महिला सशक्तीकरण की गुत्थी

मृणाल पांडे वरिष्ठ पत्रकार महिलाओं की सिर्फ संख्यापरक और वोटबैंक आधारों पर ही नहीं, लिंगगत आधार पर भी जमीनी तौर से इज्जत की जाये, और घर-बाहर उनको पुरुषों की समतुल्यता भी मिले, इस पर हमारे पिछले 70 बरसों के लोकतांत्रिक राज-समाज का चिंतन और चाल-चलन दोहरा रहा है. सत्तर के दशक के बाद महिला सशक्तीकरण […]

By Prabhat Khabar Print Desk | September 29, 2017 7:12 AM

मृणाल पांडे

वरिष्ठ पत्रकार

महिलाओं की सिर्फ संख्यापरक और वोटबैंक आधारों पर ही नहीं, लिंगगत आधार पर भी जमीनी तौर से इज्जत की जाये, और घर-बाहर उनको पुरुषों की समतुल्यता भी मिले, इस पर हमारे पिछले 70 बरसों के लोकतांत्रिक राज-समाज का चिंतन और चाल-चलन दोहरा रहा है.

सत्तर के दशक के बाद महिला सशक्तीकरण का मुद्दा गंभीरता से उठाया गया. उसकी वजह से हमारे लोकतंत्र की मुख्यधारा के समाज, खासकर प्रबुद्ध महिलाओं ने लगातार महिलाओं के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर रोजगार क्षेत्र और विधायिका तक हर कहीं बड़े सुधारों के लिए दबाव बनाया. इस दबाव से आगे हर सरकार में महिलाओं के हित से जुड़े तमाम कानूनों में लगातार कुछ-न-कुछ सुधार तथा ग्राम-स्तर पर पंचायती राज में महिलाओं को भी आरक्षण से सुनिश्चित किया गया.

पर उनको लागू करवानेवाली संस्थागत मशीनरी या समाज के रुख में बुनियादी बदलाव लाने के सवाल पर हर जगह पुरुषनीत और पुरुष रक्षित राज-समाज और उनके संस्थान औरतों के प्रति खुले असहयोग या छुपे उपहास का रुख बनाये रहे. नतीज, महिलाओं-बच्चियों की दशा की बाबत सरकारी आंकड़ों के धरातल पर घर-बाहर, स्वास्थ्य, सुरक्षा और कार्यक्षेत्र, हर कहीं से मान्य पैमानों पर चिंताजनक सूचकांक निकलकर आ रहे हैं.

वर्ष 1990 के बाद आर्थिक उदारीकरण के माहौल में स्पर्धा बढ़ी, और रोजगार बाजार में उछाल और खुलापन भी आया. औसत आमदनी बढ़ी, तो भी पुरुषों की तुलना में औरतों की पगार कम और काम के घंटे अधिक रहे. 2017 में भारत के 600 जिलों के शोध पर आधारित विश्व बैंक की ताजा रपट (विल मार्केट कंपीटिशन ट्रंप जेंडर डिस्क्रिमिनेशन इन इंडिया?) बता रही है कि भारतीय महिलाएं भले ही पुरुषों जितनी मेहनती और हुनरमंद हों, पुरुषों की तुलना में हर कहीं उनको कम वेतनमानों पर ही (पुरुषों के मुकाबले) काम मिल पाता है.

इस बाबत उनके परिवारों का रुख अभी अनुदार ही दिखा है. यानी उनकी कमाई पर हक जतानेवाले तो कई हैं, लेकिन परिवारजन घर-गृहस्थी, बच्चे पालने जैसे काम अब भी महिला कामगारों के ही हवाले कर देते हैं. पढ़नेवाली बेटियों के साथ भी गांव-कस्बों के घरों में लिंगगत भेदभाव नहीं मिटा है, इसलिए उनको शिक्षा, पोषाहार और स्कूल आने-जाने के मामले में पूरी तरह पराधीन और तरह-तरह की वर्जनाओं से जकड़कर रखा जाता है.

व्यापार जगत तथा उद्योग धंधों में फैलाव के बाद भी महानगरीय दफ्तरों फैक्टरियों की बेहतर वेतनमान वाली संगठित क्षेत्र की नौकरियों में चयनकर्ताओं की मानसिकता खास बदली नहीं. जरूरतमंद हुनरमंद अनुभवी महिलाओं की भी संगठित क्षेत्र से (नोटबंदी के बाद) मंदी के कारण लगातार छंटनी हो रही है और वे आज पहले से कहीं बड़ी तादाद में असंगठित क्षेत्र में न्यूनतम से भी कम वेतन पर काम करने को मजबूर हैं. साथ ही उन्हें स्वास्थ्य कल्याण या बीमा सुविधाएं भी नहीं मिलतीं.

मैन्युफैक्चरिंग तथा सेवा क्षेत्र में महिलाएं बड़ी तादाद में हैं. अच्छी कमाई देनेवाले उत्पादन जैसे कंप्यूटर, मोटरगाड़ी, हल्की या भारी मशीनरी और धातु से जुड़े कामों में महिलाओं की भागीदारी 2 प्रतिशत से कम है.

सेवा क्षेत्र में महिलाओं की अच्छी भागीदारी कम पगारवाली सफाई और शिक्षा की शाखाओं में 30 प्रतिशत है. पर ऊंची तनख्वाह देनेवाले शोध और विकास, थल या जल परिवहन सरीखी शाखाओं में उनकी मौजूदगी करीब एक प्रतिशत है. महिलाओं को बेहतर रोजगार दिलवाने में रिहायशी इलाका कितना बड़ा या अमीर है, यह उतना मददगार नहीं होता, जितना कि वहां उपलब्ध सार्वजनिक सुविधाएं : बिजली-पानी-सड़क और बैंक लोन पाने की प्रक्रियाओं का उनकी पहुंच के भीतर होना.

सार्वजनिक क्षेत्र में मौजूद बुनियादी ढांचे तथा सुरक्षा की चाक-चौबंद व्यवस्था महिलाओं को काम के लिए बाहर निकलने की हिम्मत देती है. दक्षिण भारत इसका जीवंत उदाहरण है. उत्तर भारत में छोटी-मोटी यूनिट की मालकिनें बनने का सपना देखनेवाली सक्षम किंतु गरीब महिलाएं जहां बड़े (प्राय: पुरुष) उपक्रमियों की तरह अपने छोटे से बजट की तहत बिजली-पानी या आवाजाही का निजी जुगाड़ नहीं बिठा पाने से हतोत्साहित ही रहती हैं.

आम धारणा के विपरीत आज की औसत कामगर महिला घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी से न बचती है, न बचना चाहती है. जन्मना कठोर जमीनी सचाइयों से जूझकर निकली हर उपक्रमी महिला स्वप्नदर्शी नहीं, व्यावहारिक होती है.

बेटों-पतियों की तरह वह काम के मामले में जाति-धर्म या वर्गगत टंटों के संसार से अधिक साबका भी नहीं रखती. वह आगे बढ़ने को उन्हीं राहों का आसरा लेना चाहती है, जिनसे वह समानधर्मा पुरुषों को राज-समाज से ताकत पाते देखती है.

बुजुर्ग महिलाएं भले ही जनसंपर्क करने में कुछ दब्बू हों, लेकिन युवा महिलाएं आगे बढ़कर हुनर सीखने और सीधे बातचीत से राह निकालने को तैयार हैं. वह अब अपना वोट उसी दल को देगी, जो उसे अपनी नीति तथा नीयत में महिलाओं के लिए बेहतर रोजगार के प्रबंधन का पक्षधर होने का भरोसेमंद प्रमाण दे सके.

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