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वास्तुकार दोशी का संसार

आर्किटेक्चर इस वर्ष का प्रतिष्ठित प्रित्ज्कर सम्मान देश के वरिष्ठ, अनूठे और महत्वपूर्ण वास्तुकार बालकृष्ण दोशी को दिये जाने की घोषणा हुई है. पहली बार किसी भारतीय को यह पुरस्कार दिया जा रहा है. यह पुरस्कार वास्तुकला के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार के बराबर का कद रखता है. बालकृष्ण दोशी के निमित्त से यह पुरस्कार […]

आर्किटेक्चर

इस वर्ष का प्रतिष्ठित प्रित्ज्कर सम्मान देश के वरिष्ठ, अनूठे और महत्वपूर्ण वास्तुकार बालकृष्ण दोशी को दिये जाने की घोषणा हुई है. पहली बार किसी भारतीय को यह पुरस्कार दिया जा रहा है. यह पुरस्कार वास्तुकला के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार के बराबर का कद रखता है. बालकृष्ण दोशी के निमित्त से यह पुरस्कार इस साल प्रकृति, जलवायु और मानवता के मूलभूत तत्वों के समन्वय, वास्तु से प्रकट होते एक प्रकार के एकीकृत वातावरण की निर्मिती के विचार को दिया गया है.

साल 1927 में पुणे में जन्मे और एक संयुक्त परिवार में पले-बढ़े बालकृष्ण दोशी ने मुंबई में सर जेजे स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर में अपनी शुरुआती पढ़ाई की. बाद में आधुनिक वास्तु को समझने के लिए वे 1951 में पेरिस में प्रख्यात स्विस-फ्रांसीसी वास्तुकार ले कर्बुजिये की टीम में एक युवा प्रशिक्षु की तरह भी शामिल हुए. आजादी के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आधुनिक भारत के स्वप्न के तहत एक नया शहर बनाने के लिए जब ले कर्बुजिये का चयन हुआ, तब दोशी भी कर्बुजिये की इस महत्वाकांक्षी योजना की देख-रेख के लिए वे 1954 में भारत लौट आये. दोशी ले कर्बुजिये को अपना गुरु मानते थे और उन्होंने इस पुरस्कार को अपने गुरु को समर्पित किया है.
उसके बाद एक दशक से भी ज्यादा समय तक उन्होंने 20वीं सदी की वास्तुकला के दूसरे बड़े हस्ताक्षर लुई कान के साथ भी काम किया. दोशी ने भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद के निर्माण के लिए लुई कान के सहयोगी के रूप में भी काम किया.
दुनिया के जाने-माने आधुनिक वास्तुविदों नोर्मन फोस्टर, रेंजो पियानो और फ्रैंक गेहरी से बिल्कुल अलग दिशा में विचार करनेवाले बालकृष्ण दोशी की अपनी पृथक आवाज है. उनके काम में चमकदार या ग्लैमरस डिजाइन की तड़क-भड़क नहीं, बल्कि उसमें भारतीय वास्तुकला का विचार और उसकी सांस्कृतिक आभा, सादगी से गहरे तक बसी रहती है. उनका स्थापत्य ग्लैमर का प्रतीक कभी नहीं रहा. वैसे उन्होंने कभी गगन-चुंबी इमारतों का निर्माण नहीं किया है,
लेकिन वे कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि मैं गगनचुंबी इमारतों के प्रति आकर्षित नहीं होता, लेकिन जिस शैली में और जिस उद्देश्य के लिए उन्हें बनाया गया है, उससे कभी भी किसी भी तरह से मेरा कोई संबंध नहीं बन सका.’
दोशी की बनायी इमारतों में शैक्षणिक, सांस्कृतिक, जन-प्रशासनिक और रिहाईशी इमारतों के अनेक महत्वपूर्ण उदाहरण हैं, लेकिन उनकी सभी कृतियों को देखकर यह कहा जा सकता है कि आज के आधुनिक समय में उन्होंने हमारी भारतीय वास्तु संवेदना को हर हाल में जिंदा रखा है. इसके अलावा, उन्होंने अनेक संस्थानों और स्कूलों का निर्माण भी किया है. शैक्षणिक दुनिया और संस्थापक निदेशक के रूप में पर्यावरण डिजाइन अनुसंधान में भी उनका योगदान उल्लेखनीय रहा है.
भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक और पर्यावरणीय परिवेश के उपयुक्त वातावरण के लिए स्वदेशी डिजाइन और योजना मानकों का विकास करने के लिए साल 1978 में बालकृष्ण दोशी ने वास्तुशिल्प न्यास भी स्थापित किया. आज यह न्यास शिक्षाविदों और पेशेवर सलाहकारों के बीच प्रभावी रूप में कार्य करता है. बाद में उन्होंने अहमदाबाद में प्रीमियर स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर की स्थापना भी की.
दोशी की नजर में वास्तुकला हमेशा से सामाजिक परिवर्तन के लिए भी एक शक्ति रही थी. अपने इसी दृष्टिकोण से उन्होंने इंदौर में अरन्या लो कॉस्ट हाउसिंग, अहमदाबाद में अतिरा लो कास्ट हाउसिंग, हैदराबाद में एसिल लोए कास्ट हाउसिंग, कलोल में इफ्को लो कास्ट हाउसिंग नाम की कम लागत वाली असाधारण आवासीय परियोजना शुरू की थी. पुरस्कार में दोशी के परिचय में कहा गया है कि ‘उनका वास्तु एक ऐसे राष्ट्र का रूपक है, जो अपने 200 वर्षों के औपनिवेशिक शासन से उभर रहा है.’
दोशी को मिले इस पुरस्कार से निश्चित ही वास्तुकला पर प्राचीन भारत का महान ग्रंथ ‘मानसार’ दुनिया के सामने फिर से आ गया है. वह ग्रंथ, जो यह बताता है कि वास्तुकला, एक सभ्यता का आधार होती है और ऐतिहासिक दृष्टि से, वास्तुकला उस काल की सभ्यता के बौद्धिक विकास का एक स्थायी, ठोस और सच्चा प्रमाण है.
बालकृष्ण दोशी 90 वर्ष की आयु में अाज भी भारतीय संस्कृति के पक्ष पर विचार करते रहते हैं.
वास्तुकार बालकृष्ण दोशी के काम में चमकदार या ग्लैमरस डिजाइन की तड़क-भड़क नहीं, बल्कि उसमें भारतीय वास्तुकला का विचार और उसकी सांस्कृतिक आभा, सादगी से गहरे तक बसी रहती है. उनका स्थापत्य ग्लैमर का प्रतीक कभी नहीं रहा.

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