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वैशाली एक्सप्रेस

कोहरे से भरे, ठिठुरते दिसंबर की उस शुक्रवार को आॅफिस से निकलकर तुरंत नयी दिल्ली स्टेशन पहुंच गया. पौने आठ पर वैशाली एक्सप्रेस छूटने वाली थी, कानपुर जाना था, रिजर्वेशन नहीं था मेरा. इसलिए मैं सीधे जनरल डिब्बे में घुसा और सीट पर कब्जा करने के लिए जूतम पैजार करना शुरू ही किया था कि […]

कोहरे से भरे, ठिठुरते दिसंबर की उस शुक्रवार को आॅफिस से निकलकर तुरंत नयी दिल्ली स्टेशन पहुंच गया. पौने आठ पर वैशाली एक्सप्रेस छूटने वाली थी, कानपुर जाना था, रिजर्वेशन नहीं था मेरा. इसलिए मैं सीधे जनरल डिब्बे में घुसा और सीट पर कब्जा करने के लिए जूतम पैजार करना शुरू ही किया था कि मोबाइल में नीलिमा का फोन आता दिखायी दिया.
नीलिमा से हाल ही में किसी दोस्त के घर पर मुलाकात हुई थी, खूबसूरत आंखें, सीधी, सरल और सादगी भरी बातें, उसका मुझसे अपनापन दिखा-दिखा कर बात करना याद आ गया.
वह हमेशा मुझसे कहती थी कि, ‘ विवेक तुम्हारे जैसा भोला इंसान मैंने नहीं देखा, तुम बहुत सीधे हो’
ये सब सोचकर ससुरा थोड़ा इमोशनल क्या हुए कि सीट पर दूसरा कब्जा कर ले गया, जूतम पैजार और गाली – गलौज करने की सारी कवायद बेकार हो गयी. झुंझलाहट तो बहुत हुई लेकिन नीलिमा का फोन था, दिल बाग-बाग हो गया था. रेल में डिब्बे की चिल्ल पों के बीच ही हमने फोन उठाया.
उधर से नीलिमा बोली…’हैलो वेयर आर यू’…
मैंने कहा ‘बस ऑफिस के बाहर हूं’…वो बोली ‘बड़ा शोर आ रहा है’…
‘अरे दिल्ली का ट्रैफिक है…बोलो’
मैं नहीं चाहता था कि नीलिमा ये जाने कि मैं वैशाली एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे में बैठकर कानपुर तक जाने के लिए जूतम पैजार कर रहा हूं. मेरी साख पर बट्टा लग जाता.कुछ देर बाद जब फोन रखा तो असमंजस की स्थिति में था…
नीलिमा ने कहा था कि, ‘घर आ जाओं, कोई नहीं है, वो मेरा इंतजार कर रही है. उसने मेरे लिए खाना भी बनाया है. उसकी रूममेट अपने होमटाउन पटना गयी है. मैं कुछ हां या न भी नहीं कर पाया था कि नीलिमा ने फोन रख दिया’
मैं फोन को पकड़े हुए ही डिब्बे से नीचे उतर आया. तुरंत पैर स्टेशन से बाहर बस स्टैंड की ओर चल दिये. इससे अच्छा मौका क्या हो सकता था नीलिमा के साथ वक्त बिताने का.
वैसे भी नीलिमा पिछले पंद्रह दिनों से दिन में दस बार मुझे फोन मिलाने लगी थी और हर बार अंग्रेजी में पूछती थी, ‘हाउ आर यू’
कई बार उसने रात को दो बजे मुझे नींद के बीच में फोन मिला के कहानी सुनाने को कहा था. उस समय ऐसा लगता था जैसे मैं हवा में तैर रहा हूं, पेट में गुदगुदी महसूस होती थी. वो घंटो फोन पर मुझसे बच्चों की आवाज में कहती थीं, कुछ बोलो, कुछ बोलो और मैं बिना रुके बहुत कुछ बोला करता था.
कुछ दिनों पहले जब मेरा हाथ टूटा था तो वो दोस्तों से मेरे घर का पता लगाकर मेरे मोहल्ले तक अपनी दस लखिया कार से आ गयी थीं.
किस तरह से झूठ बोल के मैंने अपना पीछा उस दिन उससे छुड़ाया था, मैं नहीं चाहता था कि दिल्ली के मेरे उस कमरे में वह आये और मेरे रहन-सहन के अव्यवस्थित स्तर को देखे.
वैसे नीलिमा की तारीफ क्या बताऊं वह इतनी साधारण, जमीन से जुडी हुई थी की अपने सारे कान्वेंट वाले दोस्तो से अंग्रेजी में बात करती थी, सिर्फ मुझसे हिन्दी में बात करती थी. इसका कारण यह था कि मुझे सेंटेंस ट्रांसलेट करने में टाइम लगता था और कई बार हैव, हैड, डू, डिड, डन एक ही वाक्य में हो जाता था.
नीलिमा मुझसे कहती थी, ‘बोलते रहो सीख जाओगे।’
नीलिमा ने कभी भी रेस्टोरेंट में मुझे बिल नहीं पे करने दिया. वो जिन रेस्टोरेंट में लेकर मुझे जाती थी, वहां चार पराठे और दो कप कॉफी मंगाने पर भी दो हजार का बिल आ जाता था. लेकिन नीलिमा मेरे हाथ को कभी पर्स की ओर जाने ही नहीं देती थी. मैं तो उस दिन आश्चर्य मे ही डूब गया था जब नीलिमा ने ये बताया था की वह अठारह सौ रुपये में बाल कटवाती है और दस हजार में बाल स्ट्रेट करवाती है. दिल्ली मे वह कभी पब्लिक बस में चढ़ी नहीं थी.
मेरी बारह हजार की मासिक औकात में तो ये सब केवल ख्याली पुलाव था.लेकिन उस समय तो मैं बस एक पागल प्रेमी की तरह बस स्टैंड की ओर दौड़ता चला जा रहा था तभी मेरे दिल ने एक अंतिम हुंकार भरी… दिल ने कहा अरे पगलवे सुन, नीलिमा तुझे प्यार करती है कि दया करती है, पहले ये तो तय कर. तुझे भोला समझ कर दो-चार बात क्या कर ली, लगे तुम मजनूं बनने. अबे ये बड़े लोग है, कमिश्नर साहब की बेटी है. मल्टीनेशनल मे काम करती है…
तुम जैसे सड़कछाप कनपुरिये से कैसे प्यार कर सकती है, तुम गाली-गलौज में पीएचडी, मुंह खोलते हो तो सांस बाद में आती है, गाली पहले बाहर आ जाती है, अपने घर का माहौल देखा है, अम्मा-बप्पा दस बीस हजार के लिए चिल्ल पों मचाये रखते है.
तुम्हारे जैसे ही छिछोरे लोगों की वजह से ही ये मान्यता फैली है की लड़के और लड़कियां कभी दोस्त नहीं बन सकते…
इन सारी बातों को छोड़कर यदि मान भी लिया जाये की तुम्हारे और नीलिमा के बीच प्रेम जैसा कुछ हो सकता है तो सवाल उठता है की दो कमरे के मकान में कैसे दुल्हन बनाकर ले जाओगे उसे, जमाई तुम बनोगे नहीं, जमीर गवारा नहीं करेगा…
और ऐसे में अगर आज तुम दोनों मिलने के दौरान भावावेश मे आकर अपने प्रेम की सारी सरहदें फांद गए तो तुम्हारे अंदर का मर्द ये भी बर्दाश्त नहीं कर पायेगा िक वह फिर किसी और की हो जाये.
मेरे प्यारे, भोले वो सब लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता टाइप वाले है, रात में किसी के साथ उठना, बैठना, बतलगी, दिल्लगी करना उनके लिए बड़ा नॉर्मल है, तुम इन चक्करों में पड़ोगे तो एबनॉर्मल हो जाओगे.
तभी अचानक से मेरे ठीक सामने तेजी से चलती पब्लिक ट्रांसपोर्ट की डीटीसी बस आ गयी, जिसकी लाइट से मेरी आंखें चौधिंया गयीं और बस का भोंपू बोला पों पों पों पों पों…ओ ओ ओ…
पों, पों, पों, पों…..ओ ओ ओ….की आवाज जब बंद हुई तो मैं देखता हू वैशाली एक्सप्रेस तेजी से कानपुर की ओर भागी चली जा रही है. कलाई घड़ी में रात के एक बज रहे हैं, मैंने ट्रेन के जनरल डिब्बे में बैठने की जगह वापिस हथिया ली है, ठंड भरी गहरी रात है, मेरे अगल-बगल लोग मिली जगह के हिसाब से नींद मे बिखरे हुए हैं और मैं डबडबायी आंखों से मोबाइल में पड़े हुए नीलिमा के उनतीस मिस्ड कॉल और तेरह मैसेज रुक – रुक कर देखता जा रहा हू…देखता जा रहा हू…
लेखक चुनाव अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं

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