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चुनाव विशेष : चार राज्यों में भी नयी विधानसभा

सत्रहवीं लोकसभा के गठन के लिए देशभर में सात हफ्तों तक चले आम चुनावों पर जनता का फैसला 23 मई को आयेगा. इसके बाद केंद्र के साथ ही चार राज्यों में भी नयी विधानसभा के गठन की कवायद शुरू होगी. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जहां करोड़ों नागरिकों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया, […]

सत्रहवीं लोकसभा के गठन के लिए देशभर में सात हफ्तों तक चले आम चुनावों पर जनता का फैसला 23 मई को आयेगा. इसके बाद केंद्र के साथ ही चार राज्यों में भी नयी विधानसभा के गठन की कवायद शुरू होगी. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जहां करोड़ों नागरिकों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया, तो वहीं लाखों की संख्या में मतदान अधिकारियों, कर्मियों और सुरक्षाबलों ने पूर्ण तन्मयता के साथ इसे संपन्न कराने में अहम योगदान दिया.

चार प्रमुख राज्यों आंध्र प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम के मुद्दे और जनता की मांगें भले ही राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा के केंद्र में न रही हों, लेकिन उनकी अहमियत कम नहीं है.
चुनाव विशेष : चार राज्यों में भी नयी विधानसभा
आंध्र प्रदेश
तेलंगाना राज्य बनने के बाद आंध्र प्रदेश का यह दूसरा विधानसभा चुनाव है. विधानसभा की 175 सीटों के लिए 11 अप्रैल को हुए चुनाव में बहुमत के लिए 88 सीटों की जरूरत है. वर्ष 2014 में हुए विधानसभा चुनाव में तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) ने 102 और सहयोगी भाजपा ने चार सीटें जीती थीं और एन चंद्रबाबू नायडू राज्य के मुख्यमंत्री बने थे.
उनके प्रमुख विरोधी वाईएसआर कांग्रेस पार्टी (वाईएसआरसीपी) ने 67 सीटों पर जीत दर्ज की थी. चंद्रबाबू नायडू पहली बार 1995 से 1999 और फिर 1999 से 2004 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे. वर्ष 2004 और 2009 में कांग्रेस से चुनाव हारने के बाद एक बार फिर 2014 में सत्ता में लौटे.
वर्ष 2019 के चुनाव से चंद्रबाबू के बेटे नारा लोकेश की राजनीतिक पारी शुरू हुई है. लोकेश ने मलकानगिरी से चुनाव लड़ा है. माना जा रहा है कि चंद्रबाबू नायडू अगर विधानसभा चुनाव हारते भी हैं, तो वे यूपीए के साथ केंद्र की राजनीति में शामिल हो जायेंगे और राज्य की कमान नारा लोकेश को सौंप देंगे.
चुनाव के प्रमुख मुद्दे
सूखे से जूझ रहे राज्य को विशेष दर्जा दिलवाने की मांग पर बीते वर्ष चंद्रबाबू नायडू केंद्र की एनडीए सरकार से गठबंधन तोड़ कांग्रेस के साथ खड़े हो गये थे. इस बार उनकी पार्टी अकेले ही चुनाव मैदान में है. इस बार वाईएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी से उन्हें कड़ी चुनौती मिली है.
एंटी-इन्कंबैंसी फैक्टर के अलावा, जनसेना के पवन कल्याण, जो तेलुगु सिनेमा के जाने-माने चेहरे हैं, वे भी पहली बार चुनाव मैदान में उतरे हैं. माना जा रहा है कि सीपीआई, सीपीआईएम, बसपा के साथ गठबंधन में चुनाव मैदान में उतरी जनसेना भी टीडीपी के मतों में सेंध लगा सकती है. सूखे के कारण किसानों की मौत और बेरोजगारी भी यहां एक बड़ा मुद्दा है.
हालांकि, इस वर्ष की शुरुआत में नायडू ने किसानों, बेरोजगारों, महिलाओं व स्व-सहायता समूहों के लिए कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत भी की. इन योजनाओं पर राज्य सरकार ने 15,000 करोड़ रुपये भी खर्च कर चुकी है, ताकि पार्टी चुनावी लाभ ले सके. लेकिन इस लाभकारी योजनाओं का जनता पर कितना प्रभाव पड़ा है, यह तो 23 मई को आनेवाले नतीजे से ही पता चल पायेगा.
चौंका सकते हैं जगनमोहन रेड्डी
तेलुगु देशम पार्टी के नेता चंद्रबाबू नायडू को चुनौती देनेवाले जगन मोहन रेड्डी के राजनीतिक करियर की शुरुआत वर्ष 2009 में कडप्पा संसदीय क्षेत्र से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सांसद बनने से हुई. लेकिन उसी वर्ष कांग्रेस के नेता, आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री व जगनमोहन के पिता राजशेखर रेड्डी की एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गयी. इसके बाद कांग्रेस के साथ जगन की खटपट शुरू हो गयी.
वर्ष 2011 में उन्होंने अपनी अलग पार्टी वाईएसआर कांग्रेस का गठन किया और 2014 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ उनकी पार्टी खड़ी हुई और 67 सीटें जीतने में कामयाब रही. लेकिन इस बार जगनमोहन पहले से कहीं ज्यादा सीटें लेकर चौंका सकते हैं. लोकसभा की 25 सीटों पर भी जगनमोहन के बेहतर करने की उम्मीद जतायी जा रही है.
वहीं वर्ष 2014 में हुए विधानसभा चुनाव में टीडीपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली भाजपा इस बार यहां 175 सीटों पर अकेले ही चुनाव मैदान में है. एग्जिट पोल में बताया जा रहा है कि टीडीपी 90 से 110 सीटें पाकर अपनी सत्ता बरकरार रख सकती है. वहीं जगनमोहन रेड्डी की पार्टी 65 से 79 सीटें जीत सकती है. अन्य के खाते में एक से पांच सीटें जाने की संभावना है. कांग्रेस अपनी जमीन पाने में नाकाम दिख रही है.
ओडिशा
वर्ष 2019 में ओडिशा विधानसभा के 147 सीटों में से 146 के लिए आम चुनाव के साथ ही चार चरणों में 11, 18, 23 और 29 अप्रैल को मतदान संपन्न हुए. पतकुरा विधानसभा सीट, जिस पर 29 अप्रैल को चुनाव होना था, वहां 19 मई को चुनाव हुआ. यहां बीजू जनता दल (बीजद) के उम्मीदवार बेद प्रकाश अगरवाला की मृत्यु के कारण चुनाव तिथि बदलनी पड़ी.
चुनाव के नतीजे लोकसभा के नतीजों के साथ ही 23 मई को आयेंगे. वर्ष 2014 में हुए चुनाव में बीजद को 147 में से 118 सीटें मिली थीं, जो सरकार बनाने के लिए जरूरी 74 सीटों से कहीं अधिक थी. इस राज्य में लंबे समय तक कांग्रेस पार्टी सत्ता में रही है. यहां पहली बार 1967 में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. राजेंद्र नारायण सिंह देव स्वतंत्र पार्टी से पहली बार गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने.
एक बार फिर 1971 में यहां कांग्रेस की सरकार बनी. जनता पार्टी ने 1977 में यहां सरकार बनाया, लेकिन 1980 में एक बार फिर से कांग्रेस यहां सत्ता में आ गयी. लेकिन वर्ष 2000 में यहां नवीन पटनायक के नेतृत्व में बीजू जनता दल व भारतीय जनता पार्टी (एनडीए) की सरकार बनी.
हालांकि, 2009 में नवीन पटनायक ने एनडीए से गठबंधन तोड़ दिया व अकेले ही चुनाव में उतरे और सरकार बनायी. इस प्रकार 2000 से अब तक वे लगातार राज्य के मुख्यमंत्री हैं. नवीन सबसे लंबे समय तक ओडिशा के मुख्यमंत्री बने रहनेवाले पहले व्यक्ति हैं. वे कांग्रेस के कद्दावर नेता व ओडिशा के मुख्यमंत्री रहे बीजू पटनायक के पुत्र हैं.
चुनाव के प्रमुख मुद्दे
इस बार विधानसभा चुनाव में मुख्य लड़ाई बीजद और भाजपा के बीच रही. हालांकि, मुख्यमंत्री नवीन पटनायक लोगों के बीच काफी लोकप्रिय है लेकिन रोजगार की कमी, गरीबी और भूख के कारण होनेवाली मृत्यु में वृद्धि के कारण यहां लोगों में काफी नाराजगी है. इसके अलावा जन-वितरण प्रणाली का सही तरीके से काम न करना और राष्ट्रवाद के उभार के कारण बीजद को भाजपा से काफी चुनौती मिली है.
हालांकि इन सभी मुद्दों के बावजूद जनता के लिए उठाये गये सुधारवादी कदमों के कारण मुख्यमंत्री नवीन पटनायक जनता के चहेते हैं और एंटी-इन्कंबैंसी से अभी तक अछूते रहे हैं. अब तो 23 मई को नतीजा आने के बाद ही पता चलेगा कि मुख्यमंत्री नवीन पटनायक पिछले प्रदर्शन को दोहराते हैं या नहीं.
ओडिशा की राजनीति
ओड़िशा की राजनीति में पिछले दो दशक से नवीन पटनायक की अगुवाई में बीजू जनता दल का एकछत्र दबदबा रहा है. नवीन पटनायक चार बार से मुख्यमंत्री पद पर आसीन हैं. पिछले विधानसभा चुनावों में राज्य की कुल 147 सीटों में बीजेडी ने 118 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस के हिस्से में 16, भाजपा के हिस्से में 10 सीटें आयी थीं.
दो सीटों पर निर्दलियों और एक-एक सीटें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) और समता क्रांति दल के हिस्से में आयी थी. माना जा रहा है िक केंद्र में नयी सरकार के गठन में ओडिशा की बड़ी भूमिका होगी, यही वजह है कि भाजपा और बीजेडी ने यहां जमीनी स्तर पर खूब मेहनत की है.
अरुणाचल प्रदेश 60 सीटें
लोकसभा चुनावों के साथ-साथ बीते 11 अप्रैल को अरुणाचल प्रदेश विधानसभा का भी चुनाव संपन्न हुआ. इस राज्य में भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों के अलावा एनपीपी, पीपीए और जनता दल सेक्युलर जैसी पार्टियां भी मैदान में हैं. राज्य में कुल 7,94,162 मतदाता हैं, जिसमें महिला मतदाताओं की संख्या 4,01,601 है.
वर्तमान में कुल 60 सदस्यों वाले विधानसभा में भाजपा सत्तारूढ़ दल है, जिसके पास 48 सदस्यों का बहुमत हासिल है. इसके अलावा कांग्रेस और नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) के पांच-पांच एमएलए हैं, जबकि दो एमएलए निर्दलीय हैं.
लोकसभा के लिए भाजपा और कांग्रेस ही मुख्य दावेदार
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस को एक-एक सीटें मिली थीं. इससे पहले 2009 में दोनों सीटें कांग्रेस के खाते में और 2004 में भाजपा के खाते में गयी थी. कुल मिलाकर देखें, तो इस राज्य में लोकसभा चुनाव हमेशा भाजपा और कांग्रेस के बीच लड़े गये. वर्ष 2014 के चुनाव में अरुणाचल पश्चिम लोकसभा सीट से केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू और अरुणाचल पूर्व से कांग्रेस के उम्मीदवार निनांग एरिंग जीते थे.
‘60 प्लस दो’ का नारा
इस बार के चुनावों में राज्य के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने ‘60 प्लस दो’ का नारा दिया था, यानी भाजपा 60 विधानसभा सीटों के साथ दो लोकसभा सीटें को भी जीतने का दावा कर रही है. इस बार भाजपा ने सभी सीटों पर, कांग्रेस ने 46 सीटों पर, एनपीपी ने 30, जेडी (यू) ने 15, जेडी (एस) ने 12 और पीपीए ने नौ सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. तीन सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार निर्विरोध चुने जा चुके हैं.
एग्जिट पोल का आकलन है कि भारतीय जनता पार्टी पूर्वोत्तर में लोकसभा सीटों पर बड़ी जीत हासिल करेगी, इनमें अरुणाचल की दो सीटें भी हैं. इस लिहाज से उसका 48 सीटों के मौजूदा आंकड़े में बड़ी बढ़ोतरी हो सकती है और 55 सीटें उसके खाते में जा सकती हैं. इस जीत में मुख्यमंत्री खांडू की लोकप्रियता का बड़ा योगदान है.
मुख्य मुद्दे
भाजपा ने इस बार विकास को मुख्य मुद्दा बनाया, जबकि कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने पर्मानेंट रेजिडेंट सर्टिफिकेट (पीआरसी), लॉ एंड ऑर्डर और भ्रष्टाचार के मसले को जोर-शोर से उठाया.
किसी उम्मीदवार ने नहीं दी आईटीआर डिटेल्स!
एक रिपोर्ट के अनुसार अरुणाचल प्रदेश में किसी उम्मीदवार ने आईटीआर की डिटेल्स नहीं दी. दो उम्मीदवारों ने अपने पैन की भी जानकारी नहीं दी. दरअसल, आईटी अधिनियम 1961 की धारा 10 (26) के तहत विशेष क्षेत्रों अरुणाचल, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा या लद्दाख (जम्मू-कश्मीर) के अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोगों को आयकर से मुक्त रखा गया है. अरुणाचल में एक सीट को छोड़कर शेष सभी विधानसभा सीटों को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित किया गया है.
सिक्किम 32 सीटें
सिक्किम एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां 1979 के पहले विधानसभा चुनाव से क्षेत्रीय पार्टियों को ही सत्ता मिलती रही है. वहां इस बार लोकसभा चुनाव के साथ 11 अप्रैल को विधानसभा की 32 सीटों के लिए भी मतदान हुआ था. मतों की गिनती और परिणामों की घोषणा 23 मई को होगी. मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग के अलावा उनके छोटे भाई रूप नारायण चामलिंग और पूर्व फुटबॉल खिलाड़ी बाइचुंग भूटिया मुख्य उम्मीदवार हैं.
मुख्य प्रतिद्वंद्वी
चामलिंग की सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट राज्य में 1994 से लगातार सत्ता में है. वे स्वतंत्रता के बाद से किसी भी राज्य में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड बना चुके हैं. अपनी पार्टी के गठन से पहले वे सिक्किम संग्राम परिषद के नरबहादुर भंडारी की सरकार में 1989 से 1992 तक मंत्री रहे थे.
वे दो सीटों से उम्मीदवार हैं. वर्तमान विधानसभा में उनकी 22 सीटें हैं. चामलिंग सरकार को चुनौती देने के लिए प्रसिद्ध फुटबॉल खिलाड़ी बाईचुंग भूटिया हामरो सिक्किम पार्टी की ओर से मैदान में हैं. इस नवोदित पार्टी के वे कार्यवाहक अध्यक्ष भी हैं. चामलिंग की तरह वे भी दो सीटों से भाग्य आजमा रहे हैं.
मौजूदा विधानसभा में 10 सीटों के साथ सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा मुख्य विपक्षी दल है. साल 2014 में स्थापित इस पार्टी के संस्थापक प्रेम सिंह तमांग है, जो पहले चामलिंग की पार्टी में ही थे. पीएस गोले के नाम से प्रसिद्ध तमांग पहली बार 1994 में विधायक बने थे.
उसके बाद वे लंबे समय तक चामलिंग सरकार में मंत्री भी रहे थे. कभी राज्य की राजनीति में शीर्ष पर रही सिक्किम संग्राम परिषद भी मैदान में है, लेकिन अब इसका असर नहीं है. इनके अलावा कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने भी अपने उम्मीदवार उतारे हैं, पर माना जा रहा है कि मुख्य लड़ाई चामलिंग, गोले और भूटिया की पार्टियों के बीच ही है.
सिक्किम उन चुनिंदा राज्यों में से है, जहां हमेशा भारी मतदान होता है. इस बार भी 4.30 लाख में से 78.19 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया है. लेकिन यह 2014 के चुनाव से कम है. तब 83.85 फीसदी मतदान हुआ था. इस बार 32 सीटों के लिए 150 उम्मीदवार हैं. राज्य की एकमात्र लोकसभा सीट के लिए 11 उम्मीदवार मैदान में हैं.
मुख्य मुद्दा आरक्षण
सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा ने चामलिंग सरकार पर आरोप लगाया है कि कुछ अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित करने में जान-बूझकर देरी की है. साल 2014 में चामलिंग ने कहा था कि अगर 2019 के चुनाव से पहले लिम्बू और तमांग समुदायों को विधानसभा में आरक्षण नहीं मिला, तो वे पद छोड़ देंगे.
इन समुदायों को 2002 में वाजपेयी सरकार के समय जनजातीय दर्जा मिला था. राज्य की आबादी में इनकी हिस्सेदारी 30 फीसदी से ज्यादा है. हालांकि अनुसूचित जनजाति के लिए सिक्किम विधानसभा में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है, पर संविधान के अनुच्छेद 371 के तहत लेपचा और भूटिया समुदायों के लिए 12 सीटें आरक्षित हैं.
संभावनाएं
जानकारों का कहना है कि 2014 में सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा को 10 सीटें मिलना चामलिंग के लिए एक बड़ा सबक है. इससे सीख लेते हुए
उन्होंने अपने जनाधार को बचाये रखने की पूरी कोशिश की है.हालांकि, उनके पास विकास के नाम पर बहुत कुछ गिनाने के लिए नहीं है, पर राज्य में शांति-व्यवस्था बनाये रखने का उनका आग्रह असर दिखा सकता है.
मोर्चे की कुछ कथित हरकतें गोले को नुकसान पहुंचा सकती हैं.भूटिया की पार्टी उनके मतों में सेंध मार सकती है, लेकिन बहुमत प्राप्त करने में चामलिंग को मुश्किल नहीं आयेगी. अगर विपक्षी खेमे में एकता होती या सीटों का तालमेल होता, तो शायद चामलिंग को परेशानी हो सकती थी.

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