्र का योगदान है, जिसकी मांग एवं पूर्ति का हिसाब-किताब महीने-दर-महीने बदलता रहता है. और, त्योहारों के समय के इनकी मांग में बढ़ोतरी भी उम्मीद के परे नहीं है. इसलिए अगस्त के महीने में आये इंडेक्स ऑफ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन में वृद्धि के क्षणिक होने की संभावना भी काफी अधिक है.
मुख्य रूप से एक महीने के उतार-चढ़ाव को देखकर यह अनुमान लगाना कि देश की अर्थव्यवस्था वापस उछल कर उसी वृद्धि दर को प्राप्त कर लेगी एवं पिछले कुछ समय से अर्थव्यवस्था की कई चुनौतियों, जैसे कि रोजगार के अवसर में विस्तार, उद्योग में सतत विस्तार, निर्यात में विस्तार इत्यादि को प्राप्त करने की ओर देश तेजी से आगे बढ़ने लगा है, एेसा निष्कर्ष निकालना सरकार के लिए सुविधाजनक तो हो सकता है, लेकिन तर्कसंगत कतई नहीं.
इसलिए अभी अगले कुछ आंकड़ों के आने के बाद ही इस संदर्भ में कुछ निश्चित तौर पर कहा जा सकता है. अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी ही होगी.
बहरहाल, सरकार एवं संबंधित संस्थाओं को मौजूदा चुनौतियों का गंभीरता से मूल्यांकन कर कठिनाइयों को दूर करने के लिए ठोस नीतिगत पहल की ओर बढ़ना चाहिए. इस संबंध में किसी भी तरह की लापरवाही या भ्रम अर्थव्यवस्था के लिए अल्पकालिक और दीर्घकालिक तौर पर नुकसानदेह होगा.

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