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क्षेत्रीय व्यापार समझौता : 27वें दौर की बातचीत पूरी, सहमति की राह अभी आसान नहीं

बीते रविवार को थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में आयोजित 16 देशों के बीच प्रस्तावित क्षेत्रीय व्यापार समझौते की बैठक बिना किसी सहमति के समाप्त हो गयी. संयुक्त घोषणापत्र में कहा गया है कि वार्ता की प्रक्रिया जारी रहेगी. भारत ने अपने घरेलू बाजार के कमजोर होने तथा व्यापार घाटे में बढ़ोतरी को लेकर अपनी चिंताओं […]

बीते रविवार को थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में आयोजित 16 देशों के बीच प्रस्तावित क्षेत्रीय व्यापार समझौते की बैठक बिना किसी सहमति के समाप्त हो गयी. संयुक्त घोषणापत्र में कहा गया है कि वार्ता की प्रक्रिया जारी रहेगी. भारत ने अपने घरेलू बाजार के कमजोर होने तथा व्यापार घाटे में बढ़ोतरी को लेकर अपनी चिंताओं से भागीदार देशों को अवगत करा दिया है.

इसके साथ ही सेवा क्षेत्र को महत्व देने पर भी जोर दिया है. इन मुद्दों पर अन्य देशों का रवैया बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं है. हालांकि भारत की आशंकाएं उचित हैं, पर अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए ऐसे व्यापारिक समझौतों की आवश्यकता भी है. इस मुद्दे के विविध पहलुओं के विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है आज का इन डेप्थ.

क्या है आरसीइपी

क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीइपी) दक्षिण पूर्व के 10 देशों के संगठन आसियान (ब्रूनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलीपिंस, सिंगापुर, थाईलैंड व वियतनाम) और इसके छह एफटीए (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट) भागीदारों (चीन, जापान, भारत, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड) के बीच एक प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौता है.

आरसीइपी वार्ता की शुरुआत औपचारिक ताैर पर नवंबर 2012 में कंबोडिया में हुए आसियान शिखर सम्मेलन के दौरान हुई थी. वर्ष 2017 में आरसीइपी सदस्य देशों की कुल अनुमानित जनसंख्या 3.4 अरब थी. जबकि इसका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी, पीपीपी) 49.5 ट्रिलियन डॉलर था, जो वैश्विक जीडीपी का लगभग 39 प्रतिशत था. इस राशि में 50 प्रतिशत से ज्यादा की हिस्सेदारी संयुक्त रूप से चीन और भारत की थी.

आरसीइपी विश्व का सबसे बड़ा आर्थिक ब्लॉक है, जिसमें वैश्विक अर्थव्यवस्था का लगभग आधा हिस्सा समाहित है. प्राइसवाटरहाउसकूपर्स के अनुमान के मुताबिक, आरसीइपी सदस्य देशों के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी, पीपीपी) के वर्ष 2050 तक तकरीबन 250 ट्रिलियन डॉलर या क्वाड्रिलियन डॉलर के चौथाई होने का अनुमान है, जिसमें चीन और भारत की संयुक्त जीडीपी 75 प्रतिशत होगी. वर्ष 2050 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में आरसीइपी की हिस्सेदारी 0.5 क्वाड्रिलियन डॉलर के वैश्विक जीडीपी (जीडीपी, पीपीपी) का आधा होने की संभावना है.

संभावित तौर पर आरसीइपी में तीन अरब से ज्यादा लोग या वैश्विक जनसंख्या का 45 प्रतिशत शामिल है, जिसकी संयुक्त जीडीपी लगभग 21.3 ट्रिलियन की है और यह विश्व व्यापार का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा है. आरसीइपी के संभावित सदस्यों की संयुक्त जीडीपी वर्ष 2007 में ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) सदस्यों की संयुक्त जीडीपी से आगे निकल गयी थी.

विशेष रूप से चीन, भारत और इंडोनेशिया के निरंतर आर्थिक विकास के कारण आरसीइपी का कुल जीडीपी बढ़कर वर्ष 2050 तक 100 ट्रिलियन डॉलर से अधिक का हो सकता है. टीपीपी की अर्थव्यवस्था के अनुमानित आकार से लगभग दोगुना. 23 जनवरी, 2017 को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर कर टीपीपी से बाहर आने की घोषणा की थी. ट्रंप के इस कदम को आरसीइपी की सफलता के बेहतर अवसर के रूप में देखा गया था.

आरसीइपी में बने रहने को लेकर निर्णय ले भारत : सदस्य देश

सोलह सदस्यीय आरसीइपी व्यापार समझौते में उत्पाद पर स्रोत देश के निर्धारण को लेकर सख्त मानदंड के भारत के प्रस्ताव का इसी वर्ष जून में ऑस्ट्रेलिया, जापान और न्यूजीलैंड सहित कम से कम 13 देशों ने विरोध किया था. इसी मानदंड के आधार पर उन्हें उत्पाद पर टैरिफ या शुल्क में छूट मिलेगी. भारत के इस प्रस्ताव का 10 सदस्यीय आसियान ब्लॉक ने भी विरोध किया है.

स्रोत देश के निर्धारण को लेकर भारत सख्त नियम के पक्ष में है, ताकि सदस्य देशों के जरिये देश में बड़े पैमाने पर आने वाले चीनी उत्पादों पर रोक लग सके. सदस्य देशों से आनेवाले उत्पादों पर बहुत कम शुल्क या कोई शुल्क नहीं लगता है. विदित हो कि चीनी वस्त्र, दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार समझौते के तहत और बांग्लादेश से ड्यूटी-फ्री कोटा फ्री विंडो के रास्ते भारत में आ रहे हैं. वर्ष 2018-19 में चीन, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया सहित आरसीइपी के 11 सदस्य देशों के साथ भारत को व्यापार घाटा हुआ था.

अकेले चीन के साथ ही यह घाटा 53.6 बिलियन डॉलर का था. इतना ही नहीं, आरसीइपी समूह में चीन की उपस्थिति से भारत के एल्युमीनियम और तांबा उद्योग भी चिंतित हैं. उन्हें आशंका है कि आयात में ज्यादा बढ़त से व्यापार घाटा और बढ़ जायेगा, साथ ही इससे मेक इन इंडिया की पहल को भी खतरा हो सकता है.

यही वजह है कि उत्पाद के स्रोत देश के निर्धारण को लेकर भारत सख्त मानदंड चाहता है. इसी बीच भारत ने एक चौथाई से अधिक व्यापारिक वस्तुओं पर लगने वाले टैरिफ को समाप्त कर दिया है. वहीं , आरसीइपी के कुछ सदस्य देशों ने भारत से कहा है कि अगर वह इस समूह में बने रहना चाहता है, तो इसका निर्णय करे. हालांकि चीनी उत्पादों पर लगने वाले टैरिफ दर में कटौती को लेकर भारत ने अभी कोई निर्णय नहीं लिया है.

भारत की चिंताएं

क्षेत्रीय व्यापारिक समझौते में शामिल होने को लेकर भारत की चिंताओं को रेखांकित करते हुए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा है कि भारतीय उत्पादों को चीनी बाजार में पहुंचने में उसकी संरक्षणवादी नीतियां बाधक बन रही हैं. इस कारण दोनों देशों के बीच व्यापार घाटा बहुत बढ़ गया है. चीन के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, 2018 में भारत का व्यापार घाटा 57.86 अरब डॉलर (भारत के अनुसार 63.1 अरब डॉलर) तक पहुंच गया, जो 2017 में 51.72 अरब डॉलर था. पिछले साल दोनों देशों के बीच कुल व्यापार 95.54 अरब डॉलर का था.

क्षेत्रीय व्यापारिक समझौते में चीन की उपस्थिति को लेकर भारतीय कारोबारियों ने भी आपत्ति जतायी है. दुध, धातु, इलेक्ट्रॉनिक्स, केमिकल और वस्त्र समेत अनेक क्षेत्रों ने सरकार से आग्रह किया है कि इन उत्पादों पर आयात शुल्क में कटौती को स्वीकार नहीं किया जाए. वित्त मंत्री का कहना है कि शुल्क घटाने से इन उत्पादों की भारतीय बाजार में बाढ़ आ जायेगी और भारतीय उत्पादकों को भारी नुकसान का सामना करना पड़ेगा. इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय है कि चीन के अलावा इस प्रस्तावित समझौते में शामिल 10 अन्य देशों के साथ भी पिछले साल भारत को व्यापार घाटा सहना पड़ा है. भारत की एक महत्वपूर्ण चिंता सेवा क्षेत्र को लेकर भी है, जिसमें वह काफी सक्षम है. परंतु, क्षेत्रीय व्यापार समझौते की रूप-रेखा में इस क्षेत्र पर समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है.

आगामी वर्षों में चीन समेत इस वार्ता में भागीदार अनेक देशों के साथ भारत के व्यापारिक संबंध मजबूत होने की उम्मीद है. ऐसे में सभी संबद्ध पक्षों को परस्पर चिंताओं पर गंभीरता से मनन-चिंतन करने की जरूरत है.

भारत को क्यों शामिल होना चाहिए

आर्थिक और वाणिज्यिक मामलों के अनेक भारतीय जानकार प्रस्तावित समझौते में शामिल होने के पक्षधर हैं. उनके मुख्य तर्क इस प्रकार हैं-

क्षेत्रीय समझौता भारत की महत्वाकांक्षी ‘लूक इस्ट’ और ‘एक्ट इस्ट’ नीतियों के अनुरूप है. इससे दक्षिण-पूर्व एशिया में और उससे परे भारत के हितों के लिए बड़ा भौगोलिक क्षेत्र उपलब्ध हो सकेगा. इससे यूरोप और उत्तर अमेरिका को ध्यान में रखकर नीति-निर्धारण की स्थिति में भी सकारात्मक बदलाव होगा.

आयात को लेकर चिंताओं को भी तार्किक होना चाहिए. जो उत्पाद उचित कीमत और गुणवत्ता के साथ हमारे बाजार में उपलब्ध नहीं हैं, उन्हें बाहर से मंगाने से परहेज नहीं किया जाना चाहिए.

चीन और अमेरिका के बीच अभी व्यापार युद्ध चल रहा है तथा दुनिया के अन्य हिस्सों में भी अनिश्चितता का वातावरण है. हालांकि यह कह पाना मुश्किल है कि उथल-पुथल और मंदी के इस माहौल का भविष्य में क्या स्वरूप बनेगा, लेकिन इतना तो भरोसा रखा जा सकता है कि सभी संबद्ध देश आखिरकार आर्थिक तर्कों के आधार पर स्थिरता की कोशिश करेंगे. तब ऐसा व्यापक समझौता अच्छे परिणाम दे सकेगा.

हालांकि हमारे उद्योग जगत की चिंताएं बिल्कुल सही हैं, पर बदलती परिस्थितियों में कारोबारी गतिविधियां भी समायोजन का प्रयास करती हैं. नब्बे के दशक में उदारवाद आने के बाद ऐसे बदलाव और उनके अच्छे परिणाम हमारे सामने उदाहरण के रूप में हैं.

यदि समझौते में शामिल देशों को भारतीय बाजार मिलेगा, तो भारत को भी उन देशों का बाजार मिलेगा. ऐसे में हमारा निर्यात निश्चित ही बढ़ेगा. इससे रोजगार और आमदनी में बढ़त होगी तथा अर्थव्यवस्था को ठोस आधार मिलेगा.

इन देशों के साथ भारत का व्यापार

चीन 13.3 समझौते में शामिल देशों के साथ भारत का व्यापारिक घाटा

साल 2017-18 में क्षेत्रीय समझौते के देशों के साथ हमारे देश का व्यापार घाटा 105 अरब डॉलर का रहा था. बीते साल भारत का कुल व्यापार घाटा 161.4 अरब डॉलर का था. इस हिसाब से क्षेत्रीय समझौते के देशों के साथ हमारा घाटा कुल घाटे का 65.1 फीसदी है.

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