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Friday, March 29, 2024

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तानाशाही और प्रतिरोध का सिनेमा

विश्व सिनेमा पोलैंड के आंद्रे वाजदा का विश्व सिनेमा कर्जदार रहेगा. सिनेमा में असाधारण योगदान के लिए ऑनरेरी ऑस्कर सम्मान प्राप्त वाजदा की आखिरी फिल्म ‘आफ्टर इमेज’ इस मायने में क्लासिक है कि दुनियाभर में सांस्कृतिक तानाशाही के खिलाफ यह मानवीय प्रतिरोध को कलात्मक तरीके से दर्शाती है. पोलैंड के आंद्रे वाजदा (06 मार्च, 1926- […]

विश्व सिनेमा

पोलैंड के आंद्रे वाजदा का विश्व सिनेमा कर्जदार रहेगा. सिनेमा में असाधारण योगदान के लिए ऑनरेरी ऑस्कर सम्मान प्राप्त वाजदा की आखिरी फिल्म ‘आफ्टर इमेज’ इस मायने में क्लासिक है कि दुनियाभर में सांस्कृतिक तानाशाही के खिलाफ यह मानवीय प्रतिरोध को कलात्मक तरीके से दर्शाती है.
पोलैंड के आंद्रे वाजदा (06 मार्च, 1926- 09 अक्तूबर, 2016) का विश्व सिनेमा हमेशा कर्जदार रहेगा. सिनेमा में उनके असाधारण योगदान के लिए उन्हें ऑनरेरी ऑस्कर सम्मान (1999) से नवाजा जा चुका है. सन् 1951 से लेकर 2016 तक अपने सक्रिय फिल्मी जीवन में उन्होंने ‘मैन ऑफ मार्बल’ (1977), ‘मैन ऑफ आयरन’ (1989), ‘वालेसा- मैन ऑफ होप’ (2013) जैसी बेहतरीन फिल्में दीं. लेकिन, 90 साल की उम्र में उन्होंने मृत्यु से कुछ ही महीने पहले जो फिल्म पूरी की, वह कई मामलों में बेमिसाल है.
वह फिल्म है- ‘आफ्टर इमेज’. यह फिल्म इस मायने में क्लासिक है कि दुनियाभर में सांस्कृतिक तानाशाही के खिलाफ यह मानवीय प्रतिरोध को बेहद कलात्मक तरीके से दर्शाती है.
नब्बे की उम्र में वे भूल नहीं पाये कि उनके पिता को स्तालिन ने मरवा दिया था. इस बार भी उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का समय चुना है, जब अचानक कला पर स्तालिनवादी समाजवादी यथार्थ का नियम थोप दिया गया और कलाकारों की आजादी खत्म कर दी गयी. आंद्रे पानुफ्निक के संगीत की पृष्ठभूमि में पोलैंड के लोड्ज शहर को पॉवेल एडेलमान के कैमरे ने अविस्मरणीय दृश्यों में रचा है. पेंटिंग और अमूर्त डिजाइन का इस्तेमाल इस तरह किया गया है कि हास्य का विद्रूप पैदा हो सके.
कला की दुनिया के वास्तविक दृश्य लिये जाने से हमें डाॅक्यूमेंट्री का आभास होता है, जो विश्व सिनेमा में आंद्रे वाजदा का सिग्नेचर माना जाता है.
प्रथम विश्व युद्ध में अपना एक हाथ और पैर गंवा चुके व्लादिस्लाव स्ट्रेमिंस्की पोलैंड के एक महत्वपूर्ण चित्रकार है. वे नेशनल स्कूल ऑफ मॉडर्न आर्ट्स लोड्ज में प्रोफेसर हैं. वे कला में राजनीतिक विचारधारा के दखल के खिलाफ हैं. उनके छात्र उन्हें कला का खुदा मानते हैं. जब पोलैंड की कम्युनिस्ट सरकार का कला की दुनिया में दखल असहनीय हो जाता है, तो स्ट्रेमिंस्की विरोध में खड़े होते हैं. वे किसी कीमत पर सरकारी दखल को मानने को तैयार नहीं हैं. सरकारी गुंडे लोड्ज में उनका स्टूडियो तहस-नहस कर देते हैं.
उन्हें बिना कारण बताये नौकरी से निकाल दिया जाता है. वे पेंटिंग न कर सकें, इसलिए उन्हें उस कलाकार संघ से निकाल दिया जाता है, जिसके गठन में उनकी महती भूमिका थी. भयानक गरीबी, बीमारी और सरकारी दमन झेलते हुए अंतत: 26 दिसंबर, 1952 को वे इस दुनिया को अलविदा कहते हैं.
फिल्म में लगभग मेलोड्रामा नहीं है, लेकिन स्ट्रेमिंस्की की पीड़ा कई जगह गहरे हास्य में बदल जाती है. वाजदा ने कहीं भी वास्तविक सरकारी हिंसा को नहीं दिखाया है, पर दहशत और आतंक को हम महसूस करते हैं. कई दृश्यों की मार्मिकता हृदयविदारक है.
अपनी बेटी को वे हॉस्टल में रखने पर मजबूर हैं. पत्नी के मरने पर वे अंतिम संस्कार में नहीं जा पाते, क्योंकि किसी वजह से उनकी पत्नी नहीं चाहती थी. अचानक वे अस्पताल से उठकर पत्नी की कब्र पर नीले फूल चढ़ाने चले जाते हैं, मानो मृत्यु से पहले का आखिरी काम निबटा रहे हैं. अंतिम दृश्य में उनकी बेटी नीका अस्पताल के उस बिस्तर पर थोड़ी देर बैठना चाहती है, जिस पर स्ट्रेमिंस्की की मौत हुई है. फिल्म एक स्याह माहौल की सिसकियों का कोलाज बनाती है,
जिसमें कला और राजनीति के बड़े सवाल मानवीय प्रसंगों में बौने हो जाते हैं. स्ट्रेमिंस्की का मानना है कि आजादी से बड़ा कोई जीवन मूल्य नहीं हो सकता और कला आजादी की ‘विजुअल डिस्कवरी’ है.
अजित राय
संपादक, रंग प्रसंग, एनएसडी
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