राजनीतिक विकल्प की चुनौती

लालू प्रसाद यादव ने बीते 27 अगस्त को पटना के गांधी मैदान में ‘भाजपा भगाओ-देश बचाओ’ रैली की, जिसका मकसद भाजपा को बिहार और देश की राजनीति से बाहर करने का दम ठोकना था. लेकिन, वास्तव में इस तथाकथित मकसद की पृष्ठभूमि में लालू यादव की योजना कांग्रेस और वामपंथी सहित देश के शीर्ष विपक्षी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | September 8, 2017 8:52 AM

लालू प्रसाद यादव ने बीते 27 अगस्त को पटना के गांधी मैदान में ‘भाजपा भगाओ-देश बचाओ’ रैली की, जिसका मकसद भाजपा को बिहार और देश की राजनीति से बाहर करने का दम ठोकना था. लेकिन, वास्तव में इस तथाकथित मकसद की पृष्ठभूमि में लालू यादव की योजना कांग्रेस और वामपंथी सहित देश के शीर्ष विपक्षी नेताओं की मौजूदगी में अपने दोनों पुत्रों- 28 वर्षीय तेज प्रताप यादव और 27 वर्षीय तेजस्वी यादव को राजनीतिक नेतृत्व के स्तर पर स्थापित करना था. इस रैली के लिए लालू और राष्ट्रीय जनता दल ने लगभग छह महीने पहले से ही रैली में भीड़ जुटाने के लिए तैयारी शुरू कर दी थी. उस वक्त वो जेडीयू और कांग्रेस के गठबंधन में थे.

मीडिया में रैली के एक दिन पूर्व की जो छवि प्रदर्शित हुई, वह किसी भाषाई संस्कृति की अभिव्यक्ति नहीं थी, बल्कि बिहार की स्थानीय संस्कृति का अश्लील प्रदर्शन था. इस तरह के फूहड़ तरीकों का सार्वजनिक प्रदर्शन कर कोई राजनीतिक दल आखिर क्या संदेश देना चाहता है? राजद की इस रैली में थोड़ी-बहुत उत्पन्न हुई अव्यवस्था को छोड़ दें, तो यह पुराने दौर की बदनाम रैलियों में उस कदर शुमार नहीं थी, जब शहर की दुकानों को भी लूट लिया जाता था, पुलिस- प्रशासन भीड़ की धौंस के आगे पस्त नजर आती थी और इनकी आड़ में बड़ी घटनाएं भी सहज हो जाया करती थीं. अबकी बार गांधी मैदान पहुंची राजद समर्थकों की भीड़ के व्यवहार पर सूचना क्रांति और वैश्वीकरण के दौर का स्वाभाविक प्रभाव जाहिर तौर पर दिखा, लेकिन यह प्रभाव उनके नेताओं के आचार- व्यवहार, शैली और भाव-भंगिमा में उतना परिलक्षित नहीं होता है. लिहाजा जो कुछ इस रैली से निकल कर सामने आया, वह तात्कालिक राजनीतिक प्रतिक्रिया ज्यादा है और राजनीतिक स्थायित्व का भाव उसमें गौण है. ऐसे में राजद की यह रैली पार्टी की अंदरूनी राजनीति के संदर्भ में लालूजी का अपने बेटों को नेतृत्व के स्तर पर स्थापित करने के मकसद से भले ही सफल नजर आती है, लेकिन बिहार के राजनीतिक संदर्भ में इसका बहुत मायने नहीं निकलता है.

रैली में तेज प्रताप ने भाजपा और नीतीश कुमार के खिलाफ जंग का ऐलान करते हुए जीत हासिल करने तक नहीं सोने का शपथ लिया, लेकिन जब वो रातोंरात नीतीश कुमार और सुशील मोदी जी के ब्याह की बात कहते हैं, तो राजनीति में जुबानी नैतिकता की मर्यादा तो तोड़ते ही हैं, अश्लील कुंठा का इजहार भी करते हैं. ऐसा लगता है कि लालूजी की राजनीति से उनके परिवार की अगली पीढ़ी बहुत कुछ सीखती नजर नहीं आती है. लालू यादव, राबड़ी देवी, तेज प्रताप और तेजस्वी के रैली में जनता से किये संवाद से ऐसा दिखता है कि बदले चेहरे के साथ राजद में बदलाव की संभावनाएं महज शिगूफा हैं, जो एक बदल दिये गये लिफाफे के भीतर पुराने खत के मजमून सा मालूम पड़ता है.

दिलचस्प है कि लालू की रैली का नाम ‘भाजपा भगाओ- देश बचाओ’ था, लेकिन बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को छोड़कर सभी अपने राज्यों की राजनीति में हाशिये पर चली गयी पार्टियां और उसके नेताओं से रैली की मंच सज्जा भर साबित हुईं. भाजपा के खिलाफ बुलायी गयी इस रैली की विफलता इससे साबित होती है कि इस रैली में बिहार की सत्ता से अलग होने की कुंठा का इजहार करने में सभी मौजूद नेता मशगूल रहे. लालूजी सजायाफ्ता होने के बाद भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रहे हैं, ऐसे में उनका एकमात्र मकसद किसी राजनीतिक विकल्प को लेकर अभियान चलाना कतई नहीं है, बल्कि खुद को बचाना है एवं परिवार को राजनीति में स्थापित करना है, जिसके लिए वो सारी कवायदें कर रहे हैं. लालू की राजनीति का वैचारिक आधार मनोवैज्ञानिक ज्यादा और जमीनी हकीकत की बुनियाद पर खड़ा कम नजर आता है. क्योंकि जिस भयादोहन की मानसिकता से मुसलमान और यादव राजद के पीछे समर्थन में दिखता है, उसका कोई भी आर्थिक और नैतिक कारण नहीं दिखता है.

सामाजिक न्याय की पूरी लड़ाई को भ्रष्टाचार रहित न्याय एवं विकास पर आधारित सुशासन और संस्थागत एवं आर्थिक भागीदारी के माध्यम से एक मुकाम तक पहुंचाने का एक बड़ा मौका लालू यादव ने खोया है. इसका खामियाजा आज सबसे ज्यादा दलित- अति पिछड़े- पिछड़े समाज के लोग और आम किसान-मजदूर-गरीब ही भुगत रहे हैं. ऐसे में बीते हुए कल के जुमले से और निजी कुंठा पर आधारित राजनीति को छद्म मनोविज्ञान पर विचार का मुखौटा लगाकर नया विकल्प कभी तैयार नहीं हो सकता है. तय है कि आज की राजनीति सिर्फ आज की नयी सोच के साथ आज की भाषा में होगी, जिसका बिहार की जनता को इंतजार है. लालूजी की राजनीति बिहार के लिए एक बड़ी सीख भी है और सबक भी है, जिसे शायद बिहार की जनता देख व महसूस कर रही है, जिसका प्रकटीकरण आगामी 2019 के लोकसभा एवं 2020 के विधानसभा चुनावों में हम सभी जरूर देखेंगे.

देवेश कुमार

बिहार भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष

निखिल आनंद

वरिष्ठ पत्रकार

nikhil.anand20@gmail.com

Next Article

Exit mobile version