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हृदय खोल कर करें प्रेम की प्रतीक्षा

ओशो शैलेंद्र आध्यात्मिक गुरु शिष्यत्व प्रेम जैसा है. प्रेम का भी बड़ा रूप. जब साधारण प्रेम भी सीखा नहीं जा सकता, होता है तो होता है, नहीं होता है, तो नहीं होता. जोर-जबरदस्ती से कोशिश नहीं की जा सकती. किसी भी दबाव में किया गया प्रेम अभिनय होता है, वास्तविक प्रेम नहीं. प्रेम कैसे पैदा […]

ओशो शैलेंद्र
आध्यात्मिक गुरु
शिष्यत्व प्रेम जैसा है. प्रेम का भी बड़ा रूप. जब साधारण प्रेम भी सीखा नहीं जा सकता, होता है तो होता है, नहीं होता है, तो नहीं होता. जोर-जबरदस्ती से कोशिश नहीं की जा सकती. किसी भी दबाव में किया गया प्रेम अभिनय होता है, वास्तविक प्रेम नहीं. प्रेम कैसे पैदा हो सकता है, इसकी कोई विधि आज तक नहीं खोजी गयी और यह अच्छा ही है, अन्यथा प्रेम भी टेक्नोलॅाजी का हिस्सा हो जाता. भविष्य में भी प्रेम को तकनीक से विकसित करना असंभव होगा.
प्रेम हवा के ताजे झोंके की भांति है. प्रेम ही अपने विराट रूप में शिष्यत्व का, श्रद्धा का भाव बनता है. भक्तिभाव उससे भी और ऊपर, अत्यंत सूक्ष्म, प्रेम का शुद्धतम रूप है. यह तो हमारे बिल्कुल भी वश में नहीं.
तो क्या फिर हम कुछ भी नहीं कर सकते? कुछ चीजें आप जरूर कर सकते हैं, और वह काम यह है कि अहंकार की चट्टान को हटा दें. उस खिड़की को खोलकर कम से कम बैठ जाएं जहां से हवा का ताजा झोंका आ सकता है. हवा का झोंका हम नहीं ला सकते, लेकिन अगर हमने खिड़की बंद करके रखी है तब भी हवा चलेगी मगर तब भीतर ताजी हवा नहीं आ सकती.
अधिकांश लोगों के जीवन में यही दुर्भाग्य हुआ है कि उनके हृदय की खिड़कियां ही बंद हैं. हमने प्रेम को रोकने के बहुत उपाय कर रखे हैं. सूरज उग भी आयेगा, तो भी हमारे घर में रोशनी नहीं होगी, क्योंकि हमने खिड़की-दरवाजे सब बंद कर रखे हैं और मोटे-मोटे परदे भी लटका रखे हैं और कह रहे हैं कि हद हो गयी, सूरज को कैसे उगाएं?
सुबह तो अपने आप होगी. सूरज उगाने पर हमारा वश नहीं है, लेकिन हम उठकर इंतजार तो कर सकते हैं, खिड़की-दरवाजे तो हम खोल सकते हैं, परदे तो हटा ही सकते हैं, ताकि ऐसा न हो कि सूरज उगे और हम नींद में ही रह जाएं. हमारे हाथ में प्रतीक्षा करना ही है. प्रेम की प्रतीक्षा की जा सकती है अपने हृदय के द्वार-दरवाजे खोलकर. ठीक यही बात श्रद्धा, भक्ति और शिष्यत्व के बारे में है. आपको जहां भी कुछ सीखने को मिल सकता है, वहां जाएं, हृदय खोलकर उसे ग्रहण करें.
कहीं न कहीं बात जरूर बन जायेगी. कोई गारंटी नहीं दे सकता कि ऐसा कहां होगा, कब होगा, किसकी संगत में होगा. लेकिन अगर आप खोजबीन कर रहे हैं, आप तलाश में हैं तो कहीं-न-कहीं अचानक कुछ हृदय के तार बज उठेंगे. किसी के संग आप पायेंगे कि आपकी ट्यूनिंग बैठ रही है. फिर वहीं ठहर जाना. जहां आपके भीतर से अपने आप शिष्यत्व का भाव आने लगे, किसी को आप गुरु की भांति देखने लगो, वहीं आप रुक जाना, फिर यहां-वहां भटकने की जरूरत नहीं. जब तक ऐसा न हो तब तक कई द्वार खटखटाने होंगे. और यही मजा है जिंदगी में.
कई लोग पूछते हैं कि गुरु की क्या पहचान है, बता दें ताकि हम सीधे सद्गुरु को पहचान लें? नहीं, ऐसा संभव नहीं है. चीजें अज्ञात हैं. अगर ये सारी चीजें प्रेडिक्टेबल हो जाएं तो जिंदगी का सारा मजा ही किरकिरा हो जाये. आप बस अपने हृदय को खोलने पर ध्यान केंद्रित करें. कहीं-न-कहीं बात बन जायेगी. लेकिन अगर आप अहंकारी हैं, अकड़े हुए हैं तो आपके द्वार-दरवाजे बंद हो गये. हो सकता है आपको जिसकी प्रतीक्षा है जीवन में, वह आपके बिल्कुल नजदीक से गुजरे और आपको पता भी न चले.
ठीक ऐसे ही गुरु की खोज है, शिष्यत्व की तलाश है. अपने आपको एक्सपोज करते रहना, जहां भी थोड़ी-बहुत संभावना नजर आती है, वहां जाना और बिना किसी विरोध के खुले हृदय से वहां जो चल रहा है, उसमें तल्लीन होना. यह एक प्रयोग है. अगर बात बनती लगे, तो वहां ठहरना, आगे और अधिक करीब से जुड़ते जाना. अगर न बनती महसूस हो, तो बिना किसी प्रकार का विरोध जताये, धन्यवाद देकर विदा हो जाना.
यह निष्कर्ष मत निकाल लेना कि यह गुरु ठीक नहीं. इसी मोड़ पर बड़ी चूक हो जाती है. अगर हमें कोई नहीं जमा तो हम नाराजगी प्रकट करते हैं कि यह गुरु ठीक नहीं. कोई निष्कर्ष न निकालकर, केवल इतना कहो कि हमारी ट्यूनिंग ठीक नहीं बैठी, बस. धन्यवाद दो, नमस्कार करो और विदा हो जाओ. यहां फिर लौटकर आने की जरूरत नहीं.
अगर कोई व्यक्ति पहले से ही अकड़ा हुआ हो, अहंकार से भरा हो, अपने ठोस सिद्धांतों से भरा हुआ पहुंचा हो गुरु के पास, विरोध भाव लेकर परीक्षक के रूप में एग्जामिनर बनकर तो फिर बात कभी नहीं बन पायेगी. बंद हृदय किसी तरंग को अपने भीतर प्रवेश करने ही नहीं देगा.
सूरज आपका दरवाजा नहीं खोलेगा, आपको झकझोरेगा नहीं. सूरज रोज निकलता रहेगा, आप देखो या न देखो, अंधेरे में रहो या सोये रहो. वह प्रतीक्षा कर रहा है कि कब आप सुबह उठोगे, द्वार-दरवाजे खोलोगे और भोर का आनंद लोगे. अस्तित्व कभी जोर-जबरदस्ती नहीं करता.
प्रेम का उदाहरण इसलिए दे रहा हूं कि इसका आपको कुछ न कुछ अनुभव जरूर है. अब आप तुलना कर सकते हैं कि शिष्यत्व का जन्म भी ऐसे ही होता है, भक्त का जन्म भी ऐसे ही होता है. इसी का थोड़ा और बड़ा रूप.

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