खोरठा के उन्नयन में जुटे हैं सुकुमार
दीपक सवाल खोरठा के सुप्रसिद्ध गीतकार सुकुमार ने करीब ढाई दशक पहले जब ‘मांदर बाजे रे…’ गीत की रचना की थी, तब उन्हें भी इसका अंदाजा नहीं था कि उनका यह लोकगीत खोरठा जगत का एक कालजयी गीत बन जाएगा और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि पाएगा. इस गीत की सबसे बड़ी खासियत यह है कि […]
दीपक सवाल
खोरठा के सुप्रसिद्ध गीतकार सुकुमार ने करीब ढाई दशक पहले जब ‘मांदर बाजे रे…’ गीत की रचना की थी, तब उन्हें भी इसका अंदाजा नहीं था कि उनका यह लोकगीत खोरठा जगत का एक कालजयी गीत बन जाएगा और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि पाएगा. इस गीत की सबसे बड़ी खासियत यह है कि प्रमुख झारखंडी पर्वों की पूरी संस्कृति इस एक ही गीत में प्रतिबिंबित हो उठती है. अमूमन झारखंडी पर्वों में हम मुख्यतः करमा, सोहराय, सरहुल, टुसू एवं बाउंड़ी का नाम लेते हैं.
झारखंडी संस्कृति के प्रतीक इन पर्वों व इनकी विशेषताओं को दर्शाने वाले अनेक गीतों की रचना विभिन्न भाषाओं के अनेक गीतकार अपने अलग-अलग गीतों में कर चुके हैं. लेकिन, सुकुमार ने ‘मांदर बाजे रे..’ शीर्षक एक ही गीत में जिस लाजवाब तरीके से सभी पर्वों-संस्कृति को समाहित किया, यह उनकी विलक्षण रचनाशीलता एवं झारखंडी संस्कृति के प्रति उनकी समझ को दर्शाता है.
यह गीत विश्व स्तर पर लोकप्रिय उस समय हुआ, जब वर्ष 2003 में मुंबई में 146 देशों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में आयोजित वर्ल्ड सोशल फोरम के सम्मेलन में इसे गाया गया. सम्मेलन में बोकारो जिला के कसमार निवासी बहुमुखी प्रतिभा के धनी शेखर शरदेंदु जैसे कलाकार ने इस गीत की इतनी शानदार प्रस्तुति की, कि यह विदेशी प्रतिनिधियों की जुबां पर चढ़ गया.
इसके रचयिता सुकुमार जी की बात करें तो वे खोरठा जगत में एक बड़ा नाम हैं. वैसे इनका मूल नाम सुरेश कुमार विश्वकर्मा है. वे मूलतः बोकारो जिला के नावाडीह प्रखंड अंतर्गत भेंडरा गांव के निवासी हैं. इनका जन्म दो नवंबर 1956 को हुआ. साहित्य व संगीत के प्रति इनका झुकाव छात्र जीवन से ही रहा है. महज 10 वर्ष की उम्र में गांव में गठित ‘नवीन बाल समिति’ नामक संस्था के बैनर तले कला के क्षेत्र में कदम रख दिया.
फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. इस संस्था से जुड़कर दर्जनों नाटकों में अभिनय तथा निर्देशन करने का मौका मिला. चूंकि, सुकुमार जी एक अच्छे गायक भी थे, तो सहज-स्वाभाविक तौर पर गायन के तौर पर इनकी हॉबी ज्यादा परवान चढ़ी. इस बीच कई नाटक, उपन्यास लिख डाले. पहला नाटक ‘हरिश्चंद्र तारामती’ के नाम से वर्ष 1980 में उर्मिला प्रकाशन भागलपुर से प्रकाशित हुआ.
हिंदी में बोकारो से प्रकाशित होने वाले एक साप्ताहिक में इनके आलेख खूब छपे. खोरठा के पुरोधा श्रीनिवास पानुरी का भेंड़रा में रिश्तेदारी के चलते आना-जाना लगा रहता था. इसी बीच उनकी मुलाकात एक दिन सुकुमार जी से हुई. पानुरीजी ने इन्हें खोरठा में लिखने के लिए प्रेरित किया. वर्ष 1984 में वे रामगढ़ के कोठार में खोरठा ढाकी छेतर कमेटी के बैनर तले आयोजित होने वाले कार्यक्रम में भाग लेने पहुंच गये. डॉ रामदयाल मुंडा इसके मुख्य अतिथि थे.
साथ ही डॉ एके झा समेत अनेक भाषाविद, साहित्यकार, कलाकार पहुंचे थे. उस समय तक पानुरीजी से प्रेरित होकर सुकुमारजी खोरठा में अनेक गीतों की रचना कर चुके थे. इन्हीं में एक प्रमुख था- ‘कि दुखे तो राखी लोर गे धनी…’. इस गीत को प्रस्तुत करने का मौका उन्हें इस कार्यक्रम में मिला. इस गीत ने एक तरह से कार्यक्रम में तहलका मचा दिया.
रामदयाल मुंडा इतने खुश हुए कि उन्होंने अपने गले का हार निकालकर सुकुमार जी को पहना दिया एवं इन्हें रेडियो में आने को कहा. इसके बाद इनकी दीवानगी अपने ‘मायकोरवा भाषा’ के प्रति और भी बढ़ गई. इसी बीच भेंड़रा में बुद्धिजीवियों की एक आमसभा में ‘खोरठा भाषा विकास समिति, भेंड़रा’ का गठन हुआ और सुकुमारजी इसके उपाध्यक्ष बनाये गये. इसी कमेटी के बैनर तले 6 अप्रैल 1984 में भेंड़रा में पहला ऐतिहासिक कवि सम्मेलन आयोजित हुआ.
इस कार्यक्रम की खोरठा जगत में सर्वत्र चर्चा और सराहना हुई. वर्ष 1993 में बोकारो खोरठा कमेटी के एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि शिबू सोरेन के द्वारा इन्हें ‘खोरठा रत्न’ की उपाधि देकर सम्मानित किया गया. बिहार सरकार द्वारा वर्ष 1997 में पटना में आयोजित युवा सांस्कृतिक महोत्सव में इन्हें प्रशस्ति पत्र व शॉल भेंट कर सम्मानित किया गया. इनकी निस्वार्थ सेवा के निमित्त संस्था झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा रांची द्वारा रांची में आयोजित कार्यक्रम में 12 फरवरी 2006 को ‘अखरा सम्मान’ से नवाजा गया.
15 अगस्त 2007 को मोरहाबादी मैदान रांची में आयोजित सम्मान समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के हाथों इन्हें सांस्कृतिक क्षेत्र में सराहनीय कार्य के लिए सांस्कृतिक सम्मान पत्र तथा शॉल भेंटकर सम्मानित किया गया. 10 सितंबर 2007 को शोषित मुक्ति वाहिनी के वीर अब्दुल हमीद शहादत दिवस समारोह में मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित राजेंद्र सिंह के हाथों सम्मानित किये गये.
खोरठा जगत का पहला ऑडियो कैसेट देने का श्रेय भी इन्हीं को जाता है. सन 1997 में ‘पीरित के मोरम’ के नाम से यह कैसेट आया था. यूं तो इस कैसेट में कुल 9 गाने थे, लेकिन लोगों की जुबां पर ‘मांदर बाजे रे…’ ही सबसे अधिक चढ़ा. 2001 में ‘पीरित रासिकवा’, 2004 में ‘फुलवा रानी’ तथा 2007 में ‘फरिछ डहर’ नामक कैसेट भी इनका मार्केट में आया.
इनकी अनेक रचनाएं भी प्रकाशित हो चुकी है. सन 1993 में इनके गीतों का एक संकलन छपकर आया- ‘पइनसोखा’. यह एमए कोर्स में शामिल है.
इसके अलावा सन 2000 में ‘सेवाती’, 2004 में ‘झींगुर’ तथा 2010 में छपी – ‘मदनभेरी’. इन तीनों गीत संकलन में सुकुमार ने खोरठा क्षेत्र में स्थापित अन्य गीतकारों को भी जगह दी. 2009 में इनका एक खंडकाव्य ‘बावां हाथेक रतन’ नाम से छपा. यह अंबेडकर की जीवनी पर आधारित है.
फिलहाल इनका एक काव्य संकलन जहां ‘नावा डहर’ के नाम से छपकर आने वाली है. वहीं, इनका एकल गीत संकलन ‘पइनसोखा’ का पुनर्मुद्रण का कार्य प्रगति पर है. सुकुमारजी 1985 से आकाशवाणी रांची से जुड़कर बतौर लोकगीत, गायक, कवि के रूप में अब-तक हजारों गीत गा चुके हैं. वे रेडियो, दूरदर्शन में बी हाई ग्रेड आर्टिस्ट हैं. इन्हें उद्घोषक की बहाली में भी बोर्ड के सदस्य के रूप में आकाशवाणी द्वारा मनोनीत किया जा चुका है.
सुकुमारजी मानववादी विचारधारा के गायक हैं. यही कारण है कि इनके गीतों में समता, सहकारिता, देशभक्ति, माटी प्रेम, पर्यावरण संरक्षण, प्राकृतिक सौंदर्य, नारी का ऊंचा स्थान, सुख दुख के क्षणों में एक दूसरे के सहयोग करने का भाव, पहाड़ पर्वत नदी नाला का वर्णन, अंधविश्वास, त्यौहार संस्कार की गरिमा, क्रांति-उलगुलान, जन-जागरण आदि का भाव साफ परिलक्षित होता है. ‘मांदर बाजे रे..’ समेत इनके कई गीत जनमानस में समाहित होकर लोकगीत बन चुके हैं. आज 63 वर्ष की उम्र में भी सुकुमारजी उतने ही जोश-ओ-खरोश से खोरठा के उन्नयन में जुटे हैं.
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