Advertisement
गौतम घोष और सिनेमा की कूटनीति
अजित राय संपादक, रंग प्रसंग, एनएसडी आज विश्व सिनेमा में जिन भारतीय फिल्मकारों की बड़ी प्रतिष्ठा है, उनमें गौतम घोष सबसे ज्यादा चर्चित हैं. घोष को इटली में सिनेमा का सबसे बड़ा सम्मान मिल चुका है और फ्रांस के ल-रोशेल में उनकी फिल्मों का पुनरावलोकन आयोजित किया जा चुका है. उनकी कई फिल्में कान, बर्लिन, […]
अजित राय
संपादक, रंग प्रसंग, एनएसडी
आज विश्व सिनेमा में जिन भारतीय फिल्मकारों की बड़ी प्रतिष्ठा है, उनमें गौतम घोष सबसे ज्यादा चर्चित हैं. घोष को इटली में सिनेमा का सबसे बड़ा सम्मान मिल चुका है और फ्रांस के ल-रोशेल में उनकी फिल्मों का पुनरावलोकन आयोजित किया जा चुका है. उनकी कई फिल्में कान, बर्लिन, वेनिस जैसे अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में शोहरत बटोर चुकी हैं. इधर कुछ वर्षों से वे बांग्लादेश के साथ मिल कर फिल्में बना रहे हैं और सिनेमा डिप्लोमेसी को मजबूत कर रहे हैं.
भारत-बांग्लादेश के सहयोग से बनी उनकी नयी फिल्म ‘शंखचील’ भारत के विभाजन के दंश की कभी न खत्म होनेवाली कविता की तरह है. इसके कई दृश्य करुणा की शोकांतिका में बदल जाते हैं. देशों की सीमाओं से परे मानवीय रिश्तों की डोर अब भी बंगाल को बांधे हुए है. नियति की मार के आगे दोनों देशों की जनता लाचार है.
गौतम घोष बांग्लादेश के सहयोग से ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित बांग्ला लेखक सुनील गंगोपाध्याय की कहानी पर आधारित ‘मोनेर मानुष’ (2010) फिल्म बना चुके हैं, जो उस सूफी संत लालन फकीर के बारे में है, जिन्होंने हिंदू-मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता का जवाब प्रेम और करुणा की एक नयी मानवीय परंपरा को बनाकर दिया. साल 1952 के बाद पहली बार किसी भारतीय फिल्मकार ने बांग्लादेश के साथ फिल्म सह-निर्माण की पहल की है.
फिल्म ‘शंखचील’ की कहानी- भारत-बांग्लादेश सीमा पर सतखीरा जिले के एक छोटे से गांव में मुंतसिर चौधरी बादल (प्रसेनजीत चटर्जी) और उसकी पत्नी लैला चौधरी (कुसुम सिकदर)अपनी बारह साल की बेटी रूपशा (शाजवती) की दिल की बीमारी से परेशान हैं. बादल एक स्कूल मास्टर है.
वह अपनी बेटी को बचाना चाहता है. उसके सामने दुविधा है कि वह ढाका जाये, जो वहां से बहुत दूर है या इच्छामती नदी पार कर भारत में रूपशा का इलाज कराये. जब रूपशा की हालत बिगड़ जाती है, तब एक दिन बादल लैला के साथ अपना देश-धर्म-नाम बदल कर नकली पहचान पत्र के साथ सीमा पार कर जाता है. इलाज के दौरान ही रूपशा मर जाती है. चूंकि वह हिंदू पहचान पत्र से भर्ती हुई है, इसलिए उसके शव को श्मशान ले जाया जायेगा. यदि बादल अपनी पहचान उजागर करता है, तो उस पर गैर-कानूनी रूप से सीमा पार करने का मुकदमा चलेगा. बादल रोते हुए पुलिस अफसर से गुजारिश करता है कि उसकी बेटी के शव को मुस्लिम धर्म के अनुसार उसके गांव में दफनाया जाये, भले ही उसे फांसी पर चढ़ा दिया जाये.
कानूनी कार्रवाई के बाद बीएसएफ के जवान उसके शव को बांग्लादेश की सेना को सौंपते हैं. रूपशा के शव को बांग्लादेश पुलिस को सौंपने की जिम्मेदारी बीएसएफ के उसी अफसर को दी जाती है, जो रूपशा को बेटी की तरह प्यार करता था.
अंतिम दृश्य में गांव में रूपशा को दफनाया जा रहा है, तो उधर कोलकाता पुलिस बादल और लैला को जेल ले जा रही है. एक शंखचील उनके घर के पेड़ पर बैठी सबको घूर रही है.
विभाजन पर यह पहली फिल्म है, जिसमें बिना किसी प्रकट हिंसा के नियति की मार झेलते लोग हैं. भारत-बांग्लादेश सीमा पर बसे लोगों में भाईचारा है. इच्छामति नदी ही उनका देश है.
अस्सी-नब्बे के दशक में बंगाली सिनेमा पर राज करनेवाले प्रसेनजीत चटर्जी का अभिनय हमें अपने साथ बहा ले जाता है. उनका लाचार होकर निहारना, उनकी मुस्कुराहट और उनकी करुणा से भरी आंखें शब्दों से ज्यादा बोलती हैं. बांग्लादेश की कुसुम सिकदर के साथ उनकी केमिस्ट्री असर करती है. वहीं रूपशा की भूमिका में शाजवती ने पूरी फिल्म को बांधे रखा है.
Advertisement