मौसम के रंग ने उठायी उमंग

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक पावस की पहली फुहारों द्वारा पृथ्वी की प्यास बुझाये जाने पर निःसृत मिट्टी की सोंधी सुरभि जब चाणक्य के नासिका रंध्रों का स्पर्श करती होगी, तो क्या राजनीति तथा राजनीतिक सिद्धांतों के अपने अविराम विवेचन से एक पल का अवकाश ले वे आनंदमग्न न होते होंगे? मुझे तो […]

By Prabhat Khabar Print Desk | July 5, 2017 6:34 AM
पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
पावस की पहली फुहारों द्वारा पृथ्वी की प्यास बुझाये जाने पर निःसृत मिट्टी की सोंधी सुरभि जब चाणक्य के नासिका रंध्रों का स्पर्श करती होगी, तो क्या राजनीति तथा राजनीतिक सिद्धांतों के अपने अविराम विवेचन से एक पल का अवकाश ले वे आनंदमग्न न होते होंगे?
मुझे तो इसका उत्तर सकारात्मक ही प्रतीत होता है, क्योंकि उन सरीखे प्रतिभाशाली व्यक्ति के लिए न तो यह संभव था-और न ही ऐसा होना चाहिए-कि वह बस एकल रुचियुक्त ही हो. शीत से लेकर लघुकालिक वसंत, फिर वर्षाऋतु तक की विस्तृत अवधि और अक्तूबर-नवंबर की हल्की सिहरन भरी रातों के बाद एक बार पुनः ठिठुरते शीत तक उत्तर भारतीय मौसम के बदलते रंग आपके हृदय को उमंग और यादों से पूरित कर देते हैं. ऐसे प्रत्येक वृत्त के पूरा होने के साथ ही प्राकृतिक रंगों की यह छवि निहारने के अद्भुत अवसरों का एक और वर्ष हमारी जीवनावधि से कम जो हो जाता है!
एक ऐसे ही वर्ष की याद मेरे दिल में बसी है, जब मॉनसून पहले तो विलंबित गति से, और फिर सूद समेत आया. मैं तब एक नौकरशाह था और साउथ ब्लॉक स्थित विदेश मंत्रालय के एक कमरे में कैद अपने काम में लगा था. अचानक बाहर अंधेरा सा घिर आया और शीशे पर बड़ी-बड़ी बूंदों की दस्तक पड़ी. मैं अपने निजी सचिव को लिखा रहा एक नोट बीच में ही छोड़ गलियारे की ओर भागा, जहां से पूरे आसमान पर छिटकी छटा सहज ही दृष्टिगत हो रही थी. जब मैं वापस हुआ, तो शायद ही कभी कोई संवाद करनेवाले मेरे शांत और अल्पभाषी सचिव ने मेरी अनुमति ले मुझे बिहारी की ये दो पंक्तियां सुनायीं:
लगे सावन मास बिदेस पिया, मोरे अंग पे बूंद परे सरसी
शठ काम ने जोर कियो सजनी, बंध टूट गये छतिया दरसी
सच कहूं, तो मैं सन्न रह गया. कहां तो मैंने समझ रखा था कि मेरा यह सहयोगी पूरी तरह नीरस कार्यालयी दिनचर्या का कैदी, जीवन के बोझ से दबा, काव्य रस से कोसों दूर, बरसात के जादुई स्पर्श से अनभिज्ञ है, और कहां उसी व्यक्ति का एक और रूप-बिहारी की रससिक्त पंक्तियां किंचित संकोच से मुझे सुनाता तथा वर्षाऋतु की पहली फुहारों के उल्लसित स्वागत में यदि मुझसे अधिक नहीं, तो समान सहयोग करता हुआ!
ग्रीष्म की गहन गरमी के बाद बरसात का आगमन भारत में हमेशा से मुक्ति, राहत और रूमानियत का प्रतीक रहा है.
हमारे लोकगीतों तथा महान काव्य साहित्य का अच्छा खासा हिस्सा वर्षा से संबद्ध है. यह काव्य केवल प्रेम के पूरित होने को ही नहीं, बल्कि प्रियतम के सुदूर रहने पर धुंधलाते आसमान और भीगी हवाओं के परस से जगती विरह वेदना को भी अभिव्यक्ति देता है. पश्चिम में जहां एक सुहाने दिन का प्रोज्ज्वल तथा सूर्यस्नात होना आवश्यक है, वहीं हमारे लिए तो घोर घटाओं से ढंके सूरज के ठीक बाद वर्षा का आसन्न होना ही एक रूमानी दिन का सृजन करता है. पांचवीं सदी में अपने नाट्यकाव्य ‘मेघदूत’ में कालिदास ने ऐसे ही एक मेघखंड को प्रवासी यक्ष का संदेश हिमालय में उसकी पत्नी अलका के पास पहुंचाने वाला वाहक बना अमर कर दिया.
हालिया वक्त में, बरसात की रात का वह हस्ताक्षर गीत, ‘जिंदगी भर नहीं भूलेगी ये बरसात की रात’ स्मृति पटल से भला कौन मिटा सकता है, जब एक भीगी रात स्वर्गिक सौंदर्य की साम्राज्ञी मधुबाला की भेंट भारत भूषण से होती है?
या फिर 1955 की श्री 420 में ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’ की दुहाई देते राज कपूर और नरगिस का चहुंओर फिसलती बरखा बूंदों के बीच एक छाते में सिमट आना भी क्या कभी विस्मृत किया जा सकता है? नयी पीढ़ियों के लिए संभवतः ये फिल्में बहुत पुरानी हो चली हों, जबकि अधिक समकालीन सिनेमा में भी वर्षा गीतों की कोई कमी तो है नहीं. पर बारिश की रूमानियत को श्वेत-श्याम श्रद्धांजलि देते वे सिनेमाई अंदाज, मेरी नजर में तो आज भी अद्वितीय हैं.
मॉनसून चाय और पकौड़े की गरमा-गरम प्यालियों तथा सड़कों के किनारे लगी जुगाड़ू अंगीठियों पर सिंकते भुट्टों का भी मौसम है.यदि मसरूफियतों से फुरसत मिल सके, तो यह चाय की चुस्कियों पर राग मल्हार का लुत्फ लेने का वक्त भी है. जब भी मैं ऐसा करता हूं, अपनी सांगीतिक विरासत पर विस्मित हुए बगैर नहीं रह पाता. संगीत के एक राग का मॉनसून के मिजाज से ऐसा मेल आखिर किस तरह संभव बना होगा? जब मेघाच्छन्न आकाश कालिमामय हो उठे, तो इस राग के विलंबित लय का लुत्फ उठाइए और जब बूंदों की बौछारें शुरू हों, तब द्रुत का आनंद लीजिए. अथवा यदि आप काव्योन्मुख हों, तो शायर कतील शिफाई की इन दो पंक्तियों का मुलाहिजा फरमाइये-
यूं बरसती हैं तसव्वुर में पुरानी यादें
जैसे बरसात में रिमझिम में समां होता है
पर इसी बारिश का एक स्याह पहलू भी है. बार-बार बाढ़ें आया करती हैं. बारिश का आना राहत तो देता है, मगर तमाम परेशानियों का सबब भी बन जाता है. लोग बेघर हो जाते हैं; फसलें नष्ट हो जाती हैं; भूस्खलनों का सामना करना पड़ता है; भरी नदियां कहर बरपाती चलती हैं; जान-माल की अकूत हानि उठानी पड़ती है.
शहरों में सड़कें ही नदियां बन जाती हैं; ट्रैफिक के जामों का घंटों अंत नहीं होता; बिजली के तार छिन्न-भिन्न हो जाते हैं. मसलन, गंगा में गाद के जमाव से उसकी गहराई में कमी आ जाने और नेपाल से निकल यहां आनेवाली नदियों की वजह से बिहार के लिए बाढ़ें जहां सालाना घटनाएं बन गयी हैं, वहीं दक्षिण बिहार द्वारा वृष्टिछाया में पड़ सुखाड़ का प्रकोप झेलने की आशंकाएं भी हमेशा ही बलवती बनी रहती हैं.
मॉनसून के कहर से निबटने के लिए यथाशीघ्र संस्थागत तथा टिकाऊ उपाय करने की जरूरत है.
पर यह अपने साथ चाहे जो भी मुसीबतें लाये, सभी भारतीयों और खासकर किसानों द्वारा इसका बेसब्री से इंतजार तो रहता ही है. सो जब मॉनसून की झड़ी धरा की तृषा बुझाने लगे, तो प्रकृति के इस कमाल को सलाम करें. आज चाणक्य होते, तो वे इससे अवश्य ही सहमत होते कि सियासत भले ही एक सतत व्यस्तता का सबब हो, कविता, संगीत, और गरम चाय-पकौड़े के लिए भी चंद लम्हे निकाल बरसात की संगत तो करनी ही चाहिए.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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