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वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशा होगा…’ कविता की ये पंक्तियां किसी शहीद के स्मारक को देख कर साकार हो उठती हैं. रणबांकुरों की धरती झारखंड में पदस्थापित अर्द्धसैिनक बलों और झारखंड पुलिस के कई अफसरों और जवानों ने उग्रवादियों से लोहा लेते हुए अपनी […]

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशा होगा…’ कविता की ये पंक्तियां किसी शहीद के स्मारक को देख कर साकार हो उठती हैं. रणबांकुरों की धरती झारखंड में पदस्थापित अर्द्धसैिनक बलों और झारखंड पुलिस के कई अफसरों और जवानों ने उग्रवादियों से लोहा लेते हुए अपनी शाहदत दी है.
यदा-कदा सम्मान समारोह आयोजित करके और कैंडल मार्च निकालकर हम इनके प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकते. यह हमारी जिम्मेवारी है कि उन्होंने अपने पीछे जो जिम्मेवारियां छोड़ रखी हैं, उन्हें पूरा करें. कई मामलों में व्यवस्था भी इनके साथ इंसाफ करने में विफल होती दिखती है.
नौकरी और मुआवजा के साथ-साथ जमीन के इंतजार में ऐसे कई शहीदों के परिवारों की आंखें पथरा गयी हैं लेकिन हालात नहीं बदल रहे. कुछेक परिवारों की बात छोड़ दें, तो आज भी ज्यादातर शहीदों के परिजन इस उम्मीद में जी रहे हैं कि कभी तो इनकी भी सुध ली जायेगी.
शहीद बेटे के नाम पर मिलनेवाली पेंशन से चलता है परिवार का गुजारा
निखिल सिन्हा, जमशेदपुर : देश के लिए दो बेटे कुर्बान करनेवाले हम दोनों आज बेसहारा हो गये हैं. बेटों की शहादत के बाद पूरा परिवार बिखर गया. अपनों ने भी साथ छोड़ दिया. किसी तरह गुजारा हो रहा है. हम (पति-पत्नी) आपस में ही एक-दूसरे का सहारा हैं. इतना कहते हुए बुजुर्ग कौशल किशोर पांडेय की आंखें नम हो जाती हैं.
श्री पांडेय झारखंड पुलिस के शहीद जवान मनमोहन पांडेय (2009) और सीआरपीएफ के शहीद जवान मनोरंजन पांडेय (2011) के पिता हैं. कदमा उलियान 21-बी के रहनेवाले कौशल किशोर ने बताया कि मनमोहन वर्ष 2004 में झारखंड पुलिस में भर्ती हुआ था. वर्ष 2009 में जीप से एक टीम गोइलकेसलामरा जंगल में नक्सल अभियान में जा रही थी.
उसी दौरान लैंडमाइंस विस्फोट हुआ और 12 पुलिसकर्मी शहीद हो गये. इनमें मनमोहन भी शामिल था. इसके करीब दो साल बाद बड़ा बेटा मनोरंजन पांडेय जो सीआरपीएफ मणिपुर में पोस्टेड था, वह भी शहीद हो गया. हमें इस बात का गर्व है कि बेटों को शहीद की उपाधि मिली. सरकार से लगभग आठ हजार रुपये प्रतिमाह मिलते हैं.
उसी से घर चलता है. विभाग ने कई कार्यक्रमों में चाईबासा, रांची और गोपाल मैदान में बुला कर सम्मानित किया है. मनमोहन जिस स्कूल में पढ़ाई करता था, वहां उसकी तस्वीर लगायी गयी है. स्कूल की ओर से भी आयोजित कार्यक्रम में भी उसे श्रद्धांजलि दी जाती है. यही हम दोनों के लिए बड़ा सम्मान है.
सरकारी सुविधा के नाम पर बेटे को मिली नौकरी
चतरा : टंडवा थाना रोल गांव के कृष्णा सिंह फरवरी 2002 में हजारीबाग में ड्यूटी के दौरान शहीद हो गये थे. रात्रि ड्यूटी के दौरान नक्सलियों ने उनकी हत्या कर दी थी. उस वक्त उनके परिवार की स्थिति सामान्य थी, लेकिन उनकी शहादत के बाद मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. हालांकि हवलदार अरुण कुमार सिंह के काफी प्रयास के बाद तीन वर्षों के बाद उनके पुत्र शैलेश कुमार को पुलिस की नौकरी मिली.
आज परिवार की स्थिति बेहतर है. पिछले साल गांव में शहादत दिवस मनाया गया. जिसमें पुलिस विभाग के लोग शामिल हुए. शहीद कृष्णा सिंह 1980 में पुलिस में बहाल हुए थे. टंडवा थाना से 20 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे गांव रोल के रहने वाले थे. उनके पिता शिक्षक व तीन भाई सरकारी नौकरी में हैं. परिवार के लोग प्रत्येक वर्ष शहादत दिवस मनाते हैं.
लेकिन पुलिस विभाग के लोग इसमें शामिल नहीं होते हैं. ग्रामीण मिथलेश कुमार सिंह ने बताया कि कृष्णा सामाजिक व्यक्ति थे. जिस दिन उनकी मौत हुई थी, पूरा गांव रोया था. आज उनका परिवार हजारीबाग में रहता है. सरकारी सुविधा के नाम पर बेटे को नौकरी व पत्नी को पेंशन मिल रही है.
शहीद के भाई को अब तक नहीं मिली नौकरी
लातेहार : लोकसभा चुनाव के दौरान 24 अप्रैल 2014 को दुमका जिले के शिकारीपाड़ा प्रखंड के पालसी नामक स्थान पर गढ़वा जिला बल में नियुक्त जवान रवींद्र कुजूर नक्सली हमले में शहीद हुए थे. वे मनिका थाना क्षेत्र के जुंगूर गांव के रहनेवाले थे. शहीद रवींद्र कुजूर के पिता लालजी कुजूर ने बताया कि रवींद्र के बड़े भाई का नाम बिरेंद्र कुजूर व छोटे भाई का नाम उमेश कुजूर है.
रवींद्र वर्ष 2011 में गढ़वा जिला बल में नियुक्त हुआ था. उस समय वह घर में एक मात्र कमानेवाला सदस्य था. उसके बाद वर्ष 2012 में बड़े पुत्र बिरेंद्र की नौकरी पशुपालन विभाग में लगी. उसकी शादी हो चुकी थी. रवींद्र की शादी होने वाली थी. इसी दौरान यह घटना घट गयी. उन्होंने बताया कि मुआवजे की राशि सरकार से तो मिल गयी, लेकिन आश्रित को नौकरी नहीं मिल पायी है.
हालांकि, प्रक्रिया चल रही है. उन्होंने बताया कि रवींद्र के छोटे भाई उमेश कुजूर का नाम नौकरी के लिए भेजा गया है, लेकिन अब तक सरकारी की ओर से कोई कार्यवाही नहीं की गयी है़ रवींद्र के पिता घर पर ही रह कर खेती करते हैं, वहीं, मां नागेश्वरी देवी समेत सभी लोग मनिका सिंजो स्थित घर पर रहते हैं.
शिबू मंडल के परिवार से वादा कर चंद दिनों में ही भूल गयी सरकार
दिलीप दीपक, धनबाद :धनबाद जिले के गोविंदपुर थाना अंतर्गत परासी निवासी स्व. अतिका प्रसाद मंडल एवं मधु मालती मंडल के पुत्र शिबू मंडल दो दिसंबर, 2006 को शहीद हो गये थे. एसटीएफ जवान शिबू मंडल अधिकारियों एवं साथी जवानों के साथ बोकारो जिले के नावाडीह थाना क्षेत्र के कंजकिरो में उग्रवादियों से मुकाबला करने गये थे. वहीं पर उग्रवादियों द्वारा बिछाये गये जाल में जवान फंस गये. बारुदी सुरंग विस्फोट में 15 एसटीएफ जवानों समेत शिबू मंडल भी शहीद हो गये थे.
पुत्र की शहादत के गम में अतिका प्रसाद मंडल की 2013 में असमय मौत हो गयी. शहीद की माता मधु मालती भी लंबे समय से बीमार चल रही हैं. वह पुत्र के शहीद होने का गम आज तक नहीं भूल पायी हैं. शहादत के छह साल बाद काफी दौड़-धूप के उपरांत बड़े भाई संजय कुमार मंडल को बोकारो जिला पुलिस में अनुकंपा पर नौकरी मिली.
वह आरक्षी हैं. तत्कालीन मुख्यमंत्री ने घोषणा की थी कि शहीद के परिजनों को घर बनाने के लिए 12.5 डिसमिल और खेती के लिए पांच एकड़ जमीन सरकार देगी, लेकिन यह घोषणा अभी तक पूरी नहीं हो सकी है. शिबू के घरवालों इस बात का मलाल है कि उनके बेटे ने देश और अपनों की खातिर जान दे दी, लेकिन सरकार आज तक अपना वादा पूरा नहीं कर सकी़
शहीद दारोगा के आश्रित को नहीं है शासन से शिकायत
अजय सिंह, बोकारो : तीन फरवरी 2005 को पलामू के छतरपुर थाना प्रभारी व 1994 बैच के दारोगा अशोक पासवान नक्सलियों द्वारा बिछाये गये लैंड माइंस की चपेट में आकर शहीद हो गये थे. उनकी पत्नी सुनीता देवी का कहना है कि पति की मौत का गम वह जीवन भर नहीं भूल पायेंगी. जब पति जिंदा थे, तो जीवन में खुशियां थीं.
आज उनके बिना कुछ भी नहीं है. नक्सली हिंसा में पति के शहीद होने के बाद उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. उस समय बड़े पुत्र की उम्र 16 वर्ष व छोटे पुत्र की उम्र 14 वर्ष थी. खुशी की बात यह थी कि दु:ख की इस घड़ी में पुलिस के वरीय अधिकारियों, सरकार और मायके वालों का पूरा सहयोग मिला. इस कारण बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो सका. सरकार ने उनके पुत्र को बाल आरक्षी के पद पर नौकरी दी. किसी प्रकार की कोई शिकवा-शिकायत सरकार से नहीं है.
बस, पति की मौत का गम मरने तक रहेगा. शहीद अशोक पासवान के बड़े पुत्र राजा रणविजय कुमार फिलहाल बोकारो के एसपी कार्यालय में सिपाही के पद पर कार्यरत हैं. छोटा पुत्र राजा रणविनय प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रहा है. पति की चिंता में सुनीता देवी अस्वस्थ रहने लगी हैं. हालांकि दोनों पुत्र माता की देखभाल करते हैं. पूरा परिवार एक साथ बोकारो के सेक्टर 3 डी के आवास में रहता है.
परिजनों ने नहीं ली सरकारी सुविधा, इच्छा है पुत्र की प्रतिमा लगे
आशीष कुंदन, देवघर : 16 जून 2009 को पलामू जिले के मनातू में माओवादी के साथ हुई मुठभेड़ में जैप-2 टाटीसिलवे रांची में कार्यरत देवघर के आंबेडकर नगर निवासी जवान उत्तम कुमार सिंह शहीद हो गये थे. नौ साल बीतने के बाद भी शहीद परिवार ने न ही नौकरी ली और न कोई सरकारी सुविधा. शहीद उत्तम के पिता हवलदार चालक अरुण कुमार सिंह देवघर जिला पुलिस में कार्यरत थे.
उनकी इच्छा है कि बेटे की प्रतिमा देवघर प्राइवेट बस स्टैंड के समीप पुराना मीना बाजार चौक पर लगे और उस चौक का नामकरण शहीद उत्तम के नाम पर हो, इसके लिए वरीय अफसरों को पत्राचार कर थक चुके हैं, लेकिन विभाग व सरकार के स्तर से इस पर कोई दिलचस्पी नहीं ली गयी. पूछे जाने पर उत्तम के पिता अरुण कुमार सिंह व मां प्रमीला देवी बताती हैं कि कभी शहीद दिवस पर भी उनलोगों को कोई उचित सम्मान नहीं मिला.
एक बार 21 अक्तूबर 2016 के दिन आरएल सर्राफ स्कूल में शहीद सम्मान दिवस समारोह का आयोजन किया गया था, जिसमें नगर थाना प्रभारी एसके महतो की मौजूदगी में उत्तम के चित्र पर पुष्प अर्पित श्रद्धांजलि दी गयी थी. अरुण ने यह भी बताया कि हर साल जैप-2 टाटीसिलवे में उन्हें जरूर बुलाया जाता है. उत्तम के पिता अरुण 31 अगस्त 2017 को सेवानिवृत्त हो चुके हैं.
शहीद की पत्नी ने नौकरी के बाद कर ली शादी, परिजन परेशान
ईचागढ़़ नक्सली घटना में शहीद हुए ईचागढ़ थाना के जाहिरडीह गांव के दिनेश कुमार बेसरा का परिवार आज बेघर हो गया है. दिनेश की शहादत के बाद उनकी पत्नी बसंती मांझी को सरकारी नौकरी मिली. लेकिन नौकरी मिलते ही उसने दूसरी शादी कर ली और दिनेश के परिवार को छोड़कर चली गयी. इसके बाद से शहीद के माता-पिता व एक भाई को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.
परिवार की स्थिति दयनीय है. शहीद के पिता दूबराज बेसरा (पूर्व मुखिया गुदड़ी पंचायत) एक पैर से दिव्यांग हैं. वह बताते हैं कि बड़ा बेटा दिनेश कुमार बेसरा ही परिवार का एकमात्र सहारा था. उसके सहारे ही परिवार चलता था. छोटा बेटा घर का काम काज करता है. बड़े बेटे के शहीद होने के बाद सोचा था कि बहू घर को संभालेगी. लेकिन उसने शादी कर ली और घर छोड़ कर चली गयी. अब हमारे परिवार के साथ शहीद की पत्नी का कोई लेना देना नहीं है.

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