डा उत्तम पीयूष
जिन लोगों ने गांव नहीं देखा या सरकारी स्कूल से यही समझा है कि गांव का फोटो बनाना हो तो सुंदर झोपडी, कुटिया, पास बहती नदी, पीछे ऊंचे पहाड़ व हरे-भरे जंगल के साथ आकाश में उड़ते पंछी के बीच कुछ बैलगाड़ी, साइकिल और पैदल चलते ग्रामीणों को डाल दो, ऐसे लोग जो सपने वाले गांव जतन से अंदर ही अंदर संजोये रहते है.
उन्हें खोरठा के जन कवि कृष्ण प्रसाद चौधरी के रचे गांव को देख कर निराश होना पड़ सकता है. यहां गांव का बेहद कठिन, मुश्किल भरा, जटिल, पेच में फंसा-धंसा गांव नजर आता है. जहां उन्हें कुदरती नूर कहीं नजर नहीं आता, जिसके लिए हम खासा इमोशनल हुए जाते हैं.
कृष्ण प्रसाद चौधरी संताल परगना की ग्रामीण चेतना, संवेदना और सहज के प्रखर स्वर हैं. प्रखर इसलिए क्योंकि खरे-खरे हैं. सत्ता और साम्राज्य को जैसे बाबा नागार्जुन या अदम गोंडवी ठेंगा दिखलाते है, मुंह चिढाते हैं और कभी तो धमकाते भी हैं-चौधरी जी पूरी राजनैतिक समझ के साथ अपनी रचना के साथ हाट बाजारों, चौक चौराहों, जंगल पहाडों पर हल्ला बोलते हैं.
वे लोक गीतकार हैं, पर उनके गीत जन मुद्दों पर केंद्रित हैं. किसान और किसानी उनके गीतों के केंद्र में हैं. वह आदमी जिसके पास खेत है, वह जिसके पास खेत नहीं है और वह भी जिसके खेत तो है पर पानी नहीं है और वाणी भी नहीं. चौधरी जी बिलखते-कलपते ग्रामीणों के घरों में फैले अन्हार के बीच अन्नदाता के घर अन्नहीनता और मारा बीच मौत के बीच ‘जुलुम नय सहबे, लड़ते रहबे’ की आखिरी मृत्युजंयी चीख धरती की आत्मा कोढ़कर निकालते हैं. उनके एक खेमटा में किसानों को संगठित करने की गुहार है –
“भैया किसनवां हो
सुनी रे लेहो जुग के पुकार
जो बिखरल रहबो काम नै चलतौ
बढतो भ्रष्टाचार”
कृष्ण प्रसाद चौधरी न तो वैसे जनकवि हैं, जहां या जैसा एक रूमानी गांव दिखता या दिखाया जाता है-वे लिखने से पहले समझते हैं. तमाम साजिशें, पेचीदगियां, षडयंत्र, लूट तंत्र के फार्मूले.
संताल परगना में संभवत: ये इकलौते लोक कवि हैं, जिन्होंने अकाल, भूख, सूखा और लूट की बनावट और बुनावट में सेंधमारी की है. चौधरी जी मारा या अकाल को जितना प्रकृतिपरक मानते हैं, उतना ही मानवीय करतूत भी. उन्होंने वर्ष 1981 के मारा और1982 के सूखे पर झूमर लिखा, जो गांव-गांव में सैकड़ों-हजारों ग्रामीणों के बीच उन्होंने गाया और धीयापुताक प्राण लेने वाले महाजन बेईमान के जुल्मी चेहरे को शीशा-शीशा दिखलाया. वे कहते हैं-
“एकासी में मारा भेलो रे बेरासी में पानी गेलो
कलपी-कलपी फटे जान
कैसे बचते अब धीयापुता के प्रान,
सुदी पर सुदी लेलके ठग महाजन बेईमान…..”
कृष्ण प्रसाद चौधरी के लोकगीत सामाजिक बेइमानियों, धूर्त दलालों और लंपट हाकिमों के खिलाफ मोर्चा लेते हैं, पर यह मोर्चा गांव-गांव जाकर जगाने वाला मोर्चा है जो विनाशकारी विकास की थ्योरी का गरदा उड़ा देता है.
वे यूकिलिप्टस के खिलाफ बोलते हैं, एकेसिया का विरोध करते हैं, डीप बोरिंग को धरती की जानलेवा प्रक्रिया बतलाते हैं, वे जल साम्राज्य से लड़ते हैं, वे विनय सिंह, अरविंद भाई, घनश्याम भाई के साथ चैचाली और जीतपुर के जंगलों में जंगल बचाने के गीत गाते हैं. वे कहलगांव में अनिल प्रकाश भाई के साथ मछुआरों और गंगा मुक्ति आंदोलन का स्वर बन जाते हैं. वे ठेहुने तक खादी की धोती, कुर्ता, गंजी, आंखों पर मोटे फ्रेम वाला चश्मा और कांधे पर गमछा टांगे पैदल ही पैदल बीस कोस लांघ जाते हैं. गांव-बहियार, पोखर, अहरा, जंगल, जोरिया सब उनकी जद में थे और सबों का यथार्थ मुहावरा और हकीकत का व्याकरण उनकी वैशाली कॉपी में कैद थी.
इन दिनों भुखमरी पर काफी चर्चा है, पर देखिए कि 1981-82 में संताल परगना के मधुपुर के चेचाली ग्राम की अकली, जो शायद भुखमरी का शिकार होकर मर गयी थी और विदेशी जो ग्राम पहाड़पुर का रहने वाला था, उसने भूख की लड़ाई लड़ी थी-चौधरी जी ने अपने दो झूमरों का पात्र इन्हें बनाया और दो टूक लिखा-
“कैसे बचते अब धीयापुता के प्रान
कानी में पानी गेलो आर हथिया उड़ान
सागपात खाते-खाते अकली देलको प्रान
अब कते नींदे सुतबे किसान
घरे नाहीं एको गोटा धान
जो आपन हकक खोज करे
विदेसी ऐसन लड़िक मरे
तबे होते संगठन महान”
कृष्ण प्रसाद चौधरी 1932-2002 के गीतों के इकलौते संग्रह, जुलुम न सहबे लड़ते रहबे, में लगभग 15 गीत शामिल थे जो वर्ष 1984 में छपा था. इसकी शायद अब प्रतियां उपलब्ध नहीं हैं. हेमंत भाई द्वारा संपादित इस गीत संग्रह के बाद आज उनके सैकड़ों गीत अप्रकाशित हैं और बिखरे हुए भी.