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कांवर-यात्रा : बाबा बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का विराट दर्शन, अंतिम सोमवारी आज

सावन की चौथी व अंतिम सोमवारी आज है. पवित्र श्रावणी मास में सात दिन शेष हैं. श्रावणी माह में सोमवार को शिवोपासना का विशेष महत्व होता है. अब तक लाखों श्रद्धालु कांवर यात्रा कर शिवलिंग पर जलार्पण कर चुके हैं. बाबा बैद्यनाथ के दरबार में हर दिन लाखों कांवरिये पहुंचे. बावजूद अगर कोई श्रद्धालु अब […]

सावन की चौथी व अंतिम सोमवारी आज है. पवित्र श्रावणी मास में सात दिन शेष हैं. श्रावणी माह में सोमवार को शिवोपासना का विशेष महत्व होता है. अब तक लाखों श्रद्धालु कांवर यात्रा कर शिवलिंग पर जलार्पण कर चुके हैं. बाबा बैद्यनाथ के दरबार में हर दिन लाखों कांवरिये पहुंचे. बावजूद अगर कोई श्रद्धालु अब तक शिव का उपासना नहीं कर सका है तो यह सात दिन उसके लिए सुनहरा अवसर है.
कुछ खास उपाय के जरिये आप भी शिवोपासना का फल प्राप्त कर सकते हैं. शास्त्रों के अनुसार इन दिनों मछली काे आटे की गोलियां खिलाने से, काले कुत्ते को तेल में तली सामग्री िखलाने से, गाय, बैल या बछिया को हरा चारा खिलाने से, चींटी के आगे चीनी डालने से व पंछियों को दाना चुगाने से विशेष फल की प्राप्ति होती है. आज का यह विशेष आयोजन खास अापके लिए-
अपार ऐश्वर्य देता है शिव महिम्न स्तोत्र
बाबाधाम पहुंचे कांवरिये
श्रावण मास में भोलेनाथ शंकर की सादगी का वर्णन करने से शिव प्रसन्न होते हैं. शिव के इस महिम्न स्तोत्रम् में शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का वर्णन है. इस महिम्न स्तोत्र के पीछे अनूठी और सुंदर कथा प्रचलित है.
प्रस्तुत है कथा : एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था। वो परम शिव भक्त था। उसने एक अद्भुत सुंदर बाग का निर्माण करवाया। जिसमें विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे। प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे।
फिर एक दिन : पुष्पदंत नामक गन्धर्व उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहे थे। उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया। मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया। अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए।
फिर क्या हुआ : बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्येक दिन पुष्प की चोरी करने लगा। इस रहस्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे। पुष्पदंत अपनी दिव्य शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहे।
राजा ने निकाला समाधान : राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान निकाला। उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया। राजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पैरो से कुचल दिया। इससे पुष्पदंत की दिव्य शक्तियों का क्षय हो गया। पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था। अपनी गलती का बोध होने पर उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसकी भूल को क्षमा कर पुष्पदंत के दिव्य स्वरूप को पुन: प्रदान किया।
अर्थ सहित शिव महिम्न स्तोत्रम:-
महिम्न: पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिर:
अथाऽवाच्य: सर्व: स्वमतिपरिणामावधि गृणन
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवाद: परिकर:
हे हर !!! आप प्राणी मात्र के कष्टों को हराने वाले हैं। मैं इस स्तोत्र द्वारा आपकी वंदना कर रहा हूं जो कदाचित आपके वंदना के योग्य न भी हो पर हे महादेव स्वयं ब्रह्मा और अन्य देवगण भी आपके चरित्र की पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं। जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है उसी प्रकार मैं भी अपनी यथाशक्ति आपकी आराधना करता हूं।
अतीत: पंथानं तव च महिमा वाहनसयो:
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि
स कस्य स्तोत्रव्य: कतिविधगुण: कस्य विषय:
पदे त्ववार्चीने पतति न मन: कस्य न वच:
हे शिव !!! आपकी व्याख्या न तो मन, ना ही वचन द्वारा ही संभव है। आपके सन्दर्भ में वेद भी अचंभित हैं तथा नेति नेति का प्रयोग करते हैं अर्थात यह भी नहीं और वो भी नहीं… आपका संपूर्ण गुणगान भला कौन कर सकता है? यह जानते हुए भी कि आप आदि व अंत रहित हैं परमात्मा का गुणगान कठिन है मैं आपकी वंदना करता हूं।
मधुस्फीता वाच: परमममृतं निर्मितवत:
तव ब्रह्मनकिं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवत:
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता
हे वेद और भाषा के सृजक जब स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या? हे त्रिपुरारी, अपनी सीमित क्षमता का बोध होते हुए भी मैं इस विश्वास से इस स्तोत्र की रचना कर रहा हूं कि इससे मेरी वाणी शुद्ध होगी तथा मेरी बुद्धि का विकास होगा।
तवैश्वयंर् यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधिय:
हे देव, आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं। तीनों वेद आपकी ही संहिता गाते हैं, तीनों गुण (सतो-रजो-तमो) आपसे ही प्रकाशित हैं। आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है। इसके बाद भी कुछ मूढ़ प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फैलाने का प्रयास करते हैं जो की सर्वथा अनुचित है।
किमीह: किंकाय: स खलु किमुपाय्त्रिरभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च
अतक्र्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दु:स्थो हतधिय:
कुतर्कोऽयं कांश्चित मुखरयति मोहाय जगत:
हे महादेव !!! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। वह कहते हैं कि अगर कोई परम पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वह कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वह इस सृष्टि को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं। वेद ने भी स्पष्ट किया है कि तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता।
अजन्मानो लोका: किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने क: परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे…
हे परमपिता !!! इस सृष्टि में सात लोक हैं (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक)। इनका सृजन भला सृजक (आपके) के बिना कैसे संभव हो सका? यह किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए? तात्पर्य यह है कि आप पर किसी प्रकार का संशय नहीं किया जा सकता.
आदि शंकराचार्य के ‘निर्वाण शतकम’ का पद्यानुवाद
शिवोहं शिवोहं, शिवोहं शिवोहं, शिवोहं शिवोहं
मूल रचना
मनो बुध्यहङ्कार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिह्वा न च घ्राणनेत्रम् ।
न च व्योम भूमिर्-न तेजो न वायुः
चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहम् ॥ 1 ॥
अहं प्राण सञ्ज्ञो न वैपञ्च वायुः
न वा सप्तधातुर्-न वा पञ्च कोशाः ।
नवाक्पाणि पादौ न चोपस्थ पायू
चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहम् ॥ 2 ॥
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहो
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः ।
न धर्मो न चार्धो न कामो न मोक्षः
चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहम् ॥ 3 ॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं
न मन्त्रो न तीर्धं न वेदा न यज्ञः ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहम् ॥ 4 ॥
अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभूत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ।
न वा बन्धनं नैव मुक्ति न बन्धः ।
चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहम् ॥ 5 ॥
न मृत्युर्-न शङ्का न मे जाति भेदः
पिता नैव मे नैव माता न जन्म ।
न बन्धुर्-न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः
चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहम् ॥ 6 ॥
चिदानंद
न मन, न बुद्धि, अहंकार, न चित,
ना कान, न जीभ, न नाक, आंखें,
न आकाश, धरती, औ, तेज, वायु,
चिदानंदरुपी मैं शिव हूं, मैं शिव हूं.
न प्राण-चेतन, या पंचवायु,
न सप्तधातु, न कोष पांचों,
न वाणी, न हाथ, उत्सर्जनेन्द्रिय,
न राग, द्वेष, लोभ, न मोह, मत्सर,
न धर्मं, न धन, न काम, न मोक्ष,
चिदानंदरुपी मैं शिव हूं, मैं शिव हूं.
न पुण्य, न पाप, न सुख, न दुख ही,
ना मंत्र, न तीर्थ, न वेद, या यज्ञ,
न हूं मैं भोजन, न भोग्य, भोक्ता,
चिदानंदरुपी मैं शिव हूं, मैं शिव हूं.
न मृत्युशंका में, न जातिभेदों में,
न मेरे पिता, या न माता, या जन्मे,
न मेरे भाई, न मित्र, गुरु, सिस,
चिदानंदरुपी मैं शिव हूं, मैं शिव हूं.
मैं निर्विकल्पी, निराकार ठहरा,
हूं, हर जगह, औ सभी इन्द्रियों में,
न कोई बंधन, मुक्ति, ना फेरा,
चिदानंदरुपी मैं शिव हूं, मैं शिव हूं.
(राजेंद्र कुमार पाठक )
बासुकिनाथधाम ही है नागेश ज्योतिर्लिंग
हरीतकी वनं दिव्ये दु:संचारे भयावहे
अद्यापि वर्त्तते चण्डि वैद्यनार्थो महेश्वर:
हाद्राख्य पीठ मध्ये तु रावणेश्वर मुक्तिमम्
नागेश ज्योर्तिलिंग कहीं और न होकर दारूक वन में ही स्थित है. दारूक वन की स्थिति अंगदेश के दक्षिण में निषध देश में सिद्ध होती है. आद्य शंकराचार्य ने द्वादश ज्योतिर्लिंग के बारे में लिखा है
‘याम्से सदंगे नगरेतिम्ये विभूषिंग विविधैश्य भोगे: सद् भक्ति मुक्ति प्रदमीशमेंक श्री नागनाथ शरणं प्रदद्ये’
अंग देश के दक्षिण में स्थित अतिरम्य नगर में भक्ति मुक्ति प्रदान करने वाले एकमात्र नागनाथ की शरण में आता हूं, जो विविध भोगों से संपन्न होकर सुंदर आभूषणों से भूषित हो रहे हैं. अंग प्रदेश वर्तमान में पूर्णिया, मुंगेर एवं भागलपुर प्रमंडलीय क्षेत्र आते हैं.
इनसे दक्षिण में निषध प्रदेश वर्तमान में संतालपरगना प्रमंडलीय भू-भाग है. निषध प्रदेश के अधिपति राजा महाराज नल थे. महाभारत के वनपर्व में उल्लिखित है निषधाधिपतिर्नल: नल के नाम पर संतालपरगना प्रमंडल के जामताड़ा जिले के नाला प्रखंड है. दुमका को दारूका का अपभ्रंश माना गया है, जो व्याकरण से भी सिद्ध होता है. पाणिकिन-अष्टाध्यायीमें पतंजलि ने लिखा है-
एकैकस्य शब्दस्य बहवो अपभ्रंशा तद्यथा गौरित्यस्य शब्दस्य, गावी, गोणी गाती गोतलिके, इत्येवमाद योपभ्रंशा
याम्ये सदंगे नगरेतिरम्ये का अर्थ दक्षिण के सदंग नगर से बताया है. परंतु दक्षिण भारत में सदंग नामक नगर कहीं नहीं है. यदि सदंग नामक नगर दक्षिण भारत में है भी तो वह दारूक वन में नहीं हो सकता. चूंकि दारूक वन की स्थिति निषध प्रदेश में है और इस प्रमंडल में दारूका वन की स्थिति वैद्यनाथधाम से तीन योजन की दूरी पर पूर्व की दिशा में मानी गयी है जो वर्तमान में बासुकिनाथधाम में होना सिद्ध होता है. इस प्रकार बासुकिनाथ शिवलिंग ही नागेशनाथ ज्योतिर्लिंग सिद्ध होता है.
नागेश और बासुकि समानार्थी शब्द है. गीता के दशवें अध्याय में भगवान ने अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए सर्पों में अपने को बासुकि का स्वरूप बतलाया है. समुद्र मंथन के पश्चात् देवताओं ने श्री नागेशनाथ ज्योतिर्लिंग की सन्निधि में बासुकि नाग को सौंप दिया इस तरह श्री नागेशनाथ का नाम बासुकिनाथ हो गया.
यथा बासुकि प्रदूरावीत्वा त्वयंते पार्वतीपते, समर्पयेम तस्मात्वं बासुकिर्नाथ ईरीत:
फौजदारीनाथ की पूजा किये बिना पूजा अधूरी
पंडित कन्हैयालाल पाण्डेय ‘रशेस’
किंवदंतियों के मुताबिक प्राचीन समय में बासुकि नाम का एक किसान कंद की खोज में जमीन पर हल चला रहा था तभी उसके हल का फाल किसी पत्थर से टकरा गया और वहां रूधिर बहने लगा. इसे देखकर बासुकि भागने लगा तब आकाशवाणी हुई ‘तुम भागो नहीं मैं नागेश्वरनाथ हूं, मेरी पूजा करो…’तभी से यहां पूजा होने लगी है. कहा जाता है कि उसी बासुकि के नाम से इस मंदिर का नाम बासुकिनाथधाम पड़ा है. वयोवृद्ध पंडित तेजनारायण पत्रलेख ने बताया कि बाबा वैद्यनाथ के दरबार में अगर दिवानी मुकदमों की सुनवाई होती है तो बासुकिनाथ में फौजदारी सुनवाई होती है. भगवान भोलेनाथ को दूध से अभिषेक करने पर मन की कामना जल्दी सिद्ध होती है.
फौजदारीनाथ की पूजा नहीं करने से पूजा अधूरी मानी जाती है इसलिए बाबा वैद्यनाथ की पूजा करने के बाद भक्तों की भीड़ यहां जुटती है. बाबा फौजदारीनाथ पर केवल पुष्प, बेलपत्र एवं गंगाजल चढ़ाने मात्र से ही मानव के सभी कष्ट, क्लेश दूर हो जाते हैं. बासुकिनाथ में शिव का रूप नागेश है. यहां पूजा में अन्य सामग्री तो चढ़ाई जाती है लेकिन दूध से पूजा का अलग महत्व है. नागेश का दूध से पूजा करने से भगवान शिव प्रसन्न रहते हैं.

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